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“क्या महिलाएं धारावाहिकों के माध्यम से आवाज़ उठाना सीख पाई हैं?”

भारतीय टेलीवीजन

कहते हैं कि टीवी सीरियल या फिल्म समाज का आईना होते हैं लेकिन इसके साथ ही ये एक आभासी दुनिया भी होती है, जहां हर चीज तथ्यात्मक ना होकर मिथ्या होती है। शुरु से ही महिलाओं को केंद्र में रखकर कई तरह के धारावाहिक बनते आ रहे हैं, जिनमें महिलाओं को कभी वैम्प, चुड़ैल, भूत, घर तोड़ने वाली, सबकुछ सहने वाली आदि की छवि दिखाई जाती है।

हालांकि साथ ही धारावाहिकों में महिलाओं को गलत का विरोध करता भी दिखाया जाता है लेकिन उनका विरोध केवल पर्दे तक ही सीमित होता है, क्योंकि असल ज़िदगी में महिलाएं धारावाहिक भले देख लें लेकिन उन्हें विरोध करने का अधिकार ही नहीं होता, क्योंकि समाज महिलाओं को पर्दे पर विरोध करता भले ही देख ले लेकिन असल जीवन में क्रांतिकारी या विरोधी स्वभाव की महिला का होना समाज सहन नहीं कर पाता है।

महिला पात्र और आभासी दुनिया

इसके अलावा महिलाएं भी अगर किसी पात्र से स्वयं को जोड़कर देखने लगती हैं, तब वह केवल एक आभासी दूनिया होती है, जहां एक महिला उस पात्र द्वारा उठाए गए कदम को सराहती जरुर हैं लेकिन अगर वहीं कदम स्वयं उठाना पड़े तब पीछे हट जाती हैं।

कुछ उदाहरण देखिए

साल 1985 में “रजनी” नाम का एक धारावाहिक लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था, जहां एक महिला ‘रजनी’ बिल्कुल मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है लेकिन उसके स्वर क्रांतिकारी हैं क्योंकि वो हर उस बुराई का विरोध करती है, जो उसकी नज़र में गलत है। उस वक्त हर महिला ने अपनी छवि रजनी के किरदार में देखी थी।

साल 1991 में पी. नरसिम्हा राव की ‘foreign policy reformation’ ने भारतीय बाज़ार को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया। विदेशी पूंजीगत सामान के साथ विदेशों से बहुत सारे टेलीविजन कार्यक्रम भी भारतीय घरों में आने लगे। वैश्वीकरण ने टेलीविजन उद्योग में भी अपनी पैठ बनानी शुरु कर दी। यह भारतीय टेलीविजन का ‘स्वर्ण युग’ था, जो सबसे प्रगतिशील युग था।

साल 1994 में दूरदर्शन पर शुरु हुए सीरियल “शांति-एक औरत की कहानी” शुरु हुआ था, जहां ‘शांति’ नाम की एक महिला पत्रकारिता में अपने कदम रखती है और अपनी मां के साथ हुए रेप का बदला लेती है। महिलाओं का पत्रकारिता में जाना अब भी एक बड़ी चुनौती होती है। ऐसे में 90 के दशक में एक महिला द्वारा पत्रकार का किरदार निभाना समाज के लिए एक बहुत बड़ी चीज थी लेकिन इसे भी समाज ने अंततः स्वीकार किया।

साल 1994 में ही “हसरतें” नाम से चलने वाले धारावाहिक में एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स को बड़े ही बेबाक तरीके से चित्रित किया गया था, ताकि लोगों को एहसास हो कि जब समानता की बातें की जाती हैं, तब उसकी जड़े खोखली ना हो? हालांकि इस धारावाहिक का उद्देश्य बेमेल विवाह के परतों को उजागर करना भी था, क्योंकि शुरु से ही किसी रिश्ते को निभाना का बोझ महिला पर थोपा जाता है।

धारावाहिकों का बदलता ट्रेंड

इन सब धारावाहिकों से महिलाओं ने स्वयं को जोड़ा जरुर लेकिन महिलाएं अपने-आप को विकसित नहीं कर सकीं, ताकि वे भी अपने साथ हो रहे जुर्म का विरोध कर सकें। हालांकि ऐसे कुछ उदाहरण अवश्य हैं, जहां महिलाओं ने विरोध किया और अगर विरोध ना कर सकीं, तो कम से कम उनके सोचने के नज़रिए में ज़रुर बदलाव हुआ।

साल 2000 से धारावाहिकों में एक नया ट्रेंड सामने आया, जहां समाज के सामने भारतीय नारी का चित्रण किया जाने लगा। ताजुब की बात है कि क्रांतिकारी किरदारों के इतर महिलाओं ने इन किरदारों को स्वयं से ना केवल जोड़ा बल्कि इसे अपनी जिंदगी में अपनाया भी।

“क्योंकि सास भी कभी बहू थी” धारावाहिक ने भारतीय समाज में एक सभ्य परिवार और एक सभ्य, संस्कारी महिला की छवि गढ़नी शुरु की, जिसे K-era भी कहा जा सकता है। जैसे- महिलाएं पुरुषों द्वारा किए गए अन्याय का विरोध ना करते हुए, उसे अपनी किस्मत मानकर अपना लेती हैं, अपने परिवार के लिए वे किसी भी तरह का बलिदान देने के लिए तत्पर हो जाती हैं आदि। इसके बाद तो धारावाहिकों ने एक आर्दश नारी की ऐसी तस्वीर गढ़नी शुरु की कि महिलाएं विरोध करना ही भूल गई और उसे नियति मानकर स्वीकार करने लगीं।

क्यों बदला विरोध का तरीका?

यहां तक कि आज तो महिलाओं को इस तरह चित्रित किया जाता है कि उन्हें अपने साथ हुए अन्याय का विरोध करने के लिए मक्खी, सांप बनना पड़ रहा है लेकिन क्यों क्या आज कि महिला अपने हक के लिए लड़ने के काबिल नहीं है? साल 2017 में शुरु हुए “पहरेदार पिया” धारावाहिक में एक 18 वर्षीय महिला को अपने 9 साल के पति का पहरेदार बताया गया था। हालांकि इस धारावाहिक को हर तरफ से आलोचना का सामना करना पड़ा था मगर इस तरह के धारावाहिकों का क्या कोई औचित्य है?

हालांकि, ऐसा कहना अतिशियोक्ति नहीं है कि 80 या 90 के दशक में आने वाले धारावाहिकों में क्रांति के स्वर निहित थे लेकिन बदलते परिवेश के साथ जहां बदलाव होने चाहिए थे, वहां आज भी बदलाव की दरकार है।

आज भी अपने कमरे में बैठकर धारावाहिक देखते समय अगर कोई क्रांतिकारी किरदार महिला देख भी ले, तब भी उसके लिए कदम उठाना आसान नहीं होता। आज धारावाहिकों या फिल्मों ने महिलाओं के साथ होने वाली असमानता को अपने लिए पैसे कमाने का हथियार बना लिया है, जबकि असल बात यह है कि महिलाएं आज भी कई मामलों पर आवाज़ नहीं उठा पाती और केवल आभासी दुनिया में स्वयं को क्रांतिकारी मान लेती हैं। 

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