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“UPSC ने मुझसे मेरी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण साल छीन लिए”

पिछले दिनों मुझे एक इंसानी प्रवृति के बारे में पता चला, जिसे कहते हैं सर्वाइवरशिप बायस (survivorship bias)। बात बहुत आसान है, हम हमेशा कुछ हासिल करने के लिए अपने स्ट्रगल के दौरान उन लोगो का अनुसरण करते है जो उस स्ट्रगल को पास कर चुके है और अपना लक्ष्य हासिल कर चुके है। मगर इसके साथ समस्या ये है कि ऐसे लोगों के बताए हुए नुस्खे हमारे किसी काम नहीं आते। हम हताश मन से अपनी हार के लिए खुद को दोष देते रह जाते हैं। ऐसे में हमें चाहिए कि हम उन लोगों का अनुसरण करें, जिन्होंने निराशा देखी हो , असफलता देखी हो। वे लोग हमारे लिए बेहतर गाइड साबित हो सकते हैं, बजाय उनके, जिन्होंने जीत हासिल की हो।

हारने वालों की बात करनी ज़रूरी है

लेकिन हमें ऐसे लोग मिलेंगे कहा जिन्होंने असफलता का दामन थामा हो? क्या लोग अपनी हार का ज़िक्र करना पसंद करते हैं? शायद नहीं। ऐसा बहुत कम ही देखा गया है कि लोग अपने फेल्योर के बारे में दुसरों को बताते हों, सुनता ही कौन है उनकी और क्यों सुने? हम सभी को सफलताओं की कहानिया पसंद है। मीडिया भी उन्हें ही हमारे सामने परोसता है, और असलफल लोगों के हाथों रह जाती है सिर्फ निराशा।

मैं खुद को फेल समझती हूं

आज की तारीख तक अगर मैं डॉक्यूमेंट करूं तो खुद को सबसे बड़े फेल्योर के रूप में देख रही हूं। मुझे नहीं पता कि मेरा फ्यूचर क्या होने वाला है। बस उम्मीद है कि इन असफलताओं से मिली सीख से जीवन में कुछ हासिल कर पाऊं, जिसका फिलहाल मुझे कोई अंदाज़ा नहीं है। मेरा इस आर्टिकल को लिखने के पीछे कुछ खास एजेंडा तो नहीं है फिर भी इसलिए लिख रही हूं कि कहीं कोई इसे पढ़कर अपनी फेल्योर की दास्तान लिखे और भविष्य में वो मेरे लिए किसी काम आ जाए।

मुझे मालूम है हम में से किसी को भी नाकामी की कहानी पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं होती , क्योंकि ये वो मुकाम है जहां हम कभी पहुंचना नहीं चाहते लेकिन कभी न कभी, किसी न किसी वजह से पहुंच ज़रूर जाते है और फिर वहां से निकलने का रास्ता और वक्त ढूंढते रह जाते हैं। मैं अपने जिन अनुभवों के बारे में लिखने जा रही हूं, उन्हें मैं वापस लौटकर बदल नहीं सकती लेकिन चाहती हूं कि यदि यह किसी और की लाइफ को भी प्रभावित करे तो वो एक बार ठन्डे दिमाग से ज़रूर सोचे।

शुरू करते है मेरे लेटेस्ट फेल्योर UPSC से

दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम “किरण” में पहली बार UPSC का नाम सुना था और तभी ठान लिया था कि बनना तो “IAS” ही है। मैंने अपनी स्कूली शिक्षा पुरे हौसले से पूरी की। बीच के दो सालो में मुझे सरकारी स्कूल में भी दाखिला लेना पड़ा क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति कभी ठीक नहीं थी। ऐसी स्थिति में आपका बड़ा सपना देखना और उसको पूरा करने में जी जान लगा देना बड़ी ही आम सी बात है। अनजाने में ही सही लेकिन लाइफ पूरी तरह संघर्षो को जीतकर अपनी मंजिल को हासिल कर लेने वाली ही थी। कोई दिखावा नहीं था, कमी थी गाइडेंस की।

