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“करवाचौथ महिलाएं प्यार में नहीं, दबाव में करती हैं”

करवाचौथ

हिंदी सिनेमा और टीवी सीरियल्स ने बाज़ार के साथ मिलकर पिछले कुछ दशकों से करवा चौथ को इतना अधिक लोकप्रिय बना दिया है कि घरेलू महिला ही नहीं कामकाजी महिलाएं भी अपने घर के पुरुषों के लिए व्रत रखती हैं। कई महिलाएं तो लोग क्या कहेंगे के दवाब से बचने के लिए इस तरह के व्रत को करती हैं या फिर पुरुषों से मनपसंद उपहार पाने की उम्मीद में। अलबत्ता, पुरुषों के इस ताने के बाद भी कि पत्नी जीने तो देती नहीं और ना मरने की कामना के लिए उपवास भी करती है।

कामकाजी महिलाओं के लिए व्रत

मौजूदा समय में भारतीय आस्थावान समाज में जिस तरह से करवा चौथ या इस तरह के अन्य जो भी त्यौहार बनाए जा रहा है, वह भले ही सतही तौर पर महिलाओं का त्यौहार लगता है परंतु है वह पुरुषों को श्रेष्ठ सिद्ध करने का विशुद्ध धार्मिक आयोजन, जो हमारे समाजीकरण में इस बात की नींव रखता है कि समाज पुरुष प्रधान है और पुरुष की महत्ता विशिष्ट है।

परंपरा का निर्वहन करने वाली महिलाएं ही नहीं, आधुनिकता का भार अपने कंधे पर ढोने वाली महिलाएं भी, जिन्होंने एड़िया घिस-घीसकर अपनी विशिष्ट भूमिका अपनी भागीदारी से बनाई है। समाज को अपने विशिष्ट ईकाई होने का लोहा बनवाया है, तमाम तरह के लिंगभेद से लड़ते-भिड़ते हुए, वह भी लिंगभेद का शिकार होते हुए पुरुषों के अच्छे स्वास्थ्य और लंबी उम्र का लाइसेंस रिन्यू करने के लिए पूरी तरह से सज-धज कर तैयार होती है।

इस सांस्कृतिक समाजीकरण से वह खुद भी परिवार के अगली पीढ़ी के सामने भी लिंगभेद का बीजारोपण कर रही है, क्या वह इससे अनजान है? मुझे नहीं लगता वह अनजान है! वह व्रत न करने के अपराधबोध से स्वयं को मुक्त रखना चाहती है, क्योंकि हमारा समाज पूरी ताकत से अपराधबोध करवा देता है।

क्या हैं पुरुषों को श्रेष्ठ बताने के माएने?

इस यथास्थिति पर कोई भी तर्कपूर्ण सवाल से करवाचौथ करने वाले आस्थावान समाज को आहत कर देता है। वह यह सोचना भी नहीं चाहता है कि महिलाओं की समानता की मांग करने वाले दौर में जब कोई आस्था में पुरुषों को स्त्री से श्रेष्ठ मानता है, तो वह मूल रूप से महिलाओं को पुरुषों से कमतर ही मानता है।

खासकर उस दौर में जब महिला सशक्तिकरण और महिला समानता-स्वतंत्रता के लिए महिलाओं की दावेदारी लगातार बढ़ रही है। तमाम उदारवादी और महिलाओं के हक में कानून बनाने के बाद भी समाज में महिलाओं के सम्मानजनक माहौल बनाने में तमाम सरकारें कामयाब नहीं हो पा रही हैं।

पति की संवेदनाएं एक दिन ही क्यों?

प्रतीतात्मक तस्वीर।

यह सच है कि आज के दौर में कई पुरुष भी हैं, जो अपनी व्यक्तिगत इच्छा से अपनी जीवनसंगनी के साथ उपवास करते है और अन्न-जल ग्रहण नहीं करते है। इस इच्छा से कि वह सीधे-सीधे परिवार में लिंग-भेद के परंपरा का निर्वहन नहीं करना चाहते है। पर इस सच का कठोर यथार्थ यह भी है कि अपने जीवनसाथी के साथ ज्यादा संवेदनशील और हर चीज़ में साथ देने का भाव एक या दो दिन तक ही टिक पाता है। साल के बाकी दिन संवेदनशील और साथ खड़े होने का भाव हवा हो जाते है।

सालभर जीवनसंगनी के साथ खड़ा होने का भाव या कंधे से कंधे मिलाकर चलने वाला भाव हर रोज के श्रम, सेवा और अतिरिक्त तनाव के सामने टिक ही नहीं पाता है। वैसे सवाल तो उन पतियों और पुरुषों से भी होना चाहिए जो यह ताना देते हुए तो अक्सर पाए जाते है कि पत्नी जीने तो देती नहीं और ना मरने की कामना के लिए उपवास भी करती है। सवाल है कि यह पति पत्नीयों को पतिव्रता होने का प्रमाणपत्र करवाचौथ के उपवास के आधार पर ही क्यों देते है, वह भी बेहद फक्र से, जैसे मैं ही हूं जो तुमको पत्नीव्रता होने का मैडल दे सकता हूं और कोई नहीं?

व्यक्तिगत रूप में मेरा मानना है कि करवाचौथ और इस तरह के आस्था में विश्वास रखने वाली पत्नीयां या फिर बाज़ार और परिवार-समाज के दवाब में करवाचौथ करने वाली पत्नीयां उस दिन के इतंजार में सदियों से हैं, जब उनके साथ पति भी जीवनभर के संघर्ष में अपनी स्वेच्छा से उनके साथ खटते हुए दिखें, कष्ट भोगते हुए दिखें।

अपनी पत्नीयों के लिए वह भी उपवास का कष्ट सहे और वह भी अपनी पत्नियों के बेहतर स्वास्थ और लंबी उम्र की कामना करे। घर-परिवार में हर तरह के लिंग-भेद के समाजीकरण को जड़-मूल से उखाड़कर फेंक दे और समानता-स्वतंत्रता का पुर्नपाठ नए सिरे से परिभाषित करे।

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