इतिहास को वर्तमान की आलोचना करना ठीक उस तरह आता है, जिस तरह वर्तमान के बच्चों को भविष्य की कल्पित कल्पनाएं करना आता है। इन कल्पनाओं पर उन चीज़ों का ज़िक्र है, जिनको देखते वक़्त उनकी नज़रों को आराम की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह उनके अरमान होते हैं जो आराईश ढंग से उनकी आरज़ू की लाइनों मे सबसे आगे खड़े होकर उस टिकट का इंतज़ार करते हैं, जो उनके अरमानों को सड़क पर चलाएगी, पटरी पर दौड़ाएगी और हवा में उड़ाएगी।
बच्चे महल की ईंट बनाएं
सपनों के आलीशान महल पर बेबाक होकर रहने की ज़िद स्कूल में आकर इंतज़ार में बदल जाती है। स्कूल बच्चों को इस लायक बनाने की कोशिश करता है की बच्चे उन ईंटों को ख़रीद पाएं और इस क़ाबिल बन जाए की उन ईंटों से महल बनाने की शुरुआत कर दें। दीवार पत्रिका से मुझे वह रोशनी आती दिखाई दे रही है जो बच्चों को ईंटें खरीदने से मना कर रही है और इस कोशिश में है कि बच्चे अपने महल की हर ईंट खुद ही बनाए। इन प्रक्रियाओं में बच्चे सोचने लगे हैं और अपने मन चाहे शब्दों में वाक्य बनाकर अर्थ बताने लगे हैं। इन शब्दों, अर्थों और वाक्यों को बिना किसी दिक़्कत के अपने पास संभालने का काम दीवार पत्रिका कर रही है।
कुछ दिन पहले रविवार था। बच्चों के अंदर स्कूल आने की इच्छा को उनकी दीवार पत्रिका को तैयार करने की इच्छा ने जन्म दिया इसलिए क्योंकि इस पत्रिका को तैयार करने की प्रक्रिया पिछले एक हफ़्ते से बरकरार थी और इस प्रक्रिया को कायम रखने के लिए उन्होंने स्कूल आना बेहतर समझा। यह रविवार इन नन्हें कातिबों के नाम बुक था। किसी अन्य व्यक्ति के हमारे काम पर विचार उस काम को और बेहतर बनाने के साथ – साथ हमें भी बेहतर बनाते हैं। यह बात मैंने अपने ही साथियों के साथ काम करते वक्त अनुभव की है। उस रविवार भी कुछ ऐसा ही हुआ।
पत्रिका को बेहतर बनाने में सहयोग
हम ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा वालों को सभी के पास भेजा गया और सभी लेखकों के साथ सीखने – सिखाने की प्रक्रियाओं में शामिल किया गया। हमें उनकी पत्रिका की प्रगति पर विचार करने का मौका मिला और पत्रिका को बेहतर बनाने की बात एक दूसरे के सहयोग से आगे भी बड़ी।
बच्चों की बातों से यह बात साफ़ झलक रहा था कि उन्हें अपनी रचनाओं को इतना बेहतर बनाना है की उसके बाद वह रचना और बेहतर न बन सके। यानी परफेक्ट बनाना है ! लेकिन ऐसा संभव नहीं। मुझे लगता है, हर बेहतर चीज़ को बेहतर बनाया जा सकता है लेकिन परफेक्ट नहीं।
लिखने की रूचि अपने भीतर पैदा करने की शुरुआत में ऐसे विचारों का सामने आना वाज़िब और क़ुदरती है। भले ही इन नन्हें लेखकों ने लिखने का मन अपने सीनियर बच्चों को देखकर बनाया है, लेकिन लिखकर व्यक्त करने की समझ और शब्दों के साथ खेलने की तकनीक बिठाने के लिए उन्हें इस तरह से सीखने सिखाने (दीवार पत्रिका) की प्रक्रियाओं में लगातार सक्रिय और चौकस रहना पड़ेगा जो अच्छा ख़ासा समय मांगता है।
कलम पकड़ने के लिए ज़रूरी
