Site icon Youth Ki Awaaz

पहाड़ी बेटी अंकिता के पिता को कैसे इंसाफ मिलेगा?

अंकिता मर्डर

अंकिता मर्डर उत्तराखंड

अपने शांत वातावरण और सुंदरता के लिए दुनियाभर में मशहूर उत्तराखंड इस वक्त एक दर्दनाक और शर्मनाक खबर के लिए सुर्खियों में है। रोज़गार की तलाश में अपने गाँव से बाहार निकली 19 साल की अंकिता को कुछ ताकतवर लोगों ने सिर्फ इसलिए जान से मार दिया, क्योंकि उसने ‘स्पेशल सर्विस’ देने से इंकार कर दिया। आज इस घटना ने पुरे देश-प्रदेश को हिला के रख दिया है, जो पहाड़ी लोग अपने शांत स्वभाव के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने आरोपी की संपत्ति में आग लगा दी और उस पर हमला करने की कोशिश की. उत्तराखंड जैसे राज्य में ये सब होगा इसकी किसी ने कभी कल्पना भी नही की होगी?

अंकिता की मौत का ज़िम्मेदार कौन?

अब सवाल यही है कि अंकिता की मौत का ज़िम्मेदार कौन है? बेटी की तलाश में 5 दिन से चक्कर काट रहे पिता को कैसे इंसाफ मिलेगा? बेटी का इंतज़ार कर रही अंकिता की माँ को कौन जवाब देगा? या फिर बाकी मामलो की तरह कुछ दिन लोग सोशल मीडिया मे हल्ला करेंगे, मीडिया अंकिता के घर जाएगी, कुछ नेता अंकिता के घर फोटो खिचवा राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करेंगे और फिर सब शांत हो जाएगा?

शायद खुद अंकिता के गरीब माँ-बाप भी एक मंत्री के बेटे के खिलाफ लड़ते-लड़ते थक हार आंसू बहाते रह जाएंगे।

इस भयावह घटना के बाद न जाने मेरे जैसी कितनी अंकिता कहीं दूर शहरों मे बैठ सहमी हुई है। क्या हमें भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए कभी कोई पुलकित इसी तरह मार देगा और हमारे माँ बाप हमारी लाश मिलने का इंतज़ार करते रह जाएंगे? ऐसे न जाने कितने ख्याल मन में आ रहे हैं।

क्यों नहीं सुनी गई अंकिता के पिता की?

हम उत्तराखंड के युवा पढ़ाई और नौकरी के लिए अपना घर-परिवार छोड़ दिल्ली, मुंबई, चड़ीगढ़, देहरादून जैसे शहरों में आने को मजबूर है, क्योंकि घर में गरीबी है। न खानदानी जायदाद है, न व्यवसाय, न सरकारी नौकरिया है, न कोई और रोज़गार! कृषि एकमात्र सहारा था जिसे जंगली जानवरों और आधुनिक इंसान ने खत्म कर दिया।

किसी तरह माँ-बाप बेटी को पढ़ा, समाज के खिलाफ जा बाहर भेजते हैं, तो वहां से उसकी लाश वापस आती है। अब हर कोई अपनी बेटियों को बाहर पढ़ने और नौकरी के लिए भेजने से पहले हज़ार बार सोचेगा। भले ही गरीब है पर कुछ पैसो के लिए अपनी बच्चियों की जान खतरे में नही डाल सकते।

राज्य बने लगभग 22 साल हो गए लेकिन दूर गाँव में बैठे आदमी के लिए आज भी राजधानी देहरादून तक अपनी आवाज़ पहुचाना उतना ही मुश्किल है, जितना दूर लखनऊ हुआ करती थी। ये इस बात से पता चलता है की करीब 5 दिन तक इस मामले को सबने हलके मे लिया और किसी ने अंकिता के पिता की कोई मदद नहीं की। शायद नेशनल मीडिया का दबाव न पड़ता और लोग चुप रहते तो कुछ दिनों में मामला रफा-दफा कर दिया जाता।

इन सवालों के जवाब कौन देगा?

• इतना संजीदा मामला होने के बावजूद एक्शन लेने में इतनी देर क्यों हुई? रेगुलर पुलिस को केस देने में 5 दिन क्यों लगे?

• रेगुलर पुलिस से पहले केस देख रहे पटवारी ने अंकिता के पिता की मदद क्यों नही की? क्या वो दबाव में काम कर रहे थे?

• एक मंत्री के बेटे का इतना बड़ा रिसोर्ट गलत तरीके से बना था और ना कोई शिकायत हुई ना एक्शन। उस पर कार्यवाही करने की याद भी सीएम धामी को अंकिता की मौत के बाद आती है और उसे एक जीत की तरह दिखाया जाता है।

सरकार और प्रशासन के अलावा इस मामले में एक समाज के तौर पर हम सब ज़िम्मेदार हैं। लोगो को ज़रुरत है अपने बच्चो को शिक्षा के साथ संस्कार भी दे। उनकी गलतियों में पर्दा डालना आगे जाकर खतरनाक हो सकता है। हैरानी होती है कि इतनी बड़ी घटना के बाद भी मंत्री जी अपने बेटे को सपोर्ट कर उसको न्याय दिलाने की बात कर रहें है।

जब पीछे ऐसा सहारा था तभी आरोपी को इतना बड़ा दुस्साहस करने की हिम्मत आई। हो सकता है कुछ साल बाद वो अपने बेटे को बाहर निकालने में सफल भी हो जाएं।

आरोपियों ने जुर्म कबूल लिया है और सब कुछ साफ नज़र आ रहा है। इसके बाद भी इस मामले मे जल्दी न्याय नहीं मिला तो ऐसी अंकिता आगे भी मरती रहेंगी, हो सकता है अगली अंकिता आपके घर से या गाँव से निकले।   

Exit mobile version