कहते हैं, शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट बनाती है,और सम्पूर्ण शक्ति की लालसा पूर्ण रूपेण भ्रष्ट बनाती है। कुछ ऐसा ही परिस्थिति विश्व राजनीति की बनती जा रही है, एक राष्ट्र का चरित्र मानव स्वभाव से मिलता है जो उसे लालच (self intrest) की चरम पर ले जाता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह स्वाभाविक रूप से घटित होता है परंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात या यूं कहें 21वी सदी की यह एक बड़ी घटना के रूप में विश्व समुदाय के समक्ष उत्पन्न हुआ है/किया गया है जिससे पूरा विश्व लगभग ठहर सा गया है,उद्योग-धंधे ठप्प है,लोग घरों में बंद हैं।मानो पूरी धरती पर ताला लगा हुआ है। चीन ने जंहा एक राष्ट्र शक्तिशाली बनने की होड़ में सम्पूर्ण मानव जाति को संकट में डाल दिया है। चीन से पनपा यह मनावघाती विषाणु (COVID-19) सम्पूर्ण विश्व मे फैल कर तांडव कर रहा है।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात विश्व राजनीति द्विध्रुवीय कहा जाने लगा जिसमे रूसी साम्यवादी विचारधारा और अमेरिका के पूंजीवादी विचारधारा के मध्य संघर्ष होता रहा। तदुपरांत 1990 के दशक के अंत तक सोवियत संघ का विघटन हो गया। निश्चय ही यह घटना विश्व राजनीति की दशा एवम दिशा में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया।
सोवियत संघ के विघटन के पश्चात, विश्व राजनीति की संरचना एकध्रुवीय बन गई जिसमें अमेरिका एकमात्र शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा । शक्तिशाली राष्ट्र से तात्पर्य यह है कि अमेरिका विश्व पटल पर राजनैतिक, आर्थिक, सैन्य एवम तकनीकी शक्ति के रूप में उभरा। अब अमेरिका ही एकमात्र ऐसा राष्ट्र था जो वैश्विक मानक (global order) को निर्धारित कर रहा था। मुद्दा चाहे संयुक्त राष्ट्र के निर्णय को प्रभावित करने का हो या वैश्विक आतंकवाद का हो, या वाणिज्य/व्यापार के एकाधिकार का या फिर साइबर /तकनीकी एकाधिकार का ,अब अमेरिका ही निर्णायक भूमिका में था। अमेरिका ने अपनी पूंजीवादी विचारधारा विश्व के देशों पर थोपा है या यह कह सकते है कि उपलब्ध विकल्प को वैश्विक मान्यता मिल गई इस प्रकार पूंजीवाद, भूमंडलीकरण के रथ पर सवार होकर निकल पड़ा।
लगभग तीस वर्षों के लंबे समय के अंतराल के मध्य विश्व परिदृश्य में बहुध्रुवीय शक्ति संरचना ( multi polar global order)का निर्माण चीन,भारत,ब्राजील रूस तथा अन्य ( regional power) आर्थिक क्षेत्रीय गुटों का उदय हुआ।
इसी बीच चीन अपनी आर्थिक उन्नति के रास्ते खोज निकले। इसने विचारहीन (चीन ने न तो अपनी विचारधारा का प्रचार किया न ही उसे अबतक थोप है,बल्कि इसे आलोचना ही झेलना पड़ा है) खोखला मार्ग अपनाया जिसके ऊपरी सतह मजबूत चीनी साम्यवादी आवरण बना कर रखा तथा आंतरिक आवरण के रूप में मुक्त व्यापार का मार्ग चुना जिससे उसकी विश्व बाजार तक पहुंच सरल हो जाये। शी-जिनपिंग के शासन में आने से चीनी सेना के आधुनिकीकरण को प्रायोजित बल मिला ओर चीनी सेना ने समुद्र में भी विस्तारवादी नीति अपनाना शुरू कर दिया। प्रायः चीन पर अमेरिकी तकनीक की नकल करने के आरोप लगते रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2015 के संयुक्त राष्ट्र के बैठक के उपरांत एक मुलाकात में ओबामा से जिनपिंग ने साफ तौर पर कह दिया कि अब हम बराबर के व्यापारिक साझेदार है।( now we are equal partner in trade) इससे यह स्पष्ट होता है कि अमेरिका से आगे निकलने की सुगबुगाहट चीन ने पहले से पाल रखा था। चीन की यह स्थिर एवम शांत प्रवृति उसे कई वैश्विक समस्याओं से दूर रखा, वहीं उसे आंतरिक इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, आर्थिक उन्नति, सैन्य आधुनिकीकरण एवम तकनीकी रूप से मजबूत होने का पर्याप्त समय मिल गया। साथ ही चीन ने अपने आर्थिक प्रभाव(economic power) के बूते अफ्रीकी देशों तथा अन्य विकासशील देशों को debt trap के चंगुल में फसा रहा है
