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सिनेमा सिर्फ दर्शकों से नहीं, बल्कि पूरे समाज से संवाद करता है

फिल्मों की बात

फिल्मों के माध्यम से किया गया संचार अत्यंत प्रभावित करता है। शब्द एवं विजुअल्स के साथ सिनेमा अदभुत प्रभाव रचता है। फिल्में सुनाकर-दिखाकर संवाद करती हैं। संवाद स्थापित करना उनका पहला काम होता है।

कैसे होता है ये काम?

फिल्में दो स्तर पर यह करती हैं। पहले वो दर्शकों से संवाद करती हैं, दूसरे स्तर पर वो समाज से संवाद करती हैं। सिनेमा आइसोलेशन में नहीं हो सकता।

उसका किसी ना किसी समाज से वास्ता होता है। कथन एवम किरदारो के चयन एवम संरचना से यह बातें स्थापित होती हैं। हर दर्शक अपने हिसाब से फिल्मों से इन चीज़ों को ग्रहण करता है। इस तरह उसकी जीने एवम सोचने के तरीके पर प्रभाव पड़ता है। टेलीविजन ने सिनेमा के प्रचार प्रसार को विस्तार ही दिया। उसे नुकसान नही हुआ।

टीवी के आने से फिल्मों के निमार्ण एवम मार्केटिंग का नया ढांचा कायम हुआ। वे पहले से कहीं ज़्यादा पॉपुलर साबित होने लगीं। आज का दौर सोशल मीडिया का है। सोशल मिडिया से आदमी ज़िंदगी के समतुल्य जुड़ा हुआ है। बहुत गहरे जुड़ा हुआ है। आदत बन चुका है सोशल मिडिया हमारी। सिनेमा ने भी इस माध्यम का ज़ोरदार इस्तेमाल किया है और कर रही है।

फिल्म और सिनेमा

एक फिल्म का दृश्य।

किसी फिल्म को याद रखना हो, तो उसके सीन को याद रख लेना चाहिए। दमदार हो तो खुद याद रह भी जाता है। भविष्य में उस चीज़ की तरफ लौटना आसान होता है । बहुत जल्दी में फिल्मों पर वैसे भी नहीं लिखना चाहिए। क्योंकि फिर चीजें सार्थक नहीं हो पाती। यूं भी किसी भी माध्यम का गंभीर अध्ययन करने के बाद ही उस बात करनी चाहिए। फिल्म निर्माण में कई परतें शामिल होती हैं, सभी चीज़ों को समझ कर उसके बारे अपनी जानकारी को पुष्ट करना चाहिए। हर गंभीर दर्शक फिल्म का सच्चा आलोचक भी होता है।

हालांकि पब्लिक डोमेन में आने बाद उन पर हर कोई राय देने को स्वतंत्र होता है और केवल गंभीर दर्शक ही क्यों। फिल्में मनोरंजन के उद्देश्य से भी देखी जाती हैं। सिर्फ़ मनोरंजन मसाला के लिए सिनेमा का रुख करने वाले लोग हालांकि हर चीज को कुबूल नहीं कर लेते। बहुत सी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर भी जाती हैं।

फिल्म से सिनेमा का एक खूबसूरत रिश्ता होता है। सिनेमा को फिल्मों का परिवार कहें तो गलत नहीं होगा। एक फिल्म को उसके किस्म की दूसरी फिल्मों से जोड़कर अर्थात उस सिनेमा से जोड़ कर ही अच्छा अध्ययन कहा जाएगा। साथ ही आप यह भी देखें कि फिल्म का सीन व संवाद से भी एक नाता तो है। दो सामानांतर को एक-दूसरे के लिए इस तरह जुड़े हुए देखना तकनीक के कमाल को बताता है।

वेबसीरीज़ और सिनेमा घर की दीवानगी

 कितनी भी वेबसीरीज़ आ गईं हों लेकिन सिनेमाघरों की दीवानगी को कोई खत्म नहीं कर पाई। कोविड काल के बाद रिलीज़ हुई फिल्मों में उमड़ी भीड़ इस बात को प्रमाणित करती है। कोविड काल के बाद रिलीज़ हुई फिल्मों पर दर्शकों ने खूब प्यार लुटाया। दर्शक सिनेमाघरों की तरफ लौटकर सहज था। कई फिल्मों ने ज़बरदस्त कारोबार किया। कोविड काल से पहले का सिनेमा भी लोकप्रिय था। सिनेमा एवं लोकप्रियता को एक ही रेखा में देखा जाना चाहिए।

गोल्डन सिनेमा अथवा फिल्मों के स्वर्णिम काल का का एक भी पन्ना खो जाए अर्थात फिल्म का प्रिंट नष्ट हो जाए, तो दुख होता है। पुराने से पुराने प्रिंट को संभालकर रखना, किसी ज़िन्दा दास्तां को संभालकर रखने के बराबर होता है। फिल्म अभिलेखागार यही काम करते हैं। तकनीक ने अब कंटेंट से रिश्ता थोड़ा बदल दिया है लेकिन उससे संरक्षण की आदत खत्म नहीं हुई और शायद यही वजह रही कि फिल्मों को किताब की शक्ल में लाने के बारे में सोचा जाने लगा। किताबों का फिल्मी रूपांतरण तो होता ही था, फिल्मों को भी किताब का रूप दिया जाने लगा है। 

जिस किसी रूप में हो बेहतर सिनेमा हमेशा एक संदेश देता है, उसका संदेश विषयवस्तु एवं जॉनर पर निर्भर करता है। सर्वकालिक अथवा यूनिवर्सल बातें उस मेसेज में तलाश की जाती हैं। कुछ अलग किस्म का माध्यम होता है सिनेमा भी।

