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रूढ़िवादी विचारों से आज़ाद नहीं हुआ है दलित समाज

असमानताएं, रूढ़िवादी विचार, कुरीतियां, अतार्किक परंपराएं और कुप्रथाएं यह आज भी कुछ ऐसी लकीरें हैं जो भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधक हैं। भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जो विविधताओं से भरा पड़ा है। सभी प्रांतों की वेशभूषा, रूप-रंग, रहन-सहन, भाषा-बोली और यहां तक कि खानपान आदि भी भिन्न-भिन्न हैं। बावजूद इसके यह सब मिलकर इसे विश्व में अग्रणी बनाने और इसे एक विशिष्ठ पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि विदेशों से यहां आने वाले इसी संस्कृति व सभ्यता में जीना अधिक पसंद करते हैं। लेकिन इसी अद्भुत पहचान के विपरीत भारत की एक दूसरी पहचान भी है। हज़ारों सालों की महान विरासत के बावजूद यह देश जाति, संप्रदाय, ऊंच-नीच, छुआछूत, ढोंग-ढकोसला और जादू-टोना जैसे बंधनों में जकड़ा हुआ है। आश्चर्य की बात तो यह है कि अनपढ़ तो अनपढ़ कई बार एक पढ़ा लिखा व्यक्ति भी इससे जकड़ा हुआ नज़र आता है।

दरअसल क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, धर्मवाद और भाषा आदि की भिन्नता से आज भी भारत का ग्रामीण क्षेत्र मुक्त नहीं हो पाया है। विशेषकर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा समुदाय में यह स्थिति अधिक है। इसमें रूढ़िवादी विचारधारा सबसे अधिक हावी है। जिससे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी इससे प्रभावित हो रहा है। यह वह मानसिक बीमारी है जिसमें एक इंसान दूसरे इंसान को तुच्छ समझता है। इस सोच से देश के न केवल सामाजिक सौहार्द, समरसता और एकता कमजोर पड़ती है बल्कि इसके विकास में भी बाधा उत्पन्न करती है। दरअसल विकास का मतलब केवल आधुनिक और मशीनी युग में जीना नहीं होता है बल्कि इससे पहले बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक रूप से स्वयं को और समाज को जागृति करना आवश्यक है।

समाज के प्रत्येक नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों की जानकारी के साथ-साथ मूल कर्तव्यों का भी बोध होना आवश्यक है। इसके बिना समतामूलक व स्वस्थ समाज की संरचना बेहद मुश्किल है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि आज भी हमारा समाज धर्म और जाति के नाम पर बंटा हुआ नज़र आता है। इसकी वजह से समाज के विकास में कई प्रकार की बाधाएं नज़र आती हैं। कई बार ऐसी संकीर्ण मानसिकता सरकार की विकासकारी योजनाओं को भी नाकाम बना देती हैं। हालांकि गांव गांव तक विकास के लिए अपने स्तर सरकार द्वारा चलाए जा रहे प्रोग्राम और योजनाएं बहुत लाभकारी होती हैं, यदि उन्हें उचित और समान रूप से धरातल पर लागू किया जाये तो ग्रामीण स्तर पर भी बदलाव देखने को मिलेंगे।

लेकिन ग्रामीण स्तर पर जाति और समुदाय की यही संकीर्ण मानसिकता उसके विकास में बाधक बन जाती है। इसका एक उदाहरण लीची के लिए प्रसिद्ध बिहार के मुजफ्फरपुर जिला के सरैया ब्लॉक स्थित सुदूर देहाती क्षेत्र बसैठा पंचायत है। जिसके वार्ड संख्या 11 में संचालित आंगनबाड़ी केंद्र जाति भेदभाव का शिकार है। दरअसल यह केंद्र महादलितों की बस्ती के बीच स्थित है। आसपास कोई प्राथमिक विद्यालय भी नहीं है। ऐसे में दलित समाज के नौनिहालों का भविष्य इसी आंगनबाड़ी केंद्र पर निर्भर है। लेकिन बस्ती के लोगों का आरोप है कि इस केंद्र की सेविका मंजू कुमारी और सहायिका आषा कुमारी का बच्चों के प्रति दोयम दर्जें का व्यवहार है। उन्हें इन दलितों के बच्चों को केंद्र में बुलाकर पढ़ाना या अन्य गतिविधियां करवाना अच्छा नहीं लगता है। बस्ती वालों का आरोप है कि इस आंगनबाड़ी केंद्र की सेविका और सहायिका उच्च जाति से हैं, ऐसे में वह इन महादलित बच्चों के साथ उचित व्यवहार नहीं करती हैं।

