उड़ती मैं पंछीयों कि तरह
जो मेरे पंख होते,
आज़ाद मैं निले गगन में,
बंद ना होती इन चार दिवारो में।
पंछी उडते हैं अपनी मर्जी से,
शायद एक औरत भी जी पाती अपनी मर्जी से,
करती पुरे अपनें ख्वाब वो,
एक आम आदमी कि तरह।
पंछी और एक औरत
पुरब और पश्चिम हैं,
पंछी आज़ाद पुरी तरह
और औरत बन्दी बंधनों में है।
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