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अविश्वास और अनैतिकता के भंवरजाल में भटकता युवा!

पता नहीं हम कैसे देख रहे हैं, या फिर हम देखना नहीं चाह रहे या फिर एक तथ्य जिसे सच मान लिया जाना चाहिए कि आँखे तो हमारी है पर हम किसी के दिए हुए चश्मे को पहन कर देख रहे हैं जिसमें में बस वही दिखाई दे रहा है जो चश्मा वाला दिखाना चाह रहा है, कान तो हमारे हैं पर हमें सुनना क्या है इसे कोई और ही तय कर रहा है, दिमाग़ हमारा खुद का है, पर कितना प्रयोग करना है, कैसे करना है, कहाँ करना है, किसके लिए करना है या फिर बिना प्रयोग के समर्थन और स्वीकृति दे देना है?

        दिल अपने पास है पर वह अब सिर्फ अपने लिए धड़कता है, दूसरों के दर्द में खामियां निकाल रहा है, किसी के साथ हुए हादसे से पहले गलती, सही जाति धर्म और ज़मात में बंट जा रहा है। यकीन नहीं होता तो देख लीजिये घटनाओ का एक व्यापक क्रम है, किसी ने आसिफा में अपना कौम ढूंढा तो किसी ने निर्भया में, किसी ने संस्कृति के कपड़ों और संस्कार पर सवाल उठाये तो किसी ने प्रिया राय जैसी लड़की को देश के शीर्ष न्याय पीठ के सामने जल जाना ही उपयुक्त माना और फिर संवेदना कम उलाहना ज्यादा उड़ेला, 
      आये दिन वृद्धाश्रम खुल रहे हैं हम ताली बजा-बजा कर स्वागत कर रहे हैं, नेता जी जाकर फीता काट रहे हैं, अगले दिन अख़बार में बड़ा सा हेडलाइन: अब वृद्ध नहीं होंगे मजबूर, अब नहीं है भटकना उनके ही शहर में खुला वी आई पी आशियाना। अब इन संवेदनहीन हुए मिडिया वालों को कौन समझाये कि छप्पर का चू रहा अपना घर भी किसी गैर आशियाने से ज्यादा सुकून वाला होता है। समाज के कमजोर हो रही कड़ी का ही दुष्परिणाम है वृद्धाश्रम का खुलना,और समाज कमजोर क्यों होता है ज़ब हम व्यक्तिवादी होने लगते हैं, और हम व्यक्तिवादी हों ऐसा सरकार भी चाहती है और पूंजीवादी व्यवस्था भी सामान्य उदाहरण से समझिये, जिससे झट से आपको समझ में आ जाये…. अगर संयुक्त परिवार होगा तो टी वी, फ्रिज जैसे अन्य संसाधन एक-एक या बहुत सम्पन्न परिवार है तो दो दो, पर वही परिवार बंट कर चार हो जाये तो? रिक्वायरमेन्ट चार तो आवश्यक हुआ अब ऐसे में कम से कम दो परिवार की संभावना चार पहिया कार तक बढ़ सकती है….
         ना मिडिया, ना जनप्रतिनिधि ना समाज ना ही कानून इस तरह के बातों पर चिंतन कर रहे हैं कि वृद्धाश्रम खुल रहे हैं तो जाहिर है किसी घर का दानव बेटा अपने माँ बाप को घर से निकाला है या फिर इतना जलील करता होगा कि उन्हें घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा होगा,,, आखिर ऐसे लोगों पर समाज, सत्ता और तंत्र का संवैधानिक, वैधानिक और नैतिक दबाव क्यों नहीं बनाया जा रहा, दौलत के नशे में चूर ऐसे मनचले लोगों को क्यों नहीं एकस्पोज किया जा रहा?
 
          समुचा विश्व संचार क्रांति के ताकत को महसूस कर रहा है,,, सोशलमिडिया ने सूचना को बहुत तेजी से देश के कोने कोने तक पहुंचाने में महती भूमिका निभाई है, लोगों तक जल्दी से जल्दी सूचना पहुंचाने के अंधे रेश ने सूचना हम तक पहुँचने से पहले ही हमारे आँखों पर धर्म, जाति, विचारधारा का स्थाई चश्मा चढ़ा दिया, इससे फायदा ये हुआ कि सूचना पर जमीनी स्तर पर खोज या सच उजागर करने की जरूरत ही नहीं रह गयी, वातानुकलित स्टूडियो में बैठकर बेहद बेबाकी से झूठ को परोसा जाना शुरु हुआ और उसे निचले स्तर पर हम दिन भर का डोज समझ लिए. अब ऐसे में हमारी उत्सुकता, उत्साह, ज्ञान, चेतना और अनुसन्धान सब मंद पड़ने लगे और अब विमर्श कुतर्क में बदलने लगा,,,,,
        
