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दीपिका की बिकिनी की तुलना भगवा की पवित्रता से क्यों?

राजनीति विकास का नहीं विवाद का माध्यम बनकर रह गई है।
समाज में अश्लीलता का विरोध हो तो बात बने, रंग का क्या करना ?
बॉलीवुड अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के एक गाने पर देशभर में विवाद गरमा गया है। हालांकि हर विवाद और मुद्दे की तरह यह भी दो धड़ों में बंट गया। बिकिनी के रंग पर कई संगठनों का मानना है कि यह भगवा रंग की बिकिनी पहनकर बेशर्म रंग पर अश्लील नृत्य किया जा रहा है, तो वहीं कुछ संगठन इस फ़िल्म को इस्लाम विरोधी बता रहे हैं। हालांकि क्या आप सब मानते हैं कि एक बिकिनी के रंग से सनातन धर्म के पवित्र भगवा को ठेस पहुंच सकती है? इस दौरान भोजपुरी के वीडियो भी वायरल हो रहे हैं। एक वीडियो में तो खुद भाजपा सांसद रवि किशन अभिनेत्री के साथ अश्लील सीन दे रहे हैं जिसमें अभिनेत्री ने भगवा वस्त्र पहन रखे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि विरोध पहले क्यों नहीं किया गया। हमारी सियासत भी अब ऐसे छोटे छोटे मुद्दों को लेकर अक्रोशित हो रही है। राजनीति अब विकास का माध्यम न रहकर विवाद का माध्यम बनकर रह गई है। भाजपा के कई नेता अब इस बिकिनी के रंग को लेकर मैदान में उतर गए हैं। जबकि असल लड़ाई ज़मीनी मुद्दों की होनी चाहिए, न कि किसी फिल्म के एक सीन की। जिस पर जबरन विवाद खड़ा किया जा रहा है। सनातन धर्म में मां जगदम्बा स्वरूप काली माता को काला कपड़ा पहनाया जाता है, वही काला कपड़ा विरोध का प्रतीक भी होता है, वही काला कपड़ा इस्लाम में बुरखा भी होता है। इसका मतलब यह नहीं कि इस्लाम को मानने वाले काले रंग को विरोधात्मक तरीके से दिखाए जाने का विरोध करेंगे, या फिर हिंदू मां काली के पहनावे को विरोधात्मक तरीके से दिखाए जाने का विरोध करेंगे। हां अगर विरोध अश्लीलता के नाम पर हो तो लगता है कि विरोध जायज़ है। हालांकि अगर हम आम जनता और उसी जनता से बने संगठनों की बात करें जो गाने और फिल्म के अश्लील सीन के विरोध में हैं। तो वह उनकी विरोध की निजी स्वतंत्रता है। अगर बॉलीवुड और अभिनेता – अभिनेत्री अपने पहनावे की स्वतंत्रता के चलते समाज में अश्लीलता परोस सकते हैं, तो विरोध करने वालों से आपको क्या समस्या हैं? क्या उनके पास विरोध करने की आज़ादी नहीं है। हर बार अति आधुनिकता और अश्लीलता के विरोध में जब कोई बोलता है तो उसे कहा जाता है कि अभिनेत्री या अभिनेता क्या पहनेगा क्या बोलेगा यह उसकी स्वतंत्रता है। तो वही स्वतंत्रता समाज के हर वर्ग को है ना ? कि वह अपने बच्चों को क्या दिखाएगा, क्या सिखाएगा। हर बार अभिव्यक्ति की आज़ादी सीमाओं में बंधकर क्यों रह जाती है? ख़ैर विवाद भगवा रंग की बिकिनी पर है तो…मुझे लगता है कि हर सनातनी भगवा को सम्मान और भावनात्मक तरीके से देखता है। ऐसे में बिकिनी का रंग भगवा की पवित्रता को प्रभावित नहीं कर सकता। हां अगर आप इससे फैल रही अश्लीलता के विरोध में हैं तो आपका विरोध जायज़ भी है। हालांकि फिल्म और गाने के विरोध में आने के बाद यह कितना सफ़ल हो पाएगा यह देखना अभी बाकी है। वहीं फ़िल्मों को मनोरंजन के साधन के साथ साथ जनकल्याण और जनहितेशी बनना चाहिए….पठान और बेशर्म रंग का समाज के एक बड़े वर्ग से कोई लेना देना नहीं है। वह हर वक्त दो वक्त की रोटी की आस में रहते हैं। लेख का मूल सार यही है कि राजनीति को ऐसे विषयों से दूर रहकर जनकल्याण के बारे में सोचना चाहिए। क्या हमारे पास गरीबी, बेरोजगारी, विकास जैसे मुद्दे ख़त्म हो गए जो हम इन मुद्दो पर राजनीति को हावी कर रहे हैं।
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