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सपने देखने का अधिकार: शिक्षा, अवसर और जवाबदेही किसकी?

यह लेख ईश्वर सिंह और सबा कोहली दवे द्वारा साथ लिखा गया था, जिनके पृष्ठभूमि और ज़िंदगी बहुत अलग हैं लेकिन बहुत चर्चा के बाद शिक्षा और अवसर की समता पर सोच मिलती-झुलती है। कैसी शिक्षा पाए हो, उससे किसी व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन या तबाह आ सकती है। ईश्वर राजस्थान के एक पहाड़ी क्षेत्र के एक गाँव से हैं – उनका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न नहीं है, ओबीसी रावत जाति से है, उन्होंने स्कूल में 10 वीं कक्षा पास की, और उसके ऊपर परिवार आर्थिक रूप से निर्भर है। सबा एक सवर्ण हिंदू, दिल्ली से उच्च वर्गीय परिवार से है, अमेरिका में कॉलेज गई, और शायद हाथों से मेहनत का काम MKSS आने से पहले कभी किया नही होगा। दोनों मज़दूर किसान शक्ति संगठन और लोकतंत्रशाला के साथ काम करते हैं।

हामर देश के ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं के सपने

जो किसी गैंग में भटकते है ,

चोरी चकारी में लगते है ,

होटल की उस चार दिवारी में घुस जाते है ,

गुजरात कुआ में उतर जाते है ,

या समाज के बंधन में बंध जाते है ,

कम उम्र में बाल विवाह कर जाते है ,

घूंघट के पीछे छिप जाते है ,

या हाइवे की सड़कों पर रोज रेस लगाते है ,

अंत पंत में देश की सीमा पर गोली खाते है ,

इस भारत देश के युवाओं के सपने सपने रह जाते है ।

– ईश्वर

स्कूल और मैं

कौन आगे बढ़ता है और कौन नहीं, यह अन्याय पर चर्चा करते हुए, ईश्वर ने औपचारिक शिक्षा के साथ अपने अनुभवो के बारे में बात की, “स्कूल में मैंने बहुत कुछ नहीं सीखा। मैं केवल छठी कक्षा में ही ABCD वर्णमाला सीखी थी। फिर, अचानक, 10 वीं कक्षा में, हमारे शिक्षकों (गुरुओं) ने हमें बताया कि बोर्ड परीक्षाएं आ रही हैं और हमें जो कुछ भी कर सकते हैं उसे याद रखना है और किसी भी तरह से पास करना है। ‘कोई भी उत्तर खाली न छोड़ें। कुछ लिखो और तुम्हें कुछ अंक मिलेंगे।’ मुझे लगता है कि यही रणनीति ही मेरे पास होने का एकमात्र कारण रहा। आज, मुझे स्कूल में पढ़ाया गया कुछ भी याद नहीं है। और स्कूल के बाद, फिर क्या? न कोई मार्गदर्शन मिलता है – न शिक्षकों से और न ही किसी के परिवार से। इसलिए युवा मजबूरी या गरीबी या जाति या धर्म में दब जाते हैं। इस घेरे से निकलना मुश्किल है – डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है, पटवारी का बेटा पटवारी बनता है, मंत्री का बेटा मंत्री बनता है और मजदूर का बेटा मजदूर बनता है। और सभी लड़कियों को कम उम्र में शादी कर देते है। स्वतंत्र भारत की दृष्टि में अवसर की समानता मौजूद नहीं है।”

यह पूरे भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की असलियत

एक देश में समानता का क्या मतलब है जब एक बच्चे के पास अपने सपने को पूरा करने के लिए ज़मीन आसमान के अवसर होते है- आराम के जीवन से बहुत दूर जीते है – और दूसर बच्चा बड़ा होता है, यह नहीं जानते हुए कि अवसर कैसा दिखता है। दुर्भाग्य से, धन और शिक्षा का विभाजन वर्गों के बीच बढ़ रहा है, और अवसर का पैमाना उन लोगों की ओर झुक जाता है जिन्हें, आगे मौके पाने के लिए सपने देखने की भी ज़रूरत नहीं है। उनके हाथों में मौका निश्चित है। स्वतंत्र भारत के लिए संघर्ष का मतलब यह था कि जाति, लिंग, धर्म और वर्ग की परवाह किए बिना सभी लोगों को समान अधिकार मिलेंगे।