मैंने स्कूल में या आसपास कभी किसी के मुंह से ‘सिविल सर्विस’ जैसा कुछ सुना ही नहीं था। जब कभी सुना ही नहीं तो सवाल कहां से पैदा होंगे? ना आज की तरह फ्री और अनलिमिटेड इंटरनेट का ज़माना था। 2012 में अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री हाथ आने से पहले ही मुझे NCERT का नाम पता चल चुका था। हम स्टेट बोर्ड वालों के लिए NCERT किसी जादुई किताब से कम नहीं थी। वो भी इतनी सस्ती कि मैंने 9वीं से 12वीं तक की सभी ज़रूरी किताबें खरीद ली और अपने अल्प ज्ञान में उसमें छपी टिप्पणियों और फैक्ट में गुम हो गई।

किताबों में ये नहीं लिखा होता की उसमे से पढ़ना क्या है और छोड़ना क्या, बस दुविधा में सारी किताबें कई बार पढ़ने के बाद भी कुछ ज्ञानवर्धक नहीं लग रहा था क्योंकि मैं एक तरह के बायस का शिकार हो चुकी थी – बस NCERT कर लो हो जायेगा। अभी भी हमारा शहर इंटरनेट की दुनिया से कहीं दूर था। यह वही समय था जब हम मेन बैलेंस से अपने फीचर फोन के ब्राउज़र में फेसबुक पर एक नज़र फेर लेते थे वही काफी था। फिर कहां पिछले सालो के प्रश्न पत्र और कहां नोटिफिकेशन!

यूपीएससी की तैयारी और मेरा डिप्रेशन

इस बीच मैंने अपना पोस्ट-ग्रेजुएशन भी कर लिया लेकिन UPSC को समझना अभी भी मुश्किल था। यह वही दौर था जब CSAT चालू हुआ और मुझे इतना समझ ज़रूर आया कि रास्ता थोड़ा आसान हुआ है। लेकिन रोज़ 80 किलोमीटर ट्रेन से आना-जाना और घर पर रहकर पढ़ना एक असंभव सी बात थी। आज कल ये चलन सा लगता है कि फलां ने घर पर बैठ कर UPSC क्रैक कर लिया। मुझे तो बड़ी हैरानी सी होती है ये बात सुनकर, क्योंकि किसी मुश्किल परीक्षा को पास करने के लिए मुझे ये कोई आम तरीका नहीं लगता। मैंने कॉलेज की 5 साल की पढ़ाई जैसे-तैसे पूरी की है।

खैर अब बारी थी कोचिंग की, जिसका एक ही ठिकाना था – दिल्ली। लेकिन दिल्ली बहुत दूर है। दिल्ली और आपके सपनो के बीच आती है ज़रूरत के पैसों की दीवार, जो मेरे पास नहीं थे। फिर जॉब! अपने ही शहर के छोटे से स्कूल में जॉब ली, तनख्वाह – छह हज़ार महीना। फिर अपनी प्राइवेट कोचिंग – सुबह 7 से शाम 7 बजे तक काम कर के मैंने महीने के 20 हज़ार तो बना लिए। 4 साल की जॉब, थोड़ा SIP ,म्यूच्यूअल फण्ड में थोड़े पैसे, ये काफी थे अपने सपनों की उड़ान के लिए लेकिन फिर आया 2 साल का डिप्रेशन!

इसके बाद अब उम्र हो चुकी थी 27 साल। अब सब कुछ ऑनलाइन हो चुका था। अनु कुमारी जी अपने घर-गांव में रहकर दूसरा रैंक ला चुकी थी और अब मेरे पास भी अपने सपनो को पूरा करने के लिए घर से बेहतर कोई दूसरी जगह दिखी नहीं। यहां मेरी सोच पूरी तरह बदल चुकी थी, यहीं मैंने पहली गलती की। एक समय था जब ये समझ नहीं आता था कि क्या पढें मगर अब हालत ऐसी थी कि ये समझ नहीं आता था कि क्या ना पढ़ें। फिर भी मैं इतने वक्त में बहुत सारे अनुभव बटोर चुकी थी और अब भी अपना पहला अटेम्प्ट नहीं दे पाई थी। सब कुछ जानते हुए भी, फिल्टर करते हुए भी मैं इंफार्मेशन के दलदल में फंसती गई , ये थी दूसरी गलती। यकीन मानिए, मैंने किसी भी तरह के फालतू की UPSC हेल्प प्रोवाइडिंग प्लेटफार्म पर अपना समय बर्बाद नहीं किया, किसी तरह के ज़बरदस्ती के फालतू वीडियोज़ नहीं देखे, अपनी बेसिक किताबें, सीमित रिसोर्सेज में बंधी रही। फिर मैंने डटकर अपनी पढाई शुरू की।

