कभी-कभी डर जाता हूं सपनों की उड़ान से
अपनी ही आग से जैसे डर बाहर नहीं
अपने ही अन्दर हो।
और फिर एक बिन्दु पे आकर जीवन ठहर सा जाता है।
फिर कोई या किसी की ख्वाहिश नहीं रह जाती है
न प्यार की न प्यार करने वालों की
न सपनों की न उड़ानों की
न दोस्त की न दोस्ती की
न इश्क़ की न आशिकी की,
अपने स्वभाव को दबाकर
आप परिस्थितियों को छुपा के
लोगों को चुपचाप से स्वीकार करने लग जाते हैं
पता नहीं कि आपका मन छोटा हो जाता है
या आप बड़े हो जाते हैं।