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देख इस ‘प्रकृति’ की ओर

कितना खूबसूरत है ये पल,

बस ज़रा सा मुड़ के देख।

मज़ा इसी पल में है,

ज़रा नजरें बदल के देख।

देख इस प्रकृति की ओर,

जिसने थामें रखी है

तेरी सांसों की डोर

इन्हीं वृक्षों का फल, तूने खूब खाया।

इनकी मेहनत का मुआवजा,

तूने पूरा उठाया।

क्या सोचा कभी –

इतनी घनी छाया, ये तुझको क्यूं दे पाते?

ज़मीन पर रह कर भी, कैसे ये अंबर छू जाते।

अगर ना की होती, मेहनत इतनी कड़ी!

तेरी ही तरह जी रहे होते,

दूसरों के सहारे, हर घड़ी।

तो सोच आज तू कहां होता,

अरे जीना छोड़, क्या जन्म भी ले पाता?

लाख ज़माना बीत गया,

प्रकृति का हर एक शख्स-

अपना फर्ज़ अदा कर गया।

मंजिल की फ़िक्र ना कर ए मुसाफिर,

वक्त के साथ वो भी मिल जाती है!

पर ये पल जो बीत गया सो कहां वापस आती है।

प्रकृति की सीख को,

अपने जीवन में उतारना है!

परिणाम चाहे जो हो,

बस चलते चले जाना है!

चलते चले जाना है।

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