भारत की आजादी के लिए लड़ने वाला कोई एक समुदाय नहीं था – महिलाओं, अलग अलग जातियों और वर्गों, आदिवासियों अन्य की भागीदारी थी – जिनके सामूहिक सपनों ने हमें संविधान दिया। सभी को इज़्ज़त के साथ जीने के अधिकार दी गई थी – एक गरिमापूर्ण ज़िंदगी । और सभी के लिए समान शिक्षा का सपना देखा, जिसके माध्यम से सामाजिक और आर्थिक खायी को कम करने का प्रयास होगा।

पर यह खायी बढ़ती जा रही है?

एक प्रमुख मानसिकता है कि जो लोग ऊँचे कॉर्प्रॉट रोजगार या सरकारी नौकरियों को पाने में पिछड़े रहते हैं, उनमें मेहनत और परिश्रम की कमी होगी। “अच्छे से पढ़ाई नही किया होगा” या “इतनी कोशिश नही की होगी” ऐसे नौकरियाँ पाने के लिए । यदि हम संरचनात्मक तौर पे देखें जो लोग हाशिए पर हैं, तो यह मिथक टूट जाता है, क्योंकि लगातार सरकारों ने अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर वंचित इलाक़ों में कम काम किया। ग्रामीण राजस्थान में स्कूली शिक्षा, समझ और अवसर के फल आज भी कई लोगों के लिए एक सपना ही है। आजादी के 75 साल बाद हम इस स्थिति में क्यों हैं? लोकतंत्र के वादे आसानी से मर जाते हैं जब एक सरकारी प्रणाली हर अंतिम व्यक्ति के प्रति जवाबदेह नहीं होती है, और अधिकार लागू नहीं करती है।

कई ग्रामीण समुदायों के युवा और बच्चे कई कारणों से शिक्षा की हाशिए पर हैं; विकास के परिभाषा में वो कभी आए ही नही शायद। अधिकांश गरीब, महिलाएं, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और विकलांग लोगों के लिए स्कूलों और कॉलेजों तक पहुंचने में अन्य तरह के बाधाएं हैं। कई स्कूलों में कुछ जातियों के साथ अभी भी शिक्षकों और प्रशासन द्वारा अलग, बुरी व्यवहार किया जाता है। अक्सर, कई लोगों के लिए स्कूल और उच्च शिक्षा बहुत दूर होती है। कई सामाजिक-सांस्कृतिक और सुरक्षा समबंधित कारणों से परिवार अपनी लड़कियों को बहुत दूर भेजने में हिचकिचाते हैं।

हम बच्चों को कैसे स्कूल भेजें?

2022 में राजस्थान में जबावदेही धरना में, सभी प्रकार और पहचान के लोग – महिलाएं, किसान, आदिवासी, नरेगा कार्यकर्ता, अन्य मजदूर, युवा, ग्रामीण-शहरी – एक साथ जवाबदेही कानून की मांग करने के लिए एकत्र हुए। बारां जिले के खेरुआ आदिवासी समुदाय के कुछ लोगों ने इस बात की गवाही दी कि कैसे, क्योंकि सरकार उनकी जमीन पर एक बांध बना रही है और उन्हें 25 किलोमीटर आगे जंगल में विस्थापित कर रही है, उनके पास कोई रोजगार नहीं रहेगा, और जमींदारी से शोषण बढ़ेंगी। प्रभावित गाँव के एक व्यक्ति ने अपनी आँखों में आँसू के साथ कहा, “हमारे बच्चे अपने स्कूल से और भी दूर होंगे। उन्हें भेजने में सक्षम नहीं है हम। ” एक अन्य ने जोर देकर कहा कि, “80 वर्षों में, इस समुदाय का एक भी व्यक्ति इस क्षेत्र में हो जिसने उच्च शिक्षा प्राप्त की हो। सरकारी नौकरी का मौका कोसों दूर है…”