सिनेमा और हमारी सीख

प्रतीतात्मक तस्वीर।

प्यार सिखाना तो समझा जा सकता है लेकिन नफरत भी? जोड़ना भला होता है, फिर उसी को तोड़ने की बातें? एक जोड़ रही है, तो दूसरी मोड़ रही है। कोई किसी को महान बताती हैं, तो कोई किसी को एकदम निचले दर्जे का। ठहर कर सोंचेंग तो समझ आएगा सिनेमा से अधिक उसे लिखने वाला, प्रसार करने वाला, बनाने वाला यानि उसके पीछे की ताकतें प्रभाव का खाका निर्मित करती हैं। मतलब सिनेमा दर्शक अथवा जिज्ञासु को वही रौशनी या राह देता है, जिस कामना से वह उसका चुनाव करता है।

कबीर की साखियां, ग़ालिब की गज़लें और मीर के दीवान सब भी तो यहीं पड़े हैं। 

सिनेमा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा पटकथा होती है। कथा-पटकथा के साथ जीना किरदारों के साथ जीना है। बस सिनेमा का तलबगार तय करे कि माध्यम से क्या चाहिए? क्या उसकी रूचि कहती है? खोज करेंगे नगमा मिलेगा, किस्सा-कहानी, कलाकारों, फनकारों की एक दुनिया मिलेगी।

लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या फिल्म जैसी बनी उसे दूसरे तरीके से भी बनाया जा सकता था? तकदीर बदली जा सकती थी? दूसरा रुख ले सकती थी? बहुत सी सफल एवम असफल पटकथाओं से गुज़र कर, उसे देखकर तब्दील करने का मन भी होता है। शायद विजुअल्स की जीत इसे ही कहना चाहिए, रचनाशीलता की विजय इसे ही कहना चाहिए। फिल्मों की रिमेक में फिल्मकार को बहुत सी आज़ादी मिलती है, किंतु चेक प्वाइंट यह कि सवाल कर लेना चाहिए कि बदलाव, जो करने जा रहें हैं क्या वो अनिवार्य है? क्योंकि माध्यम दर्शकों को थोड़ा प्यासा छोड़ दे, तो रचनाशीलता का आधार बनता है। 

कथा, पटकथा और किरदार

कथा पटकथा का किरदारों से एवं कलाकारों से एक वास्ता होता है। बहुत बार उसमें अपनी ही कहानी नज़र आती है, उसकी आदतों में लोग खुद का अक्स तलाश लेते हैं। स्टार सिस्टम और फैन फॉलोइंग यहीं से आकार लेती है। यूं तो हर रोज़ ही एक कहानी घट रही है इसलिए सृजन के क्षेत्र में चयन का बहुत महत्व है। फिल्म से गुज़रते हुए हम उन घटनाओं के समक्ष रहते हैं, जो किसी ने देखी थीं। देर से ही सही विजुअल्स के माध्यम से दर्शक भी उसको देख पाता है यानि अनदेखी-अनजान दुनिया से भी रूबरू कराने में सिनेमा कमाल है।  

फिल्म फेस्टिवलस सिनेमा को दुनिया के कोने कोने में पहुंचाने का अभियान होते हैं। हर किस्म के सिनेमा से रूबरू कराने का माध्यम होते हैं। कई तरह की फिल्मों या कहें, कई किस्म के सिनेमा से एक ही जगह मिलने के लिए फिल्म फेस्टिवल्स फिल्म समारोहों की तामीर रखी गई थी। फिल्मों से संबंधित आयोजन दुनिया भर में होते हैं। फिल्म समारोह सिनेमा के प्रचार प्रसार का एक ग्लोबल माध्यम है।

सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं सृजन भी

देश विदेश के कई शहरों में फिल्म फेस्टिवल्स होते हैं। अपनी पसंद का सिनेमा यहां सुगम तरीके से ढूंढा जा सकता है। तलाश करना एक जिज्ञासु का काम होता है। फिल्मों के मेले में आने वालों को यह मेला उनसे जुड़े बहुत से तथ्यों से भी रूबरु करवा देता है। आजकल, फिल्म फेस्टिवल लोकल एवं ग्लोबल स्तर का होता है। फिल्म माध्यम से जुड़े कई समर्थवान लोगों के लिए फिल्म समारोह, अपने काम को मंच दिलाने का सुंदर आयोजन है, जो कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक मूवमेंट का रूप लेकर हमसे बेहद करीब हो चुका है। जिस आदमी ने कभी फिल्में ना देखी हों, उसे भी इस धारा का साझेदार बनाने में इस किस्म के आयोजन सफल हो सकते हैं।

फिल्मों के दीवानों के लिए तो यहां, हर रोज़ नया सवेरा होता है। कलाकारों, फिल्मकारों से फिल्मों पर संवाद करने का अवसर अंततः उत्सुकता को शांत करता है। वहीं, सिनेमा के मेले को केवल पब्लिसिटी का पैरोकार नहीं मानना चाहिए, क्योंकि यह उसे देखने का गलत नज़रिया होगा, क्योंकि सृजन! संवाद और रचनात्मकता का अद्वितीय माहौल गढ़ता है। हर फिल्म समारोह स्वयं में अनूठा होता है और साल-दर-साल उसी कौतूहल को रचकर अमिट ब्रांड बन जाता है। फनकारों और दर्शकों को, उनकी उत्सुकता के चरम तक पहुंचाने का एक सम्मानित प्लेटफार्म फिल्म फेस्टिवल्स हैं।

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