हरियाणा में पंचायती चुनाव की घोषणा हो चुकी है। यहां पहली बार चुनाव तीन चरणों में हो रहे हैं। पहले और दूसरे चरण के चुनाव हो चुके है और अंतिम चरण के चुनाव 22 नवंबर व 25 नवंबर को होने जा रहे हैं। 30 नवम्बर को पंचायत चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो जायेगी। तीसरे चरण के चुनावी उम्मीदवारों की अपनी तैयारियां जोरों पर है। लगभग 2 साल की देरी से हो रहे इन चुनावों ने हरियाणा के ग्रामीण इलाके में राजनीतिक सरगर्मियां पैदा कर दी हैं। ग्रामीण इलाकों के घरों, गलियों व सार्वजनिक स्थानों में चुनावी उम्मीदवारों की प्रचार सामग्रियों की बाढ़ आ गई है। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी है।
दलित और वंचितों का शोषण
ये चुनावी उम्मीदवार जीतने के मकसद से जनता को रिझाने के लिए अनेकों लोक-लुभावने वादे कर रहे हैं लेकिन क्या इस बार ये जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करेंगें ? यह हर बार हरियाणा की ही नहीं बल्कि पूरे देश की ग्रामीण मेहनतकश जनता का सवाल होता है। पिछले 70 से भी ज़्यादा सालों से इस सवाल का जवाब नहीं मिल पा रहा है। यह गंभीरता से सोचने का विषय है आखिर क्यूँ ये पंचायत लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं करते?
आखिर क्यों आज तक लोगों को पीने लायक साफ पानी मुहैया नहीं हो सका? आखिर क्यों आज तक लोगों को गरीबी रेखा से नीचे जिन्दगी गुज़र-बसर करने को मजबूर होना पड़ रहा है। आखिर क्यों आज तक मजदूरों को जायज दैनिक मजदूरी नहीं मिल पाती। आखिर क्यों किसानों को कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ता है। आखिर क्यों आज तक भी दलितों को सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का दंश झेलना पड़ता है। आखिर क्यों आज तक महिलाओं को घर की चारदीवारी तक सिमित रखा जाता है? आखिर क्यों इन विषयों पर पंचायती चुनावों के समय चर्चा तक नहीं होती। इन सवालों का जवाब हमको पंचायती राज व्यवस्था के असली चरित्र को समझे बिना नहीं हासिल हो सकता।
पंचायती राज व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
पंचायती राज व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमारे समाज के इतिहास के गर्भ काल में जाना होगा। सन् 1947 को अंग्रेजों ने भारत की सत्ता एक समझौते के तहत भारतीय दलाल शासक वर्ग को सौंप दी। कहने को तो भारत आजाद हो गया पर अंग्रेजों द्वारा खड़ा किया गया राजनीतिक व प्रशासनिक ताना-बाना यूँ का यूँ खड़ा रहा। जो दरोगा एक दिन पहले अंग्रेज अफसर के कहने पर भारतीयों पर गोली चलाने से भी नहीं हिचकता था वह दरोगा भी रहा, अंग्रेजों के लिए भारत के विरुद्ध गद्दारी करने वाला अफसर भी यूँ का यूँ रहा। जो आदमी आजादी के आंदोलन में सशस्त्र विद्रोह करने के आरोप में जेल में बंद था, वह जेल में ही रहा।
बहुसंख्यक जनता सामंती शोषण और साम्राज्यवादी लूट का शिकार रही। 26 नवंबर, 1949 को अंग्रेजों द्वारा पारित भारत सरकार कानून(1935) के प्रावधानों को आधार मानकर संविधान सभा ने अनेक देशों के पूंजीवादी संविधान के प्रावधानों को संकलित करते हुए एक मिश्रण तैयार कर उसे भारत के संविधान का रूप दे दिया।
भारतीय दलाल शासक वर्ग ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमता को खत्म किये बिना ही भारत के संविधान को लागू कर दिया। इसके अलावा 1947 के बाद 2 महत्वपूर्ण चीजें हुई पहले सिर्फ अंग्रेज भारत को लुटते थे और अब अनेकों साम्राज्यवादी देश अमेरिका, जापान, जर्मनी, रूस और चीन भी भारत के संसाधनों व सस्ती मजदूरी को लुटते हैं और दूसरा, सबको वोट का अधिकार दे दिया। पं नेहरू सरकार ने जनता की बुनियादी आवश्यकता और आकांक्षाओं को पूरा करना अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझी।
