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एक देश – एक चुनाव घातक साबित होगा ?

क्या एक साथ लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव कराना सही होगा ?

जैसे कि हम सभी को मालूम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी कई मौकों पर ‘एक देश – एक चुनाव’ की बात कर चुके है । उनकी मंशा है कि लोकसभा व सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हो

इसके पीछे तर्क है कि हमेशा किसी ना किसी राज्य में चुनाव होता रहता है, जिससे विकास कार्य प्रभावित होती है और चुनाव करवाने में अधिक पैसे भी खर्च होते है ! बार बार चुनाव होने से मतदाता वोटिंग नहीं कर पाता है । प्रथम दृष्टया यह बात एकदम सही भी लगता है लेकिन क्या यह इतना सरल है ?

{ जिसके साथ 50% से अधिक MLA होते है, वो मुख्यमंत्री और जिसके पास 50% से अधिक MP होते है, वो प्रधानमंत्री बनता है ; ये बेसिक ज्ञान तो हम सभी को होगा }

जब 1951-52 में पहली बार चुनाव हुआ था तो लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे …

लेकिन कई राज्यों में विभिन्न कारणों से सरकार पहले ही गिर गयी / विधानसभा भंग हो गया ; जिसके कारण फिर से चुनाव करवाया गया

अब यहाँ आप कहेंगे कि जब 5 साल के पहले ही चुनाव करवाने की नौबत आए तो फिर अगले 5 साल के बजाए, बचे हुए कार्यालय के लिए चुनाव करवाया जाए ! ठीक ।

तो क्या इससे अधिक धन नहीं लगेगा ? इससे टैक्स का पैसा बर्बाद नहीं होगा ?

मानो कि विधानसभा 2 साल पर ही भंग हो जाए तो फिर अगले 3 साल के लिए चुनाव होगा .. तो फिर आचार संहिता लगेगा ही ? सभी सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री आदि प्रचार करने आयेंगे ही तो फिर स्थिति तो वही हो गयी ?

इसके साथ ही जो 3 साल के लिए विधानसभा चुनाव होगा; उसमे जो MLA, मंत्री आदि बनेंगे, अगर वे दुबारा ना चुने जाए तो भी उन्हें पेंशन तो मिलेगा ही ?

और अगर कभी 5 साल से पहले केंद्र सरकार गिर जाए / समय से पहले लोकसभा भंग करना पड़े तो क्या फिर सभी राज्यों की विधानसभा भही भंग की जाएगी या फिर केवल लोकसभा का बचे हुए कार्यालय के लिए दुबारा चुनाव होगा ? दूसरा विकल्प पहले से बेहतर है .. लेकिन यहाँ भी तो समय व पैसा बचता नहीं दिख रहा है !

खैर, चलो मान लेते है कि उपरोक्त समस्याओं का समाधान निकाल लिया जाएगा

लेकिन जब लोकसभा व विधानसभा का चुनाव एक साथ होगा तो केवल उद्योगपतियों के उम्मीदवार ही जीत पायेंगे

Electoral Bond / चुनावी बांड का नाम तो सुना ही होगा ? गुजरात चुनाव 2022 के पहले मालूम हुआ कि लगभग सभी चुनावी बांड सत्ताधारी BJP को ही गया था ।

इलेक्टोरल बांड चुनावी भ्रष्टाचार को कानूनी मान्यता देता है

विपक्षी पार्टी को कौन बांड दे रहा है, यह सत्ताधारी पार्टी को मालूम हो सकता है लेकिन सत्ताधारी पार्टी को कौन बांड दे रहा है, यह किसी को नहीं मालूम होता

इससे सत्ताधारी पार्टी चंदा / बांड देने वालो को फायदा पहुँचाती है कि नहीं, यह भी नहीं मालूम हो पाता

