बेटे को बियाहा है, बड़े ठाठ बाठ से
परदे में रहना, कहती हो बात बात पे
इतनी परवाह, मान-मर्यादा की तो
क्या सुबह लोटा उठाना जरूरी है,
सासू री,,, सुन तो?
मेरे घुंघट से पहले गुस्लखाना जरूरी है।
लाखो उड़ाए जो, झूठी धौंस जमाने पे
क्या वो लगा न सके,चार इंटे लगवाने पे
चेहरा ना दिखे चुनरी हजारों की ओढ़ा दी
क्या बाकी सब ना छिपाना ज़रूरी है,
सासू री,,,सुन तो
मेरे घुंघट से पहले गुस्लखाना ज़रूरी है।
सुबह आगे आगे चलती हो,शेरनी बन के
चीख चीख दुहाई देती, इज्जतों की तन तन के
अगर औरत की इज्ज़त से है कुछ कीमती
ज़बाब चाहिए मुझे अब बताना ज़रूरी है,
सासू री,,,सुन तो
मेरे घुंघट से पहले गुस्लखाना ज़रूरी है।
घर की बहू,दहलीज पर नहीं जाती
क्यों बार बार वही झूठी परंपरा का राग गाती
रात दिन अंधेरों कि आड़ में होते लाखों दुष्कर्म
झाड़ियों में उड़ते घाघरों को बचाना जरूरी है,
सासू री,,,सुन तो
मेरे घुंघट से पहले गुस्लखाना ज़रूरी है।
लुगाई मर्द की जूत्ती, खुद ही कह रही हो
साठ साल से कैसे,गुलामी सह रही हो
बख़त बदल चुका है तुम भी बदलो
तोड़ो जंजीरें गुलामी की सहनी ना मजबूरी है,
सासू री,,,सुन तो
मेरे घुंघट से पहले गुस्लखाना जरूरी है।