ज़मीन और जमींदारों के नारे
उल्टा, सन 1952 में सामाजिक व आर्थिक ढांचे में बदलाव के नाम पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों के इशारे पर सामुदायिक विकास योजना को लागू कर साम्राज्यवादी पूंजी निवेश के लिए रास्ता खोल दिया। गौरतलब है कि सामुदायिक विकास योजना ऐसे समय पर लागू की गई जब देश में तेलंगाना आंदोलन की आग धधक रही थी जिसमें कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में “ज़मीन जोतने वाले को” नारे के अह्वान के साथ बड़े जमींदारों के खिलाफ संघर्ष हुआ और लगभग 4000 गाँवों में क्रान्तिकारी जन कमेटियों का निर्माण किया गया।
तेलंगाना आंदोलन के दौरान इतने विस्तृत रूप में पहली बार जमीन और संसाधनों के असमान वितरण के सवाल को उठाया जिससे भारतीय शासक वर्ग को गहरा आघात पहुंचा। सामुदायिक विकास योजना को इसीलिए भी लागू किया गया ताकि क्रान्तिकारी भूमि सुधार कार्यक्रम से जनता का ध्यान भटकाया जा सके पर भारतीय शासक वर्ग की यह योजना सफल नहीं हो पाई।
इसके अलावा, तेलंगाना आंदोलन से उभरकर सामने आए क्रान्तिकारी मॉडल क्रांतिकारी जन कमेटी (RPC) के विकल्प को मिट्टी में मिला देने के छुपे हुए उद्देश्य के तौर पर सन 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया जिसने अपनी रिपोर्ट में लोकतांत्रिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण करने की सिफारिश की। जनवरी 1958 में सरकार ने इस कमेटी की सिफारिशों को मंजूरी दे दी।
2 अक्टुबर,1959 को राजस्थान के जालौर जिले में तात्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने देश की पहली तीन स्तरीय पंचायत का उद्दघाटन किया और इसके चन्द दिनों बाद 11 अक्टुबर, 1959 को आंध्र प्रदेश में भी इसको लागू किया गया। इसके बाद पंचायती राज व्यवस्था में सुधार के लिए अलग-अलग समय पर समितियां बनी जिनमें अशोक मेहता समिति (1977-1978), पी० वि० के० राव समिति (1985), डा० एल्० एम० सिंधवी समिति (1986) और यूग्न समिति (1988) शामिल हैं। इसी दौरान गाडगिल समिति ने तीन स्तर की पंचायती व्यवस्था की वकालत करते हुए इसको संवैधानिक दर्जा दिए जाने की सिफारिश की। बाद में नरसिम्हा राव के प्रधानमन्त्री कार्यकाल में 73वें संविधान संशोधन के तहत इसको स्वीकृति दी और भारत के संविधान में पंचायत नामक एक नया खण्ड 9 जोड़ा, अनुच्छेद 243 से 243(O) शामिल किये गए और एक नई 11वीं अनुसूची भी जोड़ी गई।
पंचायती राज व्यवस्था क्या और किसके लिए ?
पंचायती राज व्यवस्था एक तीन स्तरीय शासन प्रणाली है जो वर्तमान में नागालैंड, मेघालय और मिजोरम को छोड़कर सभी राज्यों में लागू है। इस तीन स्तरीय शासन प्रणाली में सबसे ऊपर जिला परिषद होती है जो राज्य सरकार के साथ तालमेल रखती है, केंद्र व राज्य सरकार की नीतियों को पंचायत समिति के पास भेजती है। दूसरे स्तर पर ब्लॉक समिति होती है जो तीसरे स्तर की ग्राम पंचायत के पास धन इत्यादि भेजती है। इससे स्पष्ट है कि ग्राम पंचायतें गाँव के विकास के लिए स्वतंत्र रूप से फैसले ले पाने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि इन्हें पैसे के लिए सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। मान लो कि सरकार द्वारा गांव में सड़क आदि के लिए राशि भेजी गई है तो पंचायत को जरूरत न होने पर भी उससे सड़क बनवानी ही होगी। यदि सड़क नहीं बनवाई, तो पैसा वापस करना होगा।
