अजी मैं बोलता हूं न। बोलने की बात है, तो बोलता हूं, बोलता रहूंगा, निरंतर ही। मेरी मर्जी है कि मेरे मन में आएगा तो बोलूंगा ही,…..परन्तु सुनकर आप समझने की कोशिश नहीं करें, तो आपकी मर्जी।
वैसे भी जनाब!….यहां पर कौन है जो सुनता है?….अगर सुन भी ले, तो अजी समझना कौन चाहता है?….बात आ गई समझ लेने की, तो किसी को जरूरत भी क्या है?
सब के अपने-अपने किस्से है, जिसे वो किसी न किसी को सुनाना तो चाहता है, परन्तु सुनना चाहता कौन है और जो सुन भी ले तो, समझने की जहमत कौन ले? अब जहमत लेना भी तो आसान नहीं, क्योंकि इसमें झमेले बहुत है। अब झमेले की बात है, तो इसमें फंसे कौन?
लेकिन चाहे जो भी हो जाए, मैं अपनी बात तो जरूर बोलूंगा। चाहे बोलने की जरूरत हो या नहीं।
आखिर किसी के बोलने पर अब तक किसी ने कोई टैक्स नहीं लगाया है। इसलिये बोलना सब से आसान है और सुविधा जनक भी। अब ऐसा कोई कानून भी तो नहीं बना कि मेरी बातों पर प्रतिबंध लगाया जा सके।
आज-कल तो जैसे बोलने का फैशन हो गया है। कोई भी, कहीं भी भीड़ इकट्ठी कर ले और सुनाने लगे। अपनी योजनाओं को अपने शब्दों में उतारने लगे। भले ही…..उसकी योजना उसके लिए ही फलदाई हो। बाकी की तो भीड़ है, जिसे सिर्फ सुनने के लिए जुटाया गया है। जैसे कि उसकी नियति ही निर्धारित कर दी गई हो कि….भई तुम्हें तो सिर्फ सुनना है।
लेकिन सुनने बाली भीड़, जिसे कि शिद्दतों से सिर्फ सुनने के लिए जुटाया जाता है, इसी ताक में रहती है कि कब उसे मौका मिले और वो भी किसी और को सुनाने को उद्धत हो। वो तो बस अवसर की ताक में ही रहता है कि कब उसे अवसर भुनाने का मौका मिले।
भला फिर मैं क्यों मौन रहूं। मैं भी तो अपनी बात सुनाना चाहता हूं, अपनी बात बताना चाहता हूं। अपने मन की भावनाओं को अवसर में भुनाना चाहता हूं। लेकिन इतनी चालाकी नहीं है मुझमें कि भीड़ जुटा सकूं। इसलिये आप है और मैं हूं और ये बातें है, जो मैं कहना चाहता हूं।
अब इसका मतलब यह नहीं कि मैं एक कुशल वक्ता हूं। भला इतना तो गुण विकसित नहीं हुआ, हां ये अलग बात है कि मैं जो भी कहूंगा, सुनने के लिए ही कहूंगा।