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बस्तर का अनोखा दशहरा जहां रावण नहीं जलाया जाता

बस्तर दशहरा

छतीसगढ़ का 75 दिन का दशहरा

यूं तो दशहरा पर्व है बुराई रूपी रावण पर अच्छाई रूपी राम की विजय का! परंतु आज हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसे दशहरे के पर्व के बारे में जिसमें रावण वध नहीं अपितु रथयात्रा निकाली जाती है, जो 75 दिनों तक चलता है और पूरे विश्व में प्रसिद्ध में है। यह पर्व छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में मनाया जाता है और इसके मनाने के पीछे राम -रावण विजय नहीं अपितु अपनी अलग ही मान्यताएं हैं।

बस्तर के दशहरे में क्या अलग? 

बस्तर दशहरा में रावण जलाने की प्रथा नहीं है। पूरी तरह से विभिन्नताओं और अपनी एक अलग सामाजिक सांस्कृतिक पहचान को समेटे बस्तर का यह महापर्व 75 दिनों तक चलता है । जिसकी शुरुआत होती है सावन माह के अमावस्या से और 75 दिनों तक चलते हुए दशहरा के दो दिन पश्चात इस पर्व का समापन होता है।

मुख्य रूप से बस्तर दशहरा बस्तर अंचल की आराध्य देवी दंतेश्वरी माई जी को समर्पित है । इस महापर्व में बस्तर अंचल के अलग-अलग जनजाति के लोग अलग-अलग काम के लिए वर्षों पहले निर्धारित किए गये थे और आज भी अपनी उस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए वे इस पर्व को बनाए रखे हुए हैं। 

बस्तर दशहरा का मुख्य आकर्षण है इस दशहरे में चलने वाला रथ। जी हाँ भई वैसा ही रथ जैसा उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ यात्रा के समय चलता है । वैसे तो बस्तर दशहरे में रथ की कहानी भी वहीं से ही निकल कर आती है ।

क्या है रथ की कहानी?

निशा जात्रा की एक तस्वीर।

कहा जाता है कि 1408 ई. में बस्तर के काकतीय/चालुक्य वंशीय चौथे राजा पुरुषोत्तम देव अपनी प्रजा एवं सैन्य दल के साथ पैदल जगन्नाथ पुरी पहुंचे। पुरी के राजा को जगन्नाथ स्वामी ने स्वप्न में आदेश दिया कि बस्तर नरेश की अगवानी व उनका सम्मान करें , वो भक्ति और मित्रता के भाव से पुरी पहुंच रहे हैं । पूरी के नरेश ने बस्तर नरेश का राज्योचित स्वागत किया । बस्तर के राजा ने पुरी के मंदिरों में स्वर्ण मुद्राएं, आभूषण तथा कई भेंट जगन्नाथ स्वामी के श्री चरणों में चढ़ाए। जगन्नाथ स्वामी में मुख्य पुजारी को आदेश दिया कि बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव को 16 पहियों वाला रथ प्रदान किया जाए, जिसके बाद बस्तर नरेश उसी रथ से वापस हुए और उनके वंशजों ने दशहरा मनाया साथ ही रथपति की उपाधि से विभूषित किया गया। 

 वर्षों बाद भी आज भी यह पर्व एकता के साथ मनाया जाता है। अलग-अलग जनजातियों के द्वारा सारी प्रथायें सम्पन्न की जाती है। नवरात्र के शुरू के सात दिन रोज़ रथ में दंतेश्वरी माता के छत्र को विराजित कर नगर में घुमाया जाता है । 

वैसे तो यह पर्व 75 दिनों तक चलता है परंतु देखने योग्य मुख्य आकर्षण हैं अंतिम के दिन , जो शारदीय नवरात्र के अष्टमी जिसे  बस्तर दशहरा में निशा जात्रा या बलि का पर्व भी कहते हैं से शुरू होता है । इस दिन तांत्रिक विधि करते हुए निशा देवी के लिए समीप के राउत जनजाति के लोगों द्वारा बड़ा आदि का भेंट चढ़ाया जाता है तथा क्षेत्र की बुरी शक्तिओं से रक्षा के लिए 12 बकरों की बलि दी जाती है। 

प्रकृति से जुड़ाव का त्योहार

कई क्षेत्रों की तरह यहां भी नया खाने मतलब नयी फसल खाने की प्रथा है पर ख़ास बात यह है कि यहां इस प्रथा में राजा के साथ कई गाँव के लोग शामिल होते हैं, सभी अपने-अपने ग्राम देवता के साथ नगर में महल में आते हैं और वहीं रुक कर कार्यक्रम में सम्मिलित होते हैं । प्रजा आज भी अपने राजा को इतना प्रेम करती है यह बस्तर दशहरे में आप बिलकुल देख सकते हैं । नया खाने की प्रथा में पूरा जनजातीय समाज एक परिवार की तरह शामिल होता है।

पूरे क्षेत्र में दशहरा का ये पर्व अपनी सामाजिक एकता को दिखाता है। पर्व त्योहार तो हम कई मनाते हैं पर एक पर्व को केंद्र में रख कर उसे सम्पन्न करने में पूरा समाज लगा रहता है। 20 दिनों के भीतर पारंपरिक औजारों से साल वृक्ष से नया और वृहद् रथ बनाया जाता है । जिसे 8 पहियों का बनाया जाता है।

मौली माता की डोली का व विभिन्न ग्राम से अंगादेव का नगर आगमन ,जनजातीय नृत्य , रथ खींचना , रथ चोरी कर ले जाना फिर वापस राजा के मनाने पर लेकर आना ये सब कुछ बस्तर के दशहरा के छोटे छोटे अंग है जो इसे विश्व में प्रसिद्ध करते हैं । 

अपने आप में एक अलग संस्कृति को समेटे यह उत्सव आपको आनंद से भर देता है । बस्तर में दशहरे के साथ साथ कई अन्य विश्व प्रसिद्ध और रोचक कहानियां हैं, इनसे मुखातिब होने के लिए बस थोड़ा सा समय निकालिए और आ जाइए प्रकृति की गोद में । 

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