बीडीओ पंचायत की किसी भी योजना को खारिज कर सकता है। इसका अर्थ है कि पंचायत की नाममात्र की स्वतंत्रता भी छीन ली जाती है। एसडीओ या राज्य सरकार कभी भी पंचायत को भंग कर सकती है। गांव के विकास की योजनाएं सैकड़ों अधिकारियों के घूस लेने के बाद ही पंचायत तक पहुंचती हैं। पंचायत पर खर्च होने वाले 1 रुपये में से 15 पैसे ही लोगों तक पहुंचते हैं, 85 पैसे अफसर बीच में ही खा जाते हैं।
ग्रामसभा और ग्राम पंचायत
हमें बताया और पढ़ाया जाता है कि गाँव के ऐसे सभी लोगों से मिलकर ग्राम सभा बनती है, जिनकी आयु 18 वर्ष या 18 वर्ष से अधिक होती है। इस ग्राम सभा के सभी सदस्य यानी लोग मिलकर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं जिसे ग्राम पंचायत कहा जाता है। ये ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि ग्रामीण विकास और लोगों की भलाई के लिए काम करते हैं। पर हकीकत यह है कि आम तौर पर गाँवों में ग्राम सभा की मीटिंग ही नहीं होती यहाँ तक कि लोगों को ग्राम सभा के बारे में पता ही नहीं होता।
ग्राम सभा की मीटिंग बुलाने की जिम्मेदारी मुख्यतः सचिव की होती है जिसमें सचिव ग्राम पंचायत और अपने ऊपर वाले अफसरों के साथ मिलकर सिर्फ कागजी तौर पर ही मीटिंग करते हैं। अपनी जेब गर्म करने में व्यस्तता के कारण ये ग्राम सभा की मीटिंग तक नहीं करते, ये किसी भी योजना को लागू करने से पहले लोगों से कोई सलाह सुझाव नहीं लेते। इनसे जनता की इच्छा और आकांक्षाओं को पूरा करने की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी।
पंचायती राज और महिलाएं
73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायती राज व्यवस्था में दलितों और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया पर इसके बावजूद गाँव की राजनीति में दलितों और महिलाओं की भागीदारी बहुत ही कम है। ज्यादातर गांवों में महिलाओं को चोपाल में चढ़ने ही नहीं दिया जाता। जिन गांवों में महिला सरपंच चुनी गई है वहाँ पंचायत का सारा कामकाज उसका पति ही देखता है।
वह तो अभी भी घूंघट करके पति के कहने पर दस्तखत कर दे रही है। यहीं हालात दलितों की भी है, जिन गाँवों में सरपंच अनुसूचित जाति से चुना जाता है, वहाँ आमतौर पर प्रभुत्वशाली वर्ग ही कामकाज संभालते हैं।
इस चुनावी व्यवस्था में कौन खड़ा होगा और वोट किसे दी जानी है यह उम्मीद्वार की क्षमताओं, योग्यताओं या मुद्दों पर किसी व्यक्ति की समझ के आधार पर तय न होकर उसकी जाति, धर्म व मोहल्ले के आधार पर तय होता है। तमाम उम्मीद्वार चुनाव जीतने के लिए जातीय समीकरण बैठाते हैं। चुनाव जीतने के लिए भाई को भाई से, एक मोहल्ले को दूसरे मोहल्ले से लड़ाते हैं।
वोट खरीदने के लिए खूब सौदेबाजी होती हैं। पैसा, देशी-विदेशी दारू की बोतलें बस्तियों में पहुंच जाती हैं। चुनाव से पहली दो रात में ही लाखों रुपए वोट खरीदने और दारू बांटने में खर्च हो जाते है। असली काम तो चुनाव वाले दिन होता है। पूरे बाहुबल का प्रयोग कर वोटरों को अपने पक्ष में लाने के प्रयास किये जाते हैं। बूथ कब्जाना, फर्जी मतदान करना, विरोधी दल के मतदाताओं को धमकाना सरेआम चलता है। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत चुनाव में एकदम सच साबित होती है क्योंकि जो जितना बड़ा शातिर होता है, उसके चुनाव में जीतने की सम्भावना उतनी ही ज्यादा होती है।
खाप पंचायत से सवर्ण वर्ग तक
गाँव में आपने सुना ना ही होगा कि चुनाव लड़ना किसी शरीफ व गरीब के बस का काम नहीं है। चुनाव में जनता के सामने यह ऑप्शन ही नहीं होता कि अच्छे और बुरे में से किसको चुनना है। ऑप्शन यह रहता है कि बुरों में से सबसे कम बुरा कौन सा है। जनता की वोट का मतलब यह नहीं होता कि कौन जनता के हितों के अनुसार काम करेगा बल्कि वोट का मतलब यह होता है कि शोषक वर्ग के साथ मिलकर अगले 5 साल तक जनता को लूटने का लाइसेंस किसे मिला है?