तीसरी गलती

यकीन मानिए 21 साल का माइंडसेट और 27 साल के माइंडसेट में बहुत अंतर होता है। अब भी UPSC के पीछे नहीं भागती तो शायद खुद से हार जाती। गंभीर डिप्रेशन से तो मैं बाहर आ चुकी थी लेकिन डिप्रेशन मुझसे दूर नहीं गया था। मैं अपनी एनालिटिकल एबिलिटी जैसे खो चुकी थी। ये मजाक नहीं था। एक समय मैं ट्रिगोनोमेट्री और को-ऑर्डिनेट ज्योमेट्री आराम से सॉल्व कर पाती थी और अब मुझसे बेसिक मैथमेटिक्स हल नहीं हो रहे थी। फिर भी मैंने सोचा ‘प्रैक्टिस इज सलूशन’। अब बस नोट्स बन रहे थे, मॉक टेस्ट चल रहे थे, उम्र बढ़ रही थी, परेशानियां बढ़ रही थी, लोगों के सवाल बढ़ रहे थे और सर के बाल पाक रहे थे। छोटा भाई अफसर हो चुका था , मेरी हालत ये थी कि मैं उसकी पासिंग आउट परेड में जाने की भी हिम्मत नहीं दिखा पाई क्यूंकि मुझे OTA चेन्नई नहीं मसूरी की तैयारी करनी थी।

एग्जाम के दिन मेरा ब्रेकडाउन हो गया

पूरी मेहनत के बाद वो दिन आया “THE प्रीलिम्स”, और एग्जाम हॉल में मेरा ब्रेकडाउन हो गया। मैं एग्जाम देने अकेले ही गई थी, खुद को संभाल ही नहीं पाई। जैसे-तैसे एग्जाम दिया और वापस। ये सिलसिला 4 साल ऐसा ही चला। पूरा साल खुद को संभालती, मन लगा कर पढ़ती लेकिन एग्जाम के पहले आखिरी दो महीनो में मेरा ब्रेकडाउन हो जाता। आखिरी दो अटेम्पट में तो मुझे ब्रेकडाउन की आदत हो गई थी। इससे पहले कि कोई और मुझसे कुछ कहे, मेरा दिमाग खुद ही मुझे घेर कर चक्रव्यूह में फंसा लेता और इस तरह मेरा एक मात्र सपना चूर-चूर हो गया।

इन सब में आग में घी डालने का काम कोविड-19 माहमारी ने जो किया मैं उसके बारे में नहीं लिखना चाहती। प्रीलिम्स का एग्जाम देने के बाद और आज इस बारे में लिखने के बीच मैंने UPSC के बारे में कुछ नहीं सोचा। न कोई टॉपर वीडियो देखी, न ही फिलहाल चल रहे मेंस के प्रश्नपत्र देखे। बस अब मैं इसे एक बुरे सपने की तरह भूलना चाहती हूं- एक सपना जिसने मुझसे मेरा एक मात्रा सपना छीन लिया। मेरी उम्र, मेरी जवानी छीन ली, मेरा हौसला छीन लिया। मेरी चार साल की मेहनत से कमाया पढ़ाने का हुनर छीन लिया, जिसे मैं ऑप्शन बी की तरह इस्तेमाल करना चाहती थी। मैं लोगो के सामने ये कहने में असमर्थ हूं कि मैंने इतनी किताबे पढ़ी हैं उनकी थ्योरीज़ मुझे मुंह ज़ुबानी याद है।

आओ मुझसे कुछ सीखो क्योंकि आज मुझे लगता है, कोई क्यों ही एक हारे हुए इंसान से जीतने की कुंजी खोजने आएगा। इन सब से उबरने का एक ही तरीका है- ये मान लेना कि जो हो चुका है मैं उसे बदल नहीं सकती। बस खुद को इस तरह तैयार करूं कि आगे आने वाली ज़िंदगी को खुशी से जीने के लायक बन सकूं।

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