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पहचान की तलाश में विस्थापित बच्चों का अंधकारमय भविष्य

असम के प्रसिद्ध कवि मौलाना बंदे अली ने असम के मुसलमानों पर अपनी कविता में लिखा है: 

“न चरवा, न पमवा हूँ, मैं असमिया हूँ.”

“मैं असम की जमीन और हवा का बराबर का हकदार हूँ.”

इन पंक्तियों में व्यक्त भावनाएँ अभी भी बारपेटा के चार क्षेत्रों में रहने वाले अल्पसंख्यकों की समस्याओं का प्रतिनिधित्व करती हैं. बांग्लादेश के साथ असुरक्षित और साझा सीमा के कारण, बारपेटा के चार क्षेत्रों के मुस्लिम निवासियों को अक्सर राज्य में भेदभाव और शत्रुता का सामना करना पड़ता है. उन्हें अलग करने की कोशिश में ‘बांग्लादेशी’ कहा जाता है. पहचान की लड़ाई के साथ-साथ यह आबादी आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना कर रही है. इसलिए उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों में पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. लेकिन पलायन के बाद भी उनके पीछे पहचान का बोझ बना रहता है.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कूड़ा बीनने वाली सलमा (बदला हुआ नाम) इसी श्रृंखला से जुड़ी एक कड़ी है. सलमा 45 साल की हैं और उनके तीन बच्चे हैं. राशिद और अली (बदला हुआ नाम) उनके दो बेटे हैं. दोनों अपने माता-पिता के साथ कूड़ा बीनने का काम करते हैं. बेटी सायमा (बदला हुआ नाम) घर का काम संभालती है. सलमा ने असम स्थित बारपेटा में अपने घर और समुदाय के खिलाफ भयानक हिंसा को बहुत करीब से देखा है. जहां बांग्लादेशी कह कर उसके पति और ससुर को उसकी आँखों के सामने बेरहमी से पीटा गया था, जिसके कारण उसका परिवार लखनऊ आ गया. जहां उसका एक चचेरा भाई झुग्गी में रहकर कूड़ा बीनने का काम करता है. इस प्रकार वह और उसका परिवार भी इसी काम में शामिल हो गया.

सलमा के पति और उनके बेटे कूड़ा उठाने के लिए गाड़ी खींचते हैं और सलमा घरों से कूड़ा उठाने के लिए पैदल चलती हैं. राशिद 17 साल का है और अली 15 साल का. सबसे छोटी बेटी सायमा 13 साल की है. उनका एक बड़ा बेटा था जो 25 साल का रहा होगा लेकिन बारपेटा में रहने के दौरान ही एक बीमारी के कारण उसकी मौत हो चुकी है. फिलहाल सलमा के कोई भी बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं. राशिद का जन्म उनके लखनऊ आने के बाद हुआ था. वह भी कभी स्कूल नहीं गया. जब वह छह साल का था तब उसने पहली बार अपनी मां के साथ काम करना शुरू किया. जबकि उसका भाई अली सात साल की उम्र से काम कर रहा है. इसके बाद से दोनों रोजाना काम पर जा रहे है. परिवार मुश्किल से पांच से छह हज़ार रुपये प्रति माह कमाता है. जिससे वे किसी तरह घर चलाते हैं. बरपेटा में सलमा के पति राहत और उसके ससुर के साथ मारपीट की गई इससे राहत के पैर में गंभीर चोट लग गई थी, जिससे उन्हें चलने में काफी परेशानी होती है. घर का खर्च चलाने के लिए घर के सभी सदस्यों को काम करना पड़ता है.

राशिद और अली अपने पैतृक घर बारपेटा कभी गए नहीं हैं, केवल अपनी मां से वहां की कहानियां सुनी हैं. उनका कहना है कि वह सुरक्षित जगह नहीं है। वह अपने दादा-दादी, जो अभी भी बरपेटा में रहते हैं, को लखनऊ लाने के लिए पर्याप्त पैसा कमाना चाहते हैं। दोनों भाइयों को कचरा उठाने के काम पसंद नहीं है, लेकिन चूंकि वह अशिक्षित हैं, इसलिए उनके पास विकल्प नहीं है. छोटा भाई राशिद आईटीआई करके मैकेनिक वर्कशॉप में काम करना चाहता है। लेकिन शिक्षा पूरी नहीं कर पाने के कारण उसका यह स्वप्न अधूरा है. वे अपना खाली समय कैसे व्यतीत करते हैं? जब हमने उससे इस बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह टीवी देखते हैं और खाली समय में अपने फोन पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. उनकी मां सलमा राशिद को थप्पड़ मारती हैं और कहती हैं ‘और शराब पीता हूँ, वो भी बताओ’.

बेटी सायमा बहुत शांत थी. हमने उससे पूछा कि क्या उसका कोई दोस्त है। इस सवाल के जवाब में उसने कहा कि उनके दोस्तों का एक समूह है और वे अक्सर एक साथ बाजार जाती है, लेकिन वह भाइयों की तरह काम पर नहीं जाती है. इस पर सलमा ने कहा कि वह उसे काम नहीं करने देती क्योंकि यह छोटी बच्चियों के लिए सुरक्षित नहीं है. स्थानीय लोग गलत व्यवहार करते हैं और कभी-कभी पुलिस भी उन्हें परेशान करती है. सलमा ने कहा कि एक बार राशिद को पुलिस ने बिना वजह हिरासत में ले लिया और एक रात के लिए हिरासत में रखा. उसकी रिहाई के लिए पुलिस वालों को कुछ पैसे भी देने पड़े थे. जब हमने राशिद और अली से उनकी इच्छाओं के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि वह सायमा की शादी एक अच्छे लड़के से करना चाहते हैं और फिर एक दुकान खोलना चाहते हैं ताकि उन्हें कूड़ा बीनने के ‘गंदे काम’ में न लगना पड़े। लेकिन वह यह भी कहते हैं कि उनकी पहचान अपनी दुकान खोलने में चुनौती बन सकती है.

यह तथ्य बताता है कि जब हिंसा और संकट विस्थापन का कारण बनता है तो प्रवास न केवल आजीविका की तलाश में होता है, बल्कि हाशिए पर जाने, कई अभावों और संकट से बचने के लिए संघर्ष की शुरुआत भी होती है. जब लोग अपनी मूल भूमि से अपनी भौतिक संपत्ति के साथ पलायन करते हैं, तो वे अपने साथ कुछ लगाव और बहुत सी पुरानी यादों के साथ-साथ विभिन्न नुकसान भी ले जाते हैं. अपनी जड़ों से कट जाना और अपरिचित माहौल में स्वयं को ढ़ालना बच्चों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है. हालाँकि, जब किसी को उनके घर से जबरन वंचित किया जाता है, तो यह लोगों को अपने साथ “पहचान” का बोझ उठाने के लिए भी मजबूर करता है, और यह बोझ किसी परिवार के लिए बहुत भारी होता है. जिसे शब्दों में वर्णन करना कठिन है, विशेषकर विस्थापित बच्चों के संदर्भ में.

यह आलेख वर्क नो चाइल्ड बिज़नेस की फेलो निधि तिवारी ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

नोट: पहचान छिपाने के लिए फोटो नहीं डाला गया है.

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