छोटी-सी गठरी,हाथ में कटोरा
सिर पर पल्लू का बोझ संभाले
शक्तिहीन खुद भी और वैसी ही लंबी लाठी
बिल्कुल उसी तरह उसकी भी कद-काठी
बिल्कुल उसी तरह उसकी भी कद-काठी!
पैरों में गिलठ (लौहा) की पायल
सफेद बाल,झीनी-उजली धोती पहने
झुर्रियों के बीच,चमकती आंखें
और बड़ी बेरहमी से बंधे हुए बाल
चल पड़ी है सुबह-सुबह
नहीं, भीख मांगने तो नही
अपना हक जताने, सब पर
आखिर पैसे उसको मुफ्त में तो नही मिलते न!
बदले में दुआओं से भरे आशीष तो मिलते ही है न?
दुआओं का पिटारा भर कर लाती है वो
जाने कहां से?
लगता है दूत होगी देवों की मगर इस अवस्था में क्यों?
फिर याद आती है गुरुदेव की वह कविता
लिखा था उसमें,
ईश्वर मंदिरों में नही, मजबूरों और मज़दूरों के,
दूतों के,वेश में उपस्थित होते हैं
हर जगह, हर समय जहां उनकी ज़रूरत हो!
और फिर दुआएं हर कोई तो नही दे सकता न?
वास्तविकता में होती होगी कोई दैवीय शक्ति उनके भीतर
जिनके आशीष में अपनापन होता है
मेरे मन का विप्लव! निराश करता है
क्या उत्तर दूं उन्हे?
पैसे निकल कर दे देती हूं एका-एक
पर पैसे देते ही अनायास उनके मुख से सुनकर अच्छा लगता है
खुश रहो बिटिया रानी!
आखिर चलती-फिरती दुनियां में,इतना वक्त किसके पास है?
जो अपनी नहीं, आपकी खुशियों में खुश रहना जानता है।
अबकी बार से,खिड़कियां बंद मत करना,
मुंह मत फेर लेना क्या पता वो मिल जाए? जिसकी कीमत चंद रुपयों से भी अधिक हो!
चलते-चलते रुक जाना अगर वो बुलाए तो,
हां! मदद करना उसकी
नहीं, मुफ्त में नहीं, दुआओं के बदले
पैसे न सही, कैसे भी मना लेना
उन्हे उन दुआओं के लिए या ना सही
इंसान ही समझकर,कर देना मदद
इंसानियत के नाते!