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“क्यों समाज के ठेकेदार लड़की की पसंद के खिलाफ शादी करना अपना हक समझते हैं?”

पसंद के विरुद्ध शादी

क्या परिवार, समाज की इच्छा के विरुद्ध लड़कियां अपने पसंद का काम नहीं कर सकती? अपने मनपसंद इच्छा की शादी नहीं कर सकतीं? उन लड़कियों की इच्छा कब तक इनके हाथों की उंगलियों के डोर में थमी रहेगी? और उस डोर को वह कब तक खींचते रहेंगे? विरोधी सोच, इच्छाओं, विचारों को उनके आने वाले रास्तों के बीचो-बीच उस डोर का जाल बना कब तक बिछाते रहेंगे? उसे काट निकालना कितना मुश्किल है लड़कियों के लिए ?

भला इस सवाल की वजह क्या?

मैं बात कर रही हूं उस घटना के बारे में जो अभी-अभी घटित हुई है। यह पूछना यह सवाल करने का मतलब यही था कि जो आज घटना घटित हुई है, अगर यहां हम सवाल ना  करें तो ऐसी घटनाए दिन पर दिन बढ़ती जाएंगी, अगर हमने ऐसी घटनाओं को यहां नहीं रोका, सवाल नहीं खड़ा किया, आगे बढ़ती हुई इस तरह की ऐसी घटनाएं समाज में देखने को मिल सकती हैं।

कल की ही खबर है कि उत्तर प्रदेश लखनऊ शहर में इच्छा के खिलाफ शादी तय करने पर प्रियंका नाम की युवती ने सुसाइड कर लिया है और जाने से पहले प्रियंका ने सुसाइड नोट में यह लिखा “बाय बाय फैमिली मेंबर्स अब कर लो शादी।”

उसकी उम्र 28 साल बताई जा रही है। पुलिस की सूचना अनुसार प्रियंका की ( 25 ) पच्चीस नवंबर को शादी होनी थी, जो प्राइवेट बैंक में काम करती थी। प्रियंका ने उसी कमरे में फांसी लगाई है, जिस किराए के फ्लैट में अकेले रह रही थी. उसी किराए के मकान में उसका शव उसके विवाह से 2 हफ्ते पहले सोमवार को कृष्णानगर इलाके से कमरे में लटका मिला और उसके माता पिता की मौत पहले ही हो चुकी है।

बताया जाता है कि उसकी इच्छा के विरुद्ध शादी तय होने से प्रियंका शादी के कुछ दिनों पहले से अवसाद में आ गई थी. उसके भाई का उसके इच्छा के विरूद्ध शादी तय करने से उसे बुरा लगा और इस कारण उसने फांसी लगा ली।

इंडिपेंडेंट प्रियंका और इस्मत चुगताई

इस तरह प्रियंका का सुसाइड करना और यह कह कर जाना “अलविदा परिवार के सदस्य अब कर लो शादी” यह पढ़ना और यह बातें उन लड़कियों को पता चलना जो अपने भविष्य के लिए लड़ रही हैं, जो अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहती हैं। इस तरह की घटना का होना हादसे पर हादसे का जन्म होना है।

ठीक यही मुझे सुप्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगताई जी की कही बात याद आती है, जब वो लड़कियों से कहती हैं. “चूल्हे में डालो शादी इंडिपेंडेंट बनो” तो जब वह कहती हैं इंडिपेंडेंट तो हमें यह देखना होगा कि प्रियंका भी इंडिपेंडेंस थी।

अपने पांव पर खड़ी थी। युवा थी, बालिग थी, अपने हक अधिकार जानती थी और फिर भी उसके साथ ऐसा होना? इस घटना का घटित होना, यह सवाल सोचने पर हमें मजबूर करता है कि क्या परिवार, समाज, के इच्छा के विरुद्ध हम लड़कियां अपने पसंद का काम नहीं कर सकती?  अपने मनपसंद इच्छा की शादी नहीं कर सकतीं ? हमारी इच्छा कब तक इनके हाथों की बागडोर में बंधी रहेगी? इनके हाथों की कठपुतली बनी रहेगी? 

इसीलिए प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती जी कहती हैं यह इसकी पत्नी है, बहू है, मां है, नानी है, दादी है, यानि उसे ऐसी देवी का दर्जा दे दिया जाता है, जो अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकती।

यहां इस बात को अगर ऐसे देखे की लड़की जॉब कर रही थी. इंडिपेंडेंट थी. फिर भी उसे रोका गया उसकी इच्छाओं के कारण और इसी समाज में हम देख रहें हैं की शादी का विरोध कर रही लड़की की आप बीती जिसकी कोई नहीं सुनता यहां तक कि वह अवसाद में चली गई है फिर भी. इस कंडीशन में सेहत का बिगड़ना अचानक लड़की का अवसाद में चले जाना, बड़ी बात नहीं होती है, चिंताजनक बात नहीं होती परिवार के लिये!

यह एक तरह से हम सभी के लिए चिंता का विषय तो है ही और सोचनीय भी! इस तरह की घटनाओं का समाज में बढ़ना बहुत सारी ज़रूरी सवालों को जन्म देता है जो एक बहस की दरकार रखता है, जिस पर बहस होनी चाहिए सवाल खड़े होने चाहिए. पूछना चाहिए समाज के ठेकेदारों से कि उनका क्या रोल है?  इस समाज के प्रति ? उनके इस सोच इस रवैए के प्रति जो कि एक निम्न स्तर का है।  

मैं पूछती हूं उन लड़कियों की इच्छा के डोर को वह कब तक जकड़े रहेंगे ? हाथों की उंगलियों में उस डोर को कब तक फंसाए रहेंगे? और वह दौर कब आएगा जब वह उस डोर को ढीली करेंगे छोड़ेंगे अपने हाथों से ? 

क्योंकि यह वही डोर है जिसे तोड़ देने पर लड़कियों को आज़ादी हासिल होगी, आज़ादी मिल जाएगी। उन इच्छाओं के विरूद्ध जिसके कारण उन्हें खुद का गला घोंटना पड़ता है, जिन इच्छाओं की पूर्ति न होने के कारण उन्हें फांसी पर लटकना होता है।

क्यों लड़कियों की पसंद को तरजीह नहीं?

क्या एक लड़की अपने मनपसंद लड़के से शादी नहीं कर सकती? अपने पसंद के वर नहीं चुन सकती ? अपनी  पसंद की शादी कर विवाहित जीवन  गुजर-बसर नहीं कर सकती ? यह समाज कब  यह  समझेगा कि जिसमें जिसकी खुशी हो, जहां जिसको जिस के प्रति चाहत हो, वहीं से ज़िंदगी शुरु होती है, वहीं ज़िंदगी जीने का तरीका, अपनी पसंद, अपनी इच्छा उसके जीवन में नयापन लाता है और जीवन जीने की तमन्ना पैदा करता है।

जहां एक तरफ हम लड़कियों की इच्छा उन्हें सुनने समझने की बात करते हैं, वही इस तरह की घटना का घटित होना हमें विचलित तो करता ही है और यह सोचने पर मजबूर भी कि हम लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चाहे घर हो, परिवार हो, समाज हो, चाहे हमारी इच्छाओं की बात ही क्यों ना हो,  हमें दरकिनार कर, हमारी इच्छाओं का ख्याल ना कर,  हमें तरजीह नहीं दी जाती है. हमारा ख्याल नहीं रखा जाता है. हमें समझा नहीं जाता है.  क्यों?  ऐसा क्यों? और अगर यह क्यों है? तो  यह क्यों कब तक है?  कब तक रहेगा?  कब खत्म होगा?

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