           कितने हैरत की बात है वैश्विक होता सुदूर गाँव भी ना ही अब गाँव रहा ना वैश्विक हो पाया, हो पाया तो बस विश्व उत्पाद खपाने का एक जरिया,,, अर्थात हम एक दूसरे के बहुत करीब आकर भी बहुत दूर होते गए क्योंकि हमने हिंदुस्तान के बुनियादी ताकतों को मरने दिया, समाज के नैतिक ताकत का विघटन होने दिया, अब हालात ये हैं कि अपने घर के बच्चों पर ही नियंत्रण नहीं, माँ बाप कहते फिर रहे हैं कि क्या करूँ डर लगता है कि कुछ बोल दिया तो कुछ गलत कदम ना उठा ले,,, नहीं तो एक समय वह भी था कि मुहल्ले का कोई भी बुजुर्ग कलाई पकड़ कर पूछ बैठता था कि फलाने के लड़के हो ना ये क्या कर रहे हो?
        अब ऐसा क्यूँ हुआ इसके मूल में कई बुरी ताकतें हैं एक उसमें अहम् शिक्षा व्यवस्था भी है, हिंदुस्तान के बुनियादी विशेषताओं के अनुसार यहाँ पर शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा नहीं दिया गया, अंग्रेज जो अफसर क्लर्क वाली व्यवस्था छोड़कर गए उसे ही हम अपना लिए जबकि जरूरत थी उसके साथ साथ हर हाथ को काम मिले,,,
 
           पता नहीं कौन तय करने लगा कि आप अपने बच्चों को ये बनाइये वो बनाइये, बच्चा तो नहीं ही चाह रहा था और जो बच्चा ना चाहे उसे माँ बाप कैसे करें पर कोई भारी दबाव था उनपर जिसके सामने अपने वातसल्य एवं बेटे के प्रति प्रेम की तिलांजलि देकर बच्चे को घोड़दौड़ में उतार दिया, अब बच्चा बच्चे से कब आँख पर बंधी काली पट्टी वाला घोड़ा बन गया पता ही नहीं चला,, फिर तो उसे माँ बाप से ज्यादा प्रिय अपनी सफलता शोहरत, आलिशान बंगला, विदेश लगने लगा और इस क्रम में माँ बाप पीछे छुटते गए और वृद्धाश्रम खुलते गए,
 
            राजनीति ने देश को रसातल में पहुंचाया है,,, हिंदुस्तान की खूबसूरती अनेकता में एकता ही हिंदुस्तान की असली ताकत थी….गाँव के गाँव एक दूसरे पर निर्भर रहते थे, अब लोग आत्मनिर्भर होने लगे तो साथ ही असुरक्षित भी पहले निर्भर होते हुए भी सुरक्षित थे क्योंकि उन्हें मालुम था कि रोटी बिना तो मेरा समाज मरने नहीं ही देगा, पर आज तो किसी महंगे रेस्टोरेंट में बैठकर खाते वक्त शीशे से दिखते हाँथ फैलाये छोटे भूखे बच्चे को देखकर स्वतः मुंह से निकल पड़ता है- “आई हेट गरीब्स”
 
                महंगे माल में शपिंग और सड़क पर दो रूपये के लिए दुत्कार देना… अब समझ में नहीं आता गलत कौन है, क्योंकि कई जगहों पर भीख मंगवाना एक बड़ा व्यवसाय भी है पर वास्तविकता तो है कि भीख जो मांग रहे हैं उन्हें तो उन्हीं हालात में ही रह जाना है, इस पर ना सरकार सोच पा रही ना समाज,,,
 
          आपको भले लगता हो कि ये वाला विधायक चोर है इस बार इसे टिकट नहीं मिलेगा, ये सरकार चोर है इस बार ये हार जायेगी, और अगर ऐसा होगा तो यह आपकी जीत होगी, नहीं यह मूल्यांकन उम्मीद से टूटे हुए प्रतिरोध का है आखिर पांच साल तो खत्म, और इन पांच सालों में जन धन समय जो नुकसान हुआ उसका क्या? अगली बार जो आएगा इसी का अगला स्वरुप होगा या क्रम होगा,,, पर इन दरम्यान समाज जो सबसे कीमती चीज खो रहा है वह है पारस्परिक सद्भाव, भाई चारा, प्रेम और इन सबसे कीमती विश्वास का खत्म होते जाना….
 
            सबसे कीमती जो खत्म होता जा रहा है वह है विश्वास, जो समाज से लेकर परिवार तक का वह मजबूत कड़ी है जिसपर जाति धर्म या लालच के हथोड़े चलाकर भी तोड़ा नहीं जा सकता था, विश्वास ख़त्म होने लगा, क्योंकि विश्वास के नाम पर व्यवसाय होने लगा दुष्परिणाम ये हुआ कि जो डीजर्व करते थे उन्हें कभी रक्त के अभाव में मरना पड़ा तो कभी उन्हें भारी कर्ज से तंग आकर फांसी पर चढ़ना पड़ा तो कभी खेत बेंच कर अपनी बेटियों की शादी करनी पड़ी….
 
                 हम एक दूसरे के नजदीक तो बहुत आये पर ना ही विश्वास करना सीखे ना ही त्याग…. इसीलिए समाज खोखला होता गया जिसने अतातातियों के आक्रमण का मार्ग प्रशस्त किया तो कभी ओट बैंक की राजनीति, जिसका खामियाजा हर बार आम आदमी ही भुगतता आया है.
             इसीलिए असली समस्या समाज के नैतिक मूल्यों का क्षरण होना है और सनद रहे एक सशक्त समाज ही समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण कर सकता है
 
                                       सुरेश राय चुन्नी
                                 इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
 
            
 
      
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