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“महिला क्रिकेटरों को समान वेतन ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है”

महिला क्रिकेटर्स को पुरुष क्रिकेटर्स के बराबर वेतन

इंडियन महिला क्रिकेटर्स

बीसीसीआई ने देश की महिला क्रिकेटरों को पुरुष क्रिकेटरों के बराबर मैच फीस देने का फैसला किया, जो सही मायने में ऐतिहासिक भी है। क्रिकेट एथलिट की दुनिया में तमाम तरह के लैंगिक भेदभाव के बीच आर्थिक असमानता को दूर करने के दिशा में एक बड़ा कदम है। ध्यान देने वाली बात यह है कि खेल की दुनिया में क्रिकेट में समय-समय पर जेंडर संवेदनशील बदलाव देखने को मिल रहे हैं

मसलन, मैंच आंफ द मैच/सीरिज़ के जगह प्लेयर आंफ द मैच/सीरिज़ या बैट्समैन के जगह पर बैटर शब्द के संबोधन का इस्तेमाल। इसका दूरगामी प्रभाव अन्य खेलों या अन्य क्षेत्रों में हो तब कहा जा सकता है कि बात निकलती है तो दूर तलक जाती भी है।

समान वेतन में दशकों का इंतज़ार

भारत के दूसरे एथलिट संघों को इससे प्रेरणा मिले और खेल में आर्थिक असमानता दूर करने के दिशा में प्रेरित हो सकते है। गौरतलब बात यह है कि भारतीय संविधान में समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान है लेकिन पांच दशक से क्रिकेट खेल रही महिला एथलीटों को पुरुष एथलीटों के बराबर मैंच फीस नहीं मिल रही थी, जबकि बीसीसीआई दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है, इसके बाद भी महिला क्रिकेटरों को समान वेतन का अधिकार पाने में दशकों का इतंजार करना पड़ा।

तमाम तरह के भेदभावों का सामना भी करना पड़ा। अन्य खेल संगठनों का क्या हाल होगा, इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है।

यह तो सिर्फ आर्थिक भेदभाव के दुनिया की तस्वीर है इसके साथ-साथ सामाजिक-मानसिक, शारीरिक क्षमता और क्षेत्रीय भेदभाव का दवाब एक साथ मिलकर महिला एथलिटों के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर देती है। हाल के दिनों में कितनी ही भारतीय महिला एथलिटों कि कहानियां सामने आई कि वह आंगन से निकलीं और मैदान मार लिया।

महिला एथलीटों की कई मुश्किलें

घर के दहलीज़ में महिलाओं ने ही उनका साथ दिया तब किसी न किसी बहाने उनके राह में बाधा बनकर पहले समाज आया और फिर गरीबी ने उनको रोकने की कोशिश की। बस कुछ कर दिखाने का जस्बां लेकर उन्होंने घर की दहलीज को लांघकर, बेमिसाल बन गई। लैंगिक भेदभाव के साथ-साथ खेल के दुनिया जातिय-धार्मिक और अन्य कई तरह के सामाजिक से अछूती नहीं है।

इसका असर हर एथलिट में खेल पर भी पड़ता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। कोई भी खेल लड़के-लड़कियों का नहीं स्टेमिना का होता है, यह समझदारी धीरे-धीरे खेल के दुनिया में विकसित हो रही है। यह खेल के दुनिया में एक बेहतर बदलाव का संकेत है।

महिला क्रिकेटरों के आर्थिक चुनौतियों के मोर्चे पर जीत, संगठित क्षेत्र में महिलाओं के समान वेतन के दिशा में एक छोटी सी जीत कही जा सकती है, जिसको महिला एथलिट क्रिकेटरों ने अपने संघर्ष और जीत के सफलता से जीता है।

लेकिन क्या सच में राह आसान है?

महिला क्रिकेटर्स की एक तस्वीर।

परंतु, उन महिलाओं का क्या, जो संगठित और असंगठित रोज़गार क्षेत्र का हिस्सा हैं। देश के आर्थिक विकास में उनके आर्थिक योगदान को भले ही शामिल नहीं किया जाता है, वह तो अपनी भागीदारी और अपना श्रम हर रोज़ घर के देहरी के बाहर आधे वेतन पर एंव घर के अंदर बिना वेतन के निभा रही है।

वह भी बिना किसी गिले-शिकवे और न ही किसी उम्मीद के श्रम के दुनिया में अदॄश्य श्रम की पहचान तो भारत ने आज़ादी दूसरे दशक में ही कर ली थी पर उस अदृश्य श्रम तो दूर दृश्य श्रम को सपूंर्ण वेतन देने में घोर असमानता और शोषण से घिरी हुई है। समय-समय पर सेमिनारों, अकादमिक बहसों और वर्कशॉप में महिलाओं के अदृश्य श्रम और दृश्य श्रम के समान वेतन और भागीदारी बेहतर करने के सवाल, कार्यस्थल को जेंडर संवेदनशील बनाने के वादे के साथ कही जाती हैं।

सच्चाई यही है संगठित क्षेत्र में महिलाएं अपनी संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर पाती है, असंगठित क्षेत्र में अधिकारों की मांग और उसको पूरा होते हुए देखना दूर की कौड़ी उठाने के बराबर है। चाहे संगठित क्षेत्र हो या असंगठित क्षेत्र एक अदद बेहतर बाथरूम की ज़रूरत भी महिलाओं के लिए चिंता का कारण है।

कार्यस्थल पर पितृसत्तात्मक व्यवहार और यौन शोषण की दर्द तो सतह पर अभिव्यक्ति भी नहीं हो पाता है। भले ही महिला सुरक्षा और उसके हित में काम करने वाली कमेटीयों का गठन सरकारी आदेशों के अनुपालन के संदर्भ में किया जा चुका हो।

यही कारण है कि देश ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में हर साल नीचे के पायदान पर खिसकता जा रहा है, चाहे सगठित क्षेत्र हो या असंगठित क्षेत्र समान काम के लिए महिलाओं और पुरुषों के वेतन में समानता के आकंड़ों में हम 117वें स्थान पर हों। वहां, महिला क्रिकेटरों को पुरुष क्रिकेटरों के बराबर वेतन मिलना, स्त्री-पुरुष वेतन में असमानता दूर करने के दिशा में ऊंट के मुंह में ज़ीरा के समान है। 

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