हालांकि वहां के छोटे-छोटे बच्चों को जाति और धर्म का ज्ञान भी नहीं है। ऐसे में उनका व्यवहार इन मासूम के दिलों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। इस संबंध में राम टोले की बलकेसिया देवी कहती हैं कि केंद्र पर हमारे बच्चों की उचित देखभाल नहीं की जाती है। जबकि आंगनबाड़ी केंद्र की सेविका और सहायिका को पोषण क्षेत्र के बच्चों व माताओं को पूरक आहार, स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान और नौनिहालों को घर-घर जाकर पढ़ने के लिए उत्सुक करना है ताकि पोषण क्षेत्र के बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास हो सके और वह कुपोषण मुक्त रह सकें। बच्चे किसी भी समुदाय और जाति के हों, वही कल के भविष्य निर्माता हैं। इनके साथ भेदभाव और छुआछूत करना एक शिक्षक के लिए न केवल अनुचित कदम है बल्कि असंवैधानिक भी है।

जहां अन्य समुदाय मानसिक रूप से महादलित समाज से भेदभाव करता है, वहीं खुद यह समाज भी रूढ़िवादी विचारों की ज़ंजीरों से आज़ाद नहीं हो पाया है। आज़ादी के अमृतकाल में भी महादलित समुदाय में अशिक्षा का आलम यह है कि लोग घर में बीमार पड़ने पर डाॅक्टर से ज्यादा ओझा (झांड़फूंक करने वाला) पर विश्वास करते हैं। गोविंदपुर राम टोला की 45 वर्षीय रिंकू देवी कहती हैं कि समुदाय में बीमार होने पर डॉक्टर से पहले झाड़फूंक करने वाले के पास जाते हैं। समुदाय को उसपर अधिक विश्वास है। एक बच्चे को दिल में छिद्र है जिसका डाॅक्टरी इलाज के साथ-साथ झांड़फूंक भी करा रहे हैं। इस समुदाय की महिलाओं की स्थिति और भी अधिक बदतर है। महिलाओं को स्वास्थ्य की देखभाल और सुरक्षा की प्राथमिक जानकारी तक नहीं है। मासिक धर्म, प्रसव सुरक्षा, बच्चों का पोषण और एनीमिया जैसी बीमारियों के बारे में भी पूर्णतः जानकारी का अभाव है।

इस समुदाय में अभी बाल विवाह पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ है। औसतन लड़कियों के दसवीं या मीडिल पास करते ही शादी कर दी जाती है। कभी-कभार लड़कियों की उम्र से काफी अधिक आयु के लड़कों से उसकी शादी कर दी जाती है। कम उम्र में शादी और फिर बच्चे के जन्म के कारण इस समुदाय की अधिकतर विवाहिता कुपोषण की शिकार होती हैं। यहां लड़कियों को कमतर और बोझ समझा जाता है। गरीबी और अशिक्षा के कारण ज़्यादातर लड़कियों को बाहर भेजकर पढ़ाना मर्यादा के विपरीत समझा जाता है, हालांकि लड़कों के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं है। बस्ती से कुछ किमी की दूरी पर स्थित उत्क्रमित विद्यालय गोविंदपुर के शिक्षक साधु सहनी, पंकज कुमार और संजय कुमार आदि बताते हैं कि दलित समाज में आज भी जागरूकता का घोर अभाव है। इनके बच्चों का नामांकन तो होता है पर वे नियमित पढ़ने नहीं आते हैं। अभिभावक संवाद के दौरान भी माता पिता को शिक्षा के महत्त्व से अवगत कराया जाता है और उन्हें बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, लेकिन उनपर इसका कोई असर नहीं पड़ता है।

दरअसल, जब तक दलित समुदाय में शिक्षा की लौ नहीं जलेगी तब तक उनका सामाजिक, आर्थिक और मानसिक रूप से विकास असंभव है। समुदाय की कायापलट करने के लिए इसमें व्याप्त कुरीतियां, अंधविश्वास, पिछड़ेपन और गरीबी को दूर करने की ज़रूरत है। इसके लिए समाज के प्रबुद्ध लोगों के साथ साथ स्थानीय बुद्धिजीवियों, शिक्षकों और समाजकर्मियों के अलावा जनप्रतिनिधियों एवं प्रखंड स्तर के पदाधिकारियों को भी मजबूत पहल करने की ज़रूरत है। तब जाकर स्वस्थ्य समाज और देश की कल्पना की जा सकती है।

यह आलेख मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से ममता देवी ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। वह महिला अधिकारों से जुड़े कार्यक्रमों में ग्रामीण स्तर पर सक्रिय भूमिका निभाती हैं।

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