ऐसी हालत में सहज ही सोचा जा सकता है कि जनता का सच्चा प्रतिनिधि चुनाव में खड़ा ही नहीं हो सकता। खड़ा हो गया तो जीत नहीं सकता। गलती से जीत गया तो शोषक वर्ग के इतने सारे प्रतिनिधियों में क्या कर लेगा।
गाँव में चुनी हुई ग्राम पंचायत के अलावा भी एक अन्य पंचायत होती है जिसे खाप पंचायत कहा जाता है। चुनी हुई पंचायत में इसके फैसले के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं होती बल्कि वह समर्थन में खड़ी होती है। गाँव में झगड़े होने की स्थिति में अभी भी खाप पंचायतों द्वारा निर्णय लिए जाते हैं। अंतर्जातीय विवाह, एक ही गाँव में विवाह जैसे मामलों में लड़के लड़की की हत्या कर देने, दलितों और अल्पसंख्यकों का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने जैसे सामंती क्रूर फरमान आज भी खाप पंचायतें जारी कर देती हैं।
ग्रामीण हरियाणा में घुंघट प्रथा
हाल ही में अनुवादित प्रेम चौधरी की एक किताब ‘ग्रामीण हरियाणा में घुंघट प्रथा: बदलते स्वरूप’ में बताये गए विवरण के अनुसार 1993 में हरियाणा के सोनीपत जिले के गांव सिसाना में एक सर्वखाप पंचायत में लड़के लड़कियों के सह-शिक्षा की संस्थाएं बनने के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया था। इसके अलावा भगाना(हिसार), मिर्चपुर(हिसार), भाटला(हिसार), छातर(जींद) और भूड़(पंचकुला) आदि गांवों में दलितों का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने के मामले सामने आए। चुनी हुई पंचायत की इसमें या तो पूर्ण सहमति होती है या मौन सहमती।
एक वर्ग विभाजित समाज में कोई भी शासन व्यवस्था प्रभुत्वशाली वर्ग के हाथों में अपने हितों को पूरा करने और मेहनतकश जनता का शोषण व दमन करने का औजार होता है। पंचायती राज सरकार का ही एक अंग है जिसे शासक वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए बनाया गया है। यह स्थानीय स्वशासन के नाम पर बड़े जमींदारों, सूदखोरों, ठेकेदारों और साहूकारों का अपना शासन है जिसमें जनता को पाँच साल में एक बार वोट डालने की गतिविधि में घसीट लिया जाता है ताकि जनता इस मुगालते में रहे कि यह सब उसके वोट से हुआ है। इससे साफ है पंचायती राज व्यवस्था जनता के गुस्से को शांत करने के लिए सेफ्टी वाल्व का काम करती है, इसके अलावा पंचायती राज जनता के जनवादी अधिकारों की कोई कदर नहीं करती।
एक उदाहरण से समझें
सत्ता हस्तांतरण के बाद जनता के भारी दबाव के चलते सरकार को सन 1972 में हरियाणा के अंदर भू हदबंदी कानून बनाना पड़ा था। लेकिन यह कभी लागू नहीं हो पाया क्योंकि गाँव स्तर पर जहां इसको लागू होना था और इसे लागू करवाने की जिनकी जिम्मेदारी थी यानी स्थानीय प्रशाासन-पटवारी, तहसीलदार, डीसी, आदि पुलिस और कानून व्यवस्था, वे सब तो बड़े जमींदारों के घर सुबह शाम हाजिरी लगाने आते थे। अतः ऊपर से आए ये आदेश कागजों में ही रहे। आज भी अनेकों गाँव में कानूनन जमीन दी जा चुकी है लेकिन व्यवहार में उनका कब्जा नहीं हुआ है क्योंकि गाँव के दबंग लोग, स्थानीय प्रशाासन के साथ मिलकर कानूनी अधिकारों को धत्ता बता रहे हैं।
हरियाणा के सामाजिक कार्यकर्ता और वकील राजेश कापड़ो ने जन मंच को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि हरियाणा में पंचायतों के पास लगभग 12 लाख एकड़ जमीन है जिसमें से कानूनी तौर पर एक तिहाई आरक्षण के हिसाब से लगभग 3 लाख से ज्यादा जमीन दलितों की बनती है जिसपर तथाकथित ऊँची जाति और उच्च वर्ग के लोगों ने ही कब्जा कर रखा है। आगे कहा कि 2008 में कांग्रेस की हुड्डा सरकार ने हरियाणा में महात्मा गांधी ग्रामीण बस्ती योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों को 100-100 गज के प्लाट दिए जिनका इन परिवारों को आज तक कब्जा नहीं मिला है और जहां कब्जा मिल गया है वह गाँव से दूर मिला है जहाँ बिजली, पानी, सड़क आदि की कोई सुविधा नहीं है।
गाँव के सरकारी स्कूल में अध्यापक सही ढंग से पढ़ा रहे हैं या नहीं, गाँव का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सही ढंग से चल रहा है या नहीं, इसकी खोज खबर पंचायत कभी नहीं लेती। हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में नशे का कारोबार बढ़ता ही जा रहा है जिससे युवा आबादी तबाह हो रही है। पंचायतें कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है क्योंकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से इनकी गाढ़ी कमाई यहीं से आती है। संक्षेप में, पंचायती राज जनता की दुख -तकलीफों से किसी भी प्रकार का सरोकार न रखने वाली एक गैर लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलावा कुछ भी नहीं है। इससे ज्यादा उम्मीद करना खुद के साथ बेईमानी ही होगी।
आखिर सही विकल्प क्या हो ?