‘थ्योरी ऑफ़ एवेल्यूशन’ की एक बात जहां तक मुझे याद है, वह कहती है, इंसान और चिम्पांज़ी दोनों की संरचना में कोई ज्यादा फ़र्क नहीं है लेकिन जितना भी अंतर है वो इंसान को उनके वानर – पूर्वजों से अलग करता है। अगर एक अंतर बताऊं तो इंसान अपना अंगूठा और तर्जनी एक साथ मिला सकता है, जो एक वानर कतई नहीं कर सकता।
लाखों सालों के एवेल्यूशन और मानव विकास से लेकर सामाजिक विकास के बाद हम यह तरक़ीब सीख पाएं हैं। यह मिलन क्यों जरुरी है? इसका जवाब मुझे मेरे लेखों ने दे दिया है। जब तक हम अंगूठा और तर्जनी को नहीं मिला सकते तब तक हम कलम पकड़ने की शक्ति से अंजान रहेंगे। कलम नहीं पकड़ेंगे तो शब्दों को नहीं पकड़ पाएंगे और बिना शब्दों के हम अजनबी हो जाएंगे, साथ – साथ इस दुनियां में अकेले रह जाएंगे।
अकेले ना रहना इस समाज का उसूल है। दीवार पत्रिका ने इस उसूल को स्थिर रखने के लिए स्कूल में मज़बूत स्तंभों का काम किया है और अभी भी बरकरार है।
दीवार पत्रिका और कक्षा आठ
इस बार कक्षा आठवीं की दीवार पत्रिका ‘सपनों की उड़ान’ इतिहास के नज़दीक घूम रही है। यानी इस पत्रिका की थीम है की बच्चे अपने आसपास, अतीत से लेकर अब तक हुए बदलाव को अपने परिवार या किसी बड़े से बात करके पहचानेंगे और उसे लेख का रूप देंगे। इस पत्रिका का मक़सद लिखने और विचार करने की गति को बढ़ावा देने के साथ – साथ परिवार या बड़ों के प्रति सहानुभूति को जगाना भी है।
अवलोकन करने, विचार करने और लिखने जैसी कौशल के बिना दीवार पत्रिका जैसी सीखने – सिखाने की प्रणाली पर काम करना किसी कलम पर स्याही की जगह पानी भरकर लिखने जैसा है। लेकिन बच्चों के अंदर यह योग्यता साफ़ झलकती है जो कुदरती और पैदाइशी है।
बच्चों के साथ काम करते वक़्त मैंने पाया की किसी के पास पेन की कमी नहीं थी, कॉपी की कमी नहीं थी और ना ही किसी के पास विचारों की कमी थी। कमी थी तो सिर्फ ‘शब्दों’ की।
कहां से आएंगे शब्द?
शब्दों को कमाकर ही हम अपनी पत्रिका के लेखों पर वृद्धि देख सकते हैं। इस वृद्धि को नज़रों को सामने लाने के लिए ‘किताबों’ की आदत को अपनाना पड़ेगा। मुझे भी डर है, अगर मेरे सारे शब्द ख़त्म हो गए तो मेरे नए लेख भी पुराने हो जाएंगे, कलम थम जाने का डर बन जाएगा। किताबों का जंगल है हमारे आस-पास। बिना नक़्शे के उस जंगल में घुसना उतना आसान नहीं हैं जितना जंगल को देखते ही वापस लौट जाना है लेकिन घुसना तो पड़ेगा क्योंकि लिखने की चाह को जो जन्म दिया है। कौन से पत्थर से रास्ता पूछे, किस पेड़ की छांव में बैठकर प्रेरणा लें, यह सभी हम लेखकों को तय करना है लेकिन जंगल से निकलने के बाद नक्शा बनाना ना भूलना। क्या पता यह नक्शा किसी और की मदद कर दे।
पिछले कुछ दिनों से जब भी मैं अपने स्कूल के अंदर पहुंच रहा हूं, तो दीवारों पर आराइश ढंग से लगी अलग – अलग कक्षाओं की पत्रिकाएं मेरा स्वागत करती हैं। आमतौर पर स्कूलों की पहचान उसके नाम के साथ रंग से भी होती है, जिसमें स्कूल की दीवारों के ऊपरी हिस्से पर कोई एक हल्का रंग लगाया जाता है और दीवारों के निचले हिस्से में कोई गहरा रंग लगाया जाता है, तब जाकर एक स्कूल की दीवार पूरी तरह तैयार होती है लेकिन सीखने के विभिन्न परीक्षणों ने हमारी स्कूल की दीवारों को बच्चों की रचनाओं से भर दिया है। अब स्कूल की पहचान इन रचनाओं से होने लगी है।