जैसा कि आपको पता है कि अभी भी व्यापारियों और उद्योगपतियों के द्वारा अपने पसंदीदा पार्टीयो को चंदा दिया जाता है ( जैसे अंबानी व अडानी ने बड़े पैमाने पर BJP को चंदा दिया था ) .. इनके द्वारा कई प्रकार से चुनाव को प्रभावित भी किया जाता है .. News 18 अंबानी जी का चैनल है इसीलिए उस पर कृषि कानूनों, श्रमिक कोड आदि सभी मुद्दों पर BJP व उद्योगपतियों का ही पक्ष लेती है .. लगभग सभी न्यूज़ चैनलों में अम्बानी/अडानी/उद्योगपतियों का पैसा लगा है .. भारतीय मीडिया पूरी तरीके से उद्योगपतियों व राजनेताओं के मुट्ठी में है .. अगर निजीकरण हो गया तो उद्योगपति चाहे तो पूरी सरकारी व्यवस्था को बंधक बना सकते है । आने वाले दिनों में बड़े उद्योगपति जिसे चाहेंगे वही पार्टी सत्ता में आएगी, चुनावी प्रक्रिया मात्र रस्म अदायगी रह जायेगी क्योकि ये उद्योगपति किसी आम को चंदा देंगे नहीं और जब ये चंदा देंगे नहीं तो कोई चुनाव लड़ेगा कैसे ? और जब कोई चुनाव नहीं लड़ेंगा तो जीतेगा कैसे ?

अभी जब विधानसभा व लोकसभा चुनाव अलग अलग होते है तो कम संसाधन वाले पार्टीयां भी चुनाव लड़ लेती है, निर्दलीय भी जीत जाते है, जिससे लोकतंत्र मजबूत होता है; दबे कुचले लोगो का भी प्रतिनिधित्व हो जाता है – अभी कई छोटे छोटे दल अपने एरिया में चुनाव जीत जाते है

लेकिन जब सभी विधानसभाओं व लोकसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो केवल बड़ी पार्टीयां ही चुनाव जीत पायेंगी ..

अभी BJP के पास चुनावी बांड का 90% से अधिक है इसीलिए वो गुजरात में 27 साल राज करने के बाद भी बड़े मजबूती से चुनाव लड़ी

उसके नेता मिनटों में यहाँ तो मिनटों में वहाँ चले जाते है

लेकिन निर्दलीय या छोटी पार्टीयां ऐसा नहीं कर पाती है

वर्तमान व्यवस्था में ही गरीबो की आवाज सदन तक नहीं पहुँच पाती है तो फिर जब एक साथ चुनाव होगा, तब की स्थिति तो एकदम पूंजीवादी हो जाएगी

इसके साथ ही हम सभी जानते है कि जब चुनाव होता है तो ही ये नेता लोग काम करते है

MCD चुनाव के पहले गिने चुने झुग्गी वालो को मकान की चाभी मिल गयी

2019 के लोकसभा चुनाव के समय किसान सम्मान निधि की घोषणा हुए और फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा 2022 चुनाव के पहले कई जगहों की सड़कें बन गयी, PM को छुट्टा पशुओं के समस्या पर बात करना पड़ा .. अब सोचिए कि अगर लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ होते तो फिर आपको सड़के बनवाने के लिए 5 साल (2024 तक) का इन्तेजार करना पड़ता

यह कड़वी सच्चाई है और यह सभी पार्टीयां व नेता करते है ।

लोकसभा चुनाव के बीच में विधानसभा चुनाव आ जाता है इसीलिए थोड़ा और काम हो जाता है , नहीं तो 5 साल इंतेजार करना पड़ता

किसान महीनों से 3 कृषि कानूनों का विरोध कर रहे थे लेकिन सत्ता के घमंड में चूर BJP ने उनसे कोई संवाद नहीं किया ! किसानों को तरह तरह से बदनाम किया गया लेकिन BJP जैसे पार्टीयों को केवल चुनाव जीतने – हराने से ही फर्क पड़ता है इसीलिए विधानसभा चुनावों को नजदीक देख, तीनो कानूनों को वापस लेने का घोषणा कर दिया गया ( इस पूरे घटनाक्रम से हम सभी वाकिफ है ) विधानसभा चुनाव की मद्देनजर कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था, उसके बाद ही PM मोदी ने पुरजोर तरीके से एक देश – एक चुनाव की बात की थी ! 