हर पाँच साल में एक बार वोट डाल देने से कुछ नहीं होगा। बल्कि इस व्यवस्था में हमारा वोट डालने का अर्थ इस व्यवस्था को मजबूती देना है। बहुसंख्यक जनता को एक ऐसा विकल्प चाहिए जो सही मायने में सामंती और साम्राज्यवादी शासन का विकल्प हो, एक ऐसा विकल्प जो जनता के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, ईलाज, रोज़गार जैसी अन्य मूलभुत सुविधाएं उपलब्ध करवाने की पक्की गारंटी दे।
शासन का संचालन बहुसंख्यक जनता के हित, आवश्यकता और सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया जाए तथा जनता के नियंत्रण में ही रहकर किया जाए। जनता को चुनने के अधिकार के साथ-साथ वापस बुलाने का भी अधिकार हो।
एक ऐसा विकल्प, जो सामूहिकता की भावना को आगे ले जाए पर मौजूदा समाज में यह विकल्प लागू होना सम्भव नहीं हैं, क्योंकि हमारा समाज एक वर्ग विभाजित समाज है, जहां एक तरफ मेहनत करने वाले मजदूर , किसान, कारीगर, दुकानदार, छोटा मोटा काम करके गुजर बसर करने वाले, कर्मचारी आदि समाज का बहुसंख्यक हिस्सा है तो दूसरी तरफ एक बहुत छोटा हिस्सा बड़े जमींदारों, ठेकेदारों, सूदखोरों और साहूकारों का है जो खुद कुछ नहीं करता बल्कि दूसरों की मेहनत पर ऐश व अय्याशी करता है।
यहीं वर्ग जो आबादी का सिर्फ 5% से 10% हिस्सा है लेकिन उत्पादन के तमाम साधनों व धन दौलत का मालिक है और जनता का निर्मम शोषण करता है। मौजूदा व्यवस्था को चलाने वाला यह शोषक शासक वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि उनके मुनाफे और लूट का राज खत्म हो।
दुनिया के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है, जिसने देश और समाज की तरक्की के लिए खुद अपनी इच्छा से शांतिपूर्वक अपने सारे विशेषाधिकार त्याग दिए हो बल्कि यह अपने शासन को कायम रखने के लिए क्रूरतम तरीके अपनाता है। इतिहास गवाह है कि नई व्यवस्था के लिए पुरानी गली-सड़ी व्यवस्था को खत्म होना ही होता है। एक बेहतर समाज का निर्माण करने के लिए इस शोषण और दमन पर आधारित व्यवस्था को उखाड़ फेंकना बहुत जरूरी है।
इसीलिए मौजूदा पंचायती चुनाव के जन विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करना होगा। पेरिस कम्यून, रुसी क्रान्ति, चीनी क्रांति और हमारे देश के क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष से उभरे एक नए क्रान्तिकारी विकल्प के रूप में क्रान्तिकारी जन कमेटियों (RPC) का निर्माण किए बिना एक सच्चे लोकतांत्रिक समाज की स्थापना असम्भव है। अत: ‘ज़मीन जोतने वाले को’ और सारी सत्ता ‘क्रान्तिकारी जन कमेटियों को’ नारा आज भी प्रासंगिक है। इससे न्यारा कोई शॉर्टकट नहीं है।
लेखक हरियाणा की MD यूनिवर्सिटी, रोहतक में एम.ए (पॉलिटिकल साइंस) की स्टूडेंट है और छात्र एकता मंच हरियाणा में एक्तिव हैं।