पहिया पत्रिका और कक्षा बाहरवी
‘पहिया’ कक्षा बारहवीं की पत्रिका। ‘नई पहल’ ग्यारहवीं कक्षा की पत्रिका। इसी तरह दसवीं की पत्रिका ‘अनोखी खिड़की’ है और ‘सीखने के हमराही’ कक्षा नवीं की पत्रिका है। सीखने की इस बढ़ती प्रक्रिया में यह देखना सामान्य है की पत्रिकाएं भी प्रजनन कर रही हैं, क्योंकि बच्चे सिर्फ सीख नहीं रहे बल्कि सिखा भी रहें हैं। विद्यार्थियों (स्टूडेंट्स) से शिक्षार्थी (लर्नर्स) बनने का सफर यहीं पर नहीं रुकता बल्कि यह कारवां आगे बढ़ता ही जा रहा है। आज हमारे जूनियर साथी भी इन प्रक्रियाओं को सीखने का ज़रिया बताने लगे हैं। कक्षा आठवीं की पत्रिका ‘सपनों की उड़ान’ कुछ ही दिन पहले निकली है।
साथ – साथ कक्षा सातवीं की पत्रिकाएं ‘नन्हें कदम’ और ‘पहली शुरुआत’ के विमोचन को भी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ। सम्मोहित करने वाली बात तो यह है की कक्षा दूसरी के साथी भी अपनी रचनाओं को जगह देने की कोशिश में हैं। अपने शिक्षकों की मदद से वह भी इस कारवां को आगे बढ़ाने में लगे हैं।
जब तक शिक्षा की कोई निर्धारित परिभाषा रहेगी तब तक उस शिक्षा प्रणाली में भाग लेते बच्चे भी सीमित रहेंगे। अगर शिक्षा बच्चों को शिक्षित करने के लिए है तो बच्चों के पास इतना हक़ है की उस शिक्षा को वह खुद डिज़ाइन करें और उसका अमल करें।
जब मैं कक्षा आठवीं में था तब मेरी थोड़ी बहुत समझदारी कहती थी की नंबर लाना शिक्षा नहीं है। जब मैं नवीं में था तब मुझे लगता था अपने आईडियास को प्रस्तुत करना शिक्षा है। जब मैं दसवीं में आया तब लगा शिक्षा हमारे आस-पास के बारे में जानना है। वर्तमान में मैं ग्यारहवीं मे हूं और मेरा मानना है शिक्षा वह है जो शिक्षा हासिल करने वाले सीखना चाहते हैं।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले के शैक्षिक कार्यकर्ता महेश चंद्र पुनेठा साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले शिक्षक हैं। महेश सर ने लगभग तीन साल पहले हमारे स्कूल (नानकमत्ता पब्लिक स्कूल) में दीवार पत्रिका के बीज उगाए थे। आज यह पेड़ इतना बड़ा हो चुका है कि इसकी टहनियां लगभग हर क्लास में पहुंच चुकी है।
हर महीने इन डालियों से बीज कक्षाओं में गिरते हैं। इन बीजों की विरासत में मिली गुणवत्ता यह है कि इन बीजों को अकेले नहीं लगाया जा सकता। इसलिए जब कक्षा के ज्यादातर बच्चे इन बीजों को उगाने को तैयार हो जातें हैं और लगाने के बाद उन बीजों को समय-समय पर मिलकर बीजों को पानी देते हैं तब एक नया पौधा जन्म लेता है। इसी तरह पिछले कुछ सालों से स्कूल हरा भरा हो चुका है। सीखने के साथ सिखाने की इच्छाओं से भरे हरे पत्ते भी जन्म लेने लगे हैं। उम्मीद है एक दिन स्कूल बच्चों की रचनाओं से भरा जंगल बन जाए।