 BJP जैसे पार्टीयों को केवल चुनाव जीतने व हराने से ही फ़र्क पड़ता है और बाकी किसी दूसरे चीज से नहीं ! अगर विधानसभा चुनाव ना होता तो किसान कितना भी धरना प्रदर्शन / आंदोलन करते, क्या विवादित कृषि कानून वापस होते ? चुनाव ना होता तो क्या पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ना बंद होता ?

और रही बात आचार संहिता की तो विधानसभा चुनाव में यह पूरे देश में नहीं लगता है; केंद्र सरकार व दूसरी राज्य सरकारें अपना काम बिना रोक टोक के जारी रख सकती है; आदर्श आचार संहिता बस सम्बंधित राज्य में ही लगता है .. वो भी नियमित कामो पर कोई असर नहीं डालता है, बस नए योजनाओं के शुरुआत पर रोक लगाता है ।

हम एक देश – एक चुनाव प्रोपेगैंडा का पुरजोर तरीके से विरोध करते है।

बाकी त्रिस्तरीय पंचायत, विधानसभा, लोकसभा सभी चुनावों का अपना अलग अलग महत्व होता है; सभी चुनावों को एक साथ करवाना बिल्कुल ही गलत, अव्यवहारिक, जनता / लोकतंत्र विरोधी, विकास व गरीब, आदिवासी विरोधी होगा !

अगर एक देश – एक चुनाव के पीछे कोई नेक इरादा है तो इसे दूसरे तरीके से भी पूरा किया जा सकता है –

अभी हम केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को गृह मंत्रालय का काम करते हुए कभी नहीं देखते है क्योंकि वे हमेशा चुनावो में ही लगे रहते है .. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हमेशा BJP के प्रचार में ही लगे रहते है

हमेशा कैमरे पर ही रहते है तो काम कब करते है ? क्या पार्टी प्रचार को भी PM / मंत्रियों का काम माना जाना चाहिए ?

इसीलिए एक व्यवस्था बना दिया जाए कि प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री आदि केंद्र स्तर के लोग केवल केंद्रीय स्तर के चुनाव / लोकसभा में ही प्रचार – प्रसार करेंगे; वे विधानसभा या निगम चुनावो में प्रचार – प्रसार के लिए नहीं जायेंगे

पार्टी अपने केंद्र सरकार के कामो का इस्तेमाल करे, उसका प्रचार करे, PM व केंद्रीय मंत्रियों का नाम भी इस्तेमाल करे लेकिन ये लोग खुद राज्यो / निगमों / पंचायतों के चुनाव में प्रचार करने ना जाये

आप समझ रहे है ना कि हम क्या कहना चाहते है ?

इससे PM / मंत्रियों की निष्पक्षता बढ़ेगी; जो लोग दूसरे पार्टी को वोट दिए रहे होंगे, उन्हें भी विश्वास होगा; चुनावी खर्च अपने आप कम हो जाएगा; लोकतंत्र मजबूत होगा; वैसे भी लोकतंत्र पार्टीयो का शासन नहीं बल्कि लोगो का शासन है और लोगो का शासन तभी होगा, जब विधानसभाओं में गरीबो, दबे कुचले, छोटे पार्टियों, निर्दलीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा

धन विधेयक को छोड़ के राज्यसभा व लोकसभा के पास एक बराबर शक्तियां व कार्य है, कई मामलों में राज्यसभा के पास अधिक शक्तियां है लेकिन विधानपरिषद के पास किसी भी मामले में कोई शक्ति नहीं है; विधानपरिषद हाँ बोले या ना, होगा वही जो विधानसभा की मर्जी होगी तो ऐसे में विधानपरिषद व MLCs पर पैसा क्यो बर्बाद किया जाता है ? बचे हुए 6 राज्यो से भी विधानपरिषद खत्म कर देना चाहिए ।

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