हमारी औपचारिक शिक्षा का दाँचा को जवाबदेह बनाने की सख़्त ज़रूरत नकारा नहीं जा सकता। यहां तक कि जो लोग ग्रामीण भारत के अधिकांश हिस्सों में स्कूल जाते हैं, वे भी आत्मविश्वास से आपको असंख्य कमियां बता सकते हैं। हमारे साथ काम करने वाले कुछ युवाओं ने बताया कि “बहुत कम शिक्षक थे। पद तो खाली ही रहते हैं।” “अगर हम सीखना चाहते हैं, तो हमें खुद अध्ययन करना होगा। शिक्षक मुश्किल से पढ़ाते थे। ” “स्कूल बहुत दूर था और हम लड़कियों के लिए जाना मुश्किल था।

“कई माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने की आशा के बारे में बात करते हैं, ताकि उन्हें अपने जीवन को बेहतर बनाने के अवसर मिलें। “हमारे पास अधिकार या अवसर नहीं था। लेकिन आने वाली पीढ़ियों को तो होना चाहिए।”

अमीर और गरीब की खाई

कोविड -19 महामारी लॉकडाउन के दौरान भयावह आंकड़े निकल आए – जो शिक्षा तक पहुचने के बाधाओं को दर्शाते हैं, और यह सुनिश्चित करती है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से हाशिए के समुदायों के बच्चे और्र युवा पीछे रह गए। कोविड लॉकडाउन के शैक्षिक प्रभावों के बारे में एक रिपोर्ट में पाया गया कि, “स्कूल के बच्चों का अनुपात जो नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ रहे थे, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में क्रमशः केवल 24% और 8% थे। (पृष्ठ 5) “कमजोर परिवारों में लगभग 1,400 स्कूली बच्चों का एक सर्वे से निकला कि ग्रामीण क्षेत्रों में, केवल 8% नमूना बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ रहे हैं, 37% बिल्कुल भी नहीं पढ़ रहे हैं, और लगभग आधे बच्चे कुछ कुछ शब्द ही पढ़ पाते हैं।”

शायद अवसर और शिक्षा के संबंध में हमारे संविधान का सबसे प्रमुख उलंघन हैं निजीकरण के माध्यम से जो अमीर और गरीब के बीच बनाया गया आर्थिक और सामाजिक विभाजन। ग्रामीण भारत में भी निजी स्कूलों की वृद्धि के साथ, सरकार ने सरकारी स्कूलों को मजबूत करने की अपनी जिम्मेदारी को समाप्त कर दी है।

यह जानबूझकर किया गया है, अमीर/मध्यम वर्ग और गरीबों के बीच की खाई को गहरा करने के लिए। जब सरकारी अधिकारी खुद सरकारी स्कूलों पर भरोसा नहीं करते हैं और अपने बच्चों को निजी संस्थानों में भेजते हैं, तो भारत का प्रगति और विकास कैसे होगा? जो माता-पिता हैं जिन्होंने सोचा था कि मुफ्त शिक्षा का अधिकार उनके बच्चों को सपने देखने का अधिकार देगा, वे तो उम्मीद ख़त्म होते जा रहा हैं।

हमारे बीच की खायी के जड़ समझने के लिए, एक दूस रे के पृष्ठभूमि को जानने के बाद हमने (ईश्वर और सबा) सपनों, अवसर की समता और शिक्षा के बारे में बात करना शुरू किया। सच यह है कि MKSS समानता और सम्मान के ऐसे संबंधों को बनाने के लिए जगह देता है, और यहाँ आकर ही दोनो की समझ बढ़ी है। यह समझ ने हमें यह लिखने के लिए प्रेरित किया। एक बहुआयामी समझ बना कि शिक्षा प्रणाली क्यों कई समुदायों के लिए काम नही करती, कैसे एक असफल सरकारी स्कूल को ठीक करने के लिए लगभग कोई जवाबदेही नहीं है, और कैसे बड़े अवसरों और मौके के सपने देखने का अधिकार केवल एक छोटे से वर्ग के लोगों के लिए है।

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