गाजियाबाद की प्रिया कौल दिल्ली यूनिवर्सिटी के राजधानी कॉलेज में पढ़ती है. बचपन से ही उन्हें कुछ नया सीखने का हमेशा से शौक था। प्रिया ने कत्थक में रुचि लेना शुरू कर दिया और देखते ही देखते कथक के उन कठिन स्टेप्स को भी उन्होंने याद कर लिया। प्रिया कई बार ज़िले का नाम रोशन कर चुकी है। सोशल मीडिया पर उन्हें लगातार कथक की परफॉर्मेंस के लिए सराहना भी मिलती रहती है. इसके साथ ही प्रिया समाज को संस्कृति और लोकनृत्य के प्रति अक्सर जागरूक भी करती है।
आइए जानते हैं कथक के बारे में
उत्तर प्रदेश की धरती पर जन्में इस नृत्य की उत्पत्ति ब्रजभूमि की रासलीला से हुई है। 14वीं 15वीं सदी तक सभी भारतीय नृत्य, धर्म और मंदिरों से जुड़े हुए थे। कथक भी इसका अपवाद न था। इसका नाम ‘कथिका’ यानी कहानी कहने वाले, से निकला है, जो महाकाव्यों के प्रसंगों का वर्णन संगीत और मुद्राओं से किया करते थे।
धीरे-धीरे यह नृत्य का रूप लेता गया। फिर भी इसके केंद्र में राधा-कृष्ण ही रहे। मुगल काल में इसका रूप दरबारी होता गया । कथक की चर्चा घरानों के बिना अधूरी है। लखनऊ, जयपुर और रायगढ़ में से सबसे अधिक प्रसिद्ध लखनऊ घराना हुआ। कला-विलासी नवाब वाजिद अली शाह के शासन काल में यह लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा।
नवाब साहब स्वयं ठाकुर प्रसाद से नृत्य सीखा करते थे। ठाकुर प्रसाद उत्तम नर्तक थे, जिन्होंने कथक नृत्य का प्रवर्तन किया। ठाकुर प्रसाद के तीन पुत्रों-बिन्दादिन महाराज, कालका प्रसाद, भैरों प्रसाद ने अपने पिता व पितामह की परम्परा को बना, रखा। कालका प्रसाद के तीनों पुत्रों अच्छन महाराज, लच्छू महाराज व शम्भू महाराज ने भी कथक की पारिवारिक शैली को बना रखा। आज अच्छन महाराज के पुत्र बिरजू महाराज ने कथक को नई ऊंचाइयों तक ले जागे में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लखनऊ घराने की विशेषता उसके नृत्य में भाव, अभिनय व रस की प्रधानता है।