विभा गहरी नींद में थी। उस अंधेरे में एक साया उसके बेड की तरफ़ बढ़ा और उस से लिपट गया। विभा हड़बड़ा गई। उस साये ने उसे अपनी बाहों में जकड़े रखा और मुंह बंद कर दिया कि वह चीख ना सके। धीरे से उसके कानों के पास अपने होंठ रख के फुसफुसाया “मैं हूं।”
निहाल! नहीं आज नहीं
विभा की ऊंची -ऊंची सांसें जब सामान्य हुई तो उस साये ने विभा के मुंह से हाथ हटाया। विभा ने कहा, “निहाल! आप भी ना। अच्छा खासा सो रही थी। डरा ही दिया आपने?”
निहाल ने उसे और अपने करीब कर लिया। विभा ने नाकाम कोशिश की खुद को छुड़ाने की। फिर कहा, निहाल कोई फ़ायदा नहीं। बताया ना आज तीसरा दिन है। निहाल ने बड़ी मासूमियत से कहा “मैं कहां कुछ कर रहा हूं। बस तुम्हें महसूस करना चाहता हूं। विभा ने विश्वास में खुद को सौंप दिया पर उसके बाद जो हुआ विभा ने कभी नहीं सोचा था। उसने निहाल को बहुत रोका और दर्द से छटपटा उठी।
क्यों छूने का अधिकार है उसे?
चीख निकली ही थी कि निहाल ने उसका मुंह कसके दबोच लिया। विभा की आंखें ही नही आज आत्मा भी बहुत रोई, वो निढाल पड़ी थी। निहाल का यूं छूना आज उसे बहुत बुरा लगा। निहाल ने पूछा “क्या हुआ? इसमें रोने जैसा क्या है?”
विभा रोती जा रही थी, बस एक ही सवाल कर रही थी। निहाल की हवस पूरी हो चुकी थी “तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो?” (“How could you do this to me?”)
और बोल किसी काम की तो हो नहीं। बस रोना-धोना मचा देती हो।
उसका मुझे एहसान मानना चाहिए
शादी के इन चंद सालों में विभा को तो कई ज़ख़्म मिले थे, पर आज जो ज़बरदस्ती निहाल ने की उसका ज़ख़्म पहली बार मिला। वह भी ऐसा जो कभी ना भर पायेगा। तकलीफ़ ज़्यादा यह थी कि समझ नहीं आ रहा था सही हुआ या ग़लत? रोते-रोते आंख लग गयी। सुबह उठी और वाशरूम गई, तो दर्द के मारे चीख निकल गई।
उस रात का वहशीपन आंखों का सैलाब बन गया। चीख-चीख के रोई। नहाया पर फिर भी सब गंदा ही महसूस हुआ। बाहर आई। विभा, निहाल को देखना भी नहीं चाहती थी। विभा को लगा उसे गुस्सा देख निहाल सॉरी बोलेगा लेकिन निहाल बिल्कुल नार्मल बैठा था जैसे सॉरी जैसा कुछ नहीं हुआ हो।
निहाल ने विभा का लटका मुंह देखकर कहा, तुम्हें कोई और काम नहीं है, एहसान मानो जो सालों से तुमसे काम चला रहा हूं।
बिल्कुल बेकार हो तुम! विभा को सारे नश्तर चुभ गए। इस बेशर्मी पे विभा के दिल ने कहा, तोड़ दो यह बेड़ियां! आख़िर कब तक सहूं और आज तो सारी हदें पार थीं।