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मजदूर वर्ग के लिए भोजपुरी फिल्मों के अलावा क्या कोई और ऑप्शन है?

सिने माहौल से अतीत दौर में बड़े व्यापक रूप से ओझल हो रहा है और हाशिए पे चला गया है। आधुनिक समय में गुजरा वक्त अपनी ब्यार खो चुका है। नए समय में सिनेमा का जन-सुलभ वितरण अमीरों के शौक में बदलता जा रहा है। बहुत से सिंगल-स्क्रीन सिनेमाघर परिवर्तन एवं तालाबंदी के दौर से गुज़र रहे हैं।

कितना बदल गया सिने जगत ?

परिवर्तन की रफ्तार में यह इतिहास ‘आधुनिकता’ व ‘बाज़ारवाद’ के लिए जगह बना रहा है। अतीत जो अब भी उस समय की याद लिए नगर में कहीं सिमटा पड़ा था। आज वह गुज़रे वक्त की जुस्तजु को फिर भी हवा देता है यानि तालाबंदी के अंधेरे में डूबा हुआ अतीत! आप अपने आसपास देखेंगे तो पाएंगे कि फिल्म व्यवसाय के स्ट्रक्चर में पहले से कितनी तब्दीली हुई है। 

एक विश्लेषण के मुताबिक सिनेमाघर पर बंदी का कारण पर्याप्त लाईसेंस का न होना समझ आता है। फिर वितरकों के साथ व्यावसायिक अराजकता का मामला एवं स्वामित्व बड़ा कारण है। पुराने सिनेमाघर किसी न किसी कारण दैनिक सिनेमाई गतिविधियों से महरूम हैं, उनकी जगह मल्टीप्लेक्स ने ले ली है अब वहां फिल्मों का प्रदर्शन नहीं होता। दर्शक हितों के बहाने सुलभ लोकप्रिय सिंगल स्क्रीन छविग्रहों का एक के बाद एक बंद हो जाना बड़ी बात है।

क्यों सिनेमाघर खाली पड़े हैं?

आधुनिक समय में पुरानी दरों का मनोरंजन शुल्क अनुभव समाप्त है। अब सिनेमाघरों में जाकर फिल्म का मजा लेना हर किसी के बस में नहीं। विशेषकर हर तरफ का मारा गरीब आदमी बड़े शहर में सिनेमा का टिकट नहीं खरीद सकता और गाँव में ढंग का सनेमा होता नहीं। गाँव-कसबे से पलायन कर नगर-महानगर में आए आदमी के पास स्वस्थ मनोरंजन का बहुत सीमित विकल्प है, घर द्वार में गुज़ारा हो जाने लायक रोज़गार नहीं कि वापस लौट आएं।

लेकिन मोबाइल में लोड फिल्में उसे सिनेमाघर का मज़ा नहीं दे सकती। त्वरित व आसान तरीके से मनोरंजन का सामान मुहैया कराने वाले बाज़ार को गरीब आदमी से विशेष सरोकार नहीं। राजधानी के गौरव कहे जाने वाले छविगृह भी जब नहीं रहे फिर बाकियों का क्या कहें?

हां! स्वस्थ सुलभ मनोरंजन का दायित्त्व रेडियो ज़रूर निभा रहा है, किंतु सिने अनुभव में भागीदारी का दायरा सामुदायिक सेवा से खरीद सेवा में तब्दील हो चुका है। सिनेमाघरों के परंपरागत प्रारूप में बदलाव से ‘सभी को मनोरंजन’ सुनिश्चित करने पर चर्चा नहीं है महंगाई के दौर में टिकट खिड़की कम कमाने वालों की पहुंच से दूर है।

हाशिए के लोग हर जगह उपेक्षा के शिकार होते रहे हैं। सड़क के फिल्म दर्शक विकल्प की तलाश करने लिए विवश हैं लेकिन सिनेमा अनुभव का भागीदार होना अब एक पूंजी का सवाल है। मोबाईल में फिल्म देखने के लिए भी एक पूंजी का सवाल है। छविग्रहों का सेवा शुल्क काफ़ी बढ जाने से फिल्म देखना अमीरों की ठसक हो गई है।

कम पैसे में अब फिल्में कहीं नहीं

विशेष कर मल्टीपलेक्स के जमाने में हाशिए का या कहें पिछड़ों का मनोरंजन अधिकार एक दिवास्वपन है। वह समय अब नहीं रहा जब बड़ा पर्दा हर वर्ग की पहुंच में था। सिनेमा से आम आदमी के गायब हो जाने का असर परदे के दूसरी ओर भी नज़र आने लगा है । छविग्रहों की दीर्घा में गरीब आदमी नज़र आता नहीं। सिनेमाघरों में आसान शुल्क वाली श्रेणी खत्म हो गई है। यह कम दाम पर लोगों को अच्छी फिल्में दिखाने की क़ुव्वत रखता था।

सिनेमा का माध्यम लोकतांत्रिक मूल्य रखता था। हाई मल्टीपलेक्स में गरीब आदमी का स्वागत करने वाली स्पेशल-फ्रंट-रियर दीर्घा की अवधारणा नहीं होती। मल्टीप्लेक्स की चकाचौंध गरीब आदमी को असहज कर सकती है, परंपरागत सिंगल स्क्रीन छविग्रहों में बदलाव की से गरीबों का सवाल खारिज सा लगता है। आसमान छूती कीमतों के प्रकाश में एक साधारण आदमी ‘पाइरेटेड सिनेमा’ की दुनिया में गुमराह होने को आमदा नज़र आता है। कहना ज़रूरी है कि उस बाज़ार की निरंतरता में चिंताजनक परिणाम देखने को मिलें हैं।

हाशिए के लोगों को, गरीब दर्शक को सुरक्षित करने के लिए भोजपुरी फिल्म मनोरंजन को गलत रूप से मुक्ति का मार्ग करार दिया जाता है। दुख की बात कि अब उसके भी स्टार्स की फ़ीस असमान छू रही है। आरंभिक भोजपुरी फिल्मों के संदर्भ में बात ठीक थी, किंतु वो बात अब के भोजपुरी सिनेमा पर लागू नहीं होती।

सिर्फ भोजपुरी सिनेमा क्यों?

सड़क के आदमी का मनोरंजन अधिकार इससे आगे निर्धारित होना चाहिए। एक सांस्कृतिक जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने की ज़रूरत है। उसे बेहतर मनोरंजन का अवसर उपलब्ध कराया जाए। बदलाव की धारा में छविग्रहों की परंपरागत अवधारणा मिटने से सिनेमा का शौकीन गरीब तबका कुंठाओं की गिरफ्त में है। सबसे गरीब तबके के हित में सिनेमा का सामुदायिक स्वरूप किस तरह का हो इस पर सोचा जाए। केवल भोजपुरी फिल्में दिखाने से काम नहीं चल सकता, उन्हें हिंदी फिल्में देखने का अवसर उपलब्ध हो। उन्हें सकारात्मक मनोरंजन का आदि बनाना होगा, फिर शायद मानसिक हित-अहित का बोध कर पाएंगे। 

मनोरंजन जगत को इस दिशा में विचार करना चाहिए। सड़क का आम आदमी दिहाड़ी मजदूर भ्रमित दिशाओं की ओर मोड़ दिए जा रहे हैं, सिनेमा से जुड़े लोगों ऊपर समाज को जोड़ने का महत्ती दायित्व है। आधुनिकता व बाज़ार की इकॉनोमी में काम थोड़ा मुश्किल ज़रूर है, किंतु असंभव नहीं।  

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