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मैं रास्ते का पत्थर हूं

कविता

मैं रास्ते का पत्थर हूं
मैं यूंही बदनाम हूं
जूतों से रौंदा जाता हूं
मेरी यही पहचान है।


रेत की तरह फितरत नहीं मेरी
बारिश में, धूप में
हर वक्त साथ निभाता हूं
मैं रास्ते का पत्थर हूं
मैं यूंही बदनाम हूं।

पड़ा रहता हूं बरसो बरस तक
उस राहगीर की आस में
जिसने मंजिल की खोज में
दर्द सहने की ठानी हो
जिन्हें दुनिया से अलग
एक नई दुनिया बनानी हो
मैं रास्ते का पत्थर हूं
मैं यूंही बदनाम हूं।

कुछ लोग तो चलते हैं राह में
बस इसलिए कि उन्हें जाना कहीं नहीं
भेड़ों के झुंड बने चल दिए हैं
उन्हें पाना कुछ नहीं!


उन सबके पैरों से रोज़ कुचला जाता हूँ
सब मालुम है मुझे लेकिन बिना ‘उफ’ किए
सबके बोझ उठाता हूं मैं रास्ते का पत्थर हूं
मैं यूंही बदनाम हूं।

कुछ लोग गुज़रे थे कभी
जिन्होंने मुझे राह में
फूलों की तरह सजाया
मेरे आंसूओं को समझा
मुझे गले से लगाया मैं ना रहूं तो
इन रास्तों के वजूद मिट जाएंगे।


मंजिल को जाने वाले पीछे छूट जाएंगे
मैं रास्ते का पत्थर हूं
मैं तो यूंही बदनाम हूं।

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