2016 में, ट्रम्प के शासन में आने से अमेरिकी नीतियों में अत्यधिक उग्रता आयी। ट्रम्प राजनीतिकरूप से चीन के खिलाफ उग्र बयानबाजी करता रहा। चीन से अमेरिका का व्यापार घाटे का मुद्दा हर मंच पर उठता रहा है अंततः परिणामस्वरूप अमेरिका-चीन के बीच वाणिज्यिक युद्ध 2017 से परिलक्षित होने लगा। 2017-2020 के काल मे चीन-अमेरिका के मध्य वाणिज्यिक युद्ध चरमोत्कर्ष पर पंहुच गया। उधर अमेरिकी संसद ने ( CAATSA : Countering America’s Adversary Through Sanction Act.) पास कर अपने सहयोगियों पर अमेरिका के घुर-विरोधी राष्ट्र से सम्बंध तोड़ने, वाणिज्य/व्यापार बंद करने का दबाब बनाया। जिसके परिणाम स्वरूप भारत -ईरान समेत कई देशों को आर्थिक-राजनीतिक हानि उठानी पड़ी। अमेरिका कहने को तो सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है परन्तु अंतरराष्ट्रीय सिस्टम (international system) में उसकी भूमिका तानाशाह जैसी ही रही है।
चीन इसी बीच अपनी आर्थिक एवं भूराजनीतिक विस्तार की नीति को अपना कर one belt, one route जो कि चीन की महत्वाकांक्षी योजना रही है ,के माध्यम से अपने हित को साधने के प्रयास में लगा रहा। चीन ने अपने उद्योग को वैशविक पैमाने पर उत्पादन करने लायक पहले से बना रखा था। इस योजना का दो मकसद प्रतीत होता है:प्रथम, पश्चिमी/ यूरोपीय देशों तक पहुंच बनाने,अपने सामान को इनके बाजारों में पहुंचना,संभवतः वायरस का वाहक यही रूट रहा है। दूसरी, जब वायरस से कहर से समुची दुनिया पस्त हो उस समय तीव्र गति से चीनी उद्योग में उत्पादन कर विश्व के तात्कालिक मांग को पूरी करना।
विषाणु का हमला ही एक मात्र वह माध्यम है, जिससे चीन अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकता है और पश्चिमी देशों के सैन्य कार्रवाई विशेष कर अमेरिका के द्वारा कार्रवाई से बच सकता है क्यंकि सैन्य शक्ति के मामले में चीन अमेरिका के समक्ष कंही नही टिकता।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दक्षिण कोरिया, इटली इत्यादि देशों में विषाणु का वाहक महिला ही रही है जो कि हजारों को अपने संक्रमण का शिकार बनाया,जैसा कि चाणक्य ने भी अपनी नीतिशास्त्र में इसका वर्णन किया है कि शत्रु राष्ट्र को परास्त करने के लिए विषकन्याओं का भी सहारा लिया जा सकता है यंहा चीन ने विषाणु कन्याओं का सहारा लिया है।
अमेरिका और पश्चिमी देशों को तबाह करने के साथ ही,चीन ने पूरे विश्व की आर्थिक एवम मानव पूंजी (economic and human capital)को ही तबाह करने की धृष्ठता दिखाई है। इन दोनों पर हमला करके किसी भी देश को कमजोर किया जा सकता है। चाणक्य भी कहते हैं- military is the born child of treasurey.
संभव है, विषाणु का प्रभाव पश्चिमी देशों की तुलना में अन्य देशों पर निम्न से मध्यम स्तर का ही रहे क्योंकि विश्व के अन्य देश अमेरिकी पूंजीवाद के तो केवल मात्र वाहक ही रहा है।
हालांकि, पश्चिमी देशों से चीन पर आर्थिक दंड लगाने का स्वर उठने लगे है।अब देखना है कि ठहरा हुआ विश्व राजनीति हमे प्रथम विश्व युध्द की ओर तो नही ले जाएगा (क्योंकि जर्मनी की अति महत्वाकांक्षा के कारण ही प्रथम विश्व युद्ध के बीज पनपा था और जर्मनी पर आरोपित आर्थिक दंड और अपमान ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज बोये थे।)
चीन-अमेरिका किस प्रकार रियेक्ट करता है, विश्व की राजनीति उस पर निर्भर करेगा।