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“क्या भारतीय राजनीति में महिलाओं के सम्मान के लिए जगह है?”

सोनिया गाँधी, द्रोपदी मुर्मू

कॉंग्रेस अध्यक्ष और राष्ट्रपति

कॉंग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी द्वारा राष्ट्रपति को राष्ट्र्पत्नी संबोधित करने के बाद संसद के दोनों सदनों में बवाल हो गया। बीजेपी नेता स्मृति ईरानी ने अधीर रंजन समेत सोनिया गांधी को भी मामले में घेरते हुए माफी मांगने को कहा। कॉंग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने बंगाला-हिंदी भाषा के लिंग-बोध में अंतर के नादानी से राष्ट्रपत्नी कहा या जान-बूझकर कहा? इसके बारे में कई तरह की बाते कही जा रही हैं, परंतु, भारत में तमाम संवैधानिक पद का संबोधन जेंडर भेदभाव को बढ़ावा देने वाले नहीं होने चाहिए। इस विषय पर किसी उचित परिणाम तक पहुंचने का सही वक्त आ गया है।

राष्ट्रपत्नी शब्द विवाद नया नहीं है

इंदिरा गांधी जब भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री हुईं, तो साप्ताहिंक हिंदुस्तान में वरिष्ठ पत्रकार बांके बिहारी भटनागर ने इंदिरा गांधी के लिए प्रधानमंत्रिणी शब्द का प्रयोग किया और बाकी समाचार पत्रों को भी इस्तेमाल करने की नसीहतें दी। उसी चलन में डॉक्टर-डॉक्टरनी, संपादक-संपादिका, मास्टर-मास्टरनी और नौकर-नौकरानी जैसे शब्द सामने आए। 

देश की प्रथम व्यक्ति का संबोधन राष्ट्रपति हो या जेंडर के हिंसाब से, इसमें बदलाव होना चाहिए। राष्ट्रपति अगर महिला हो तो उन्हें कैसे संबोधित किया जाना चाहिए? इस विषय पर पहले, जब प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनी थीं, तब भी राष्ट्रपत्नी शब्द को उठाया गया था। उस वक्त सुझावों में राष्ट्र्रमाता शब्द भी सामने आया था, तब कई महिला कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया और पितृसत्तात्मक सोच और लिंग भेद को बढ़ावा मिलेगा, कहा गया था।

शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने राष्ट्राध्यक्ष कहे जाने की बात कहीं थी, हालांकि इस शब्द में भी पुरुष भाव दिखता है। राष्ट्राध्यक्षा सही शब्द हो सकता है। अन्य विकल्पों पर भी विचार-विमर्श होना चाहिए, जिससे राष्ट्र के प्रथम व्यक्ति चाहे किसी भी लिंग का हो उसकी गरिमा को उचित सम्मान दिया जा सके।

किसी भी राष्ट्र का प्रथम व्यक्ति चाहे वह किसी भी लिंग का हो, किसी भी जाति, या धार्मिक आस्था में अपना विश्वास रखता हो, पूरे विश्व ही नहीं, राष्ट्र के लिए सम्मानित व्यक्ति है और उस व्यक्तित्व के गरिमा कभी तार-तार नहीं होनी चाहिए।

जेंडर संवेदनशील ज़रूरी

राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू।

ज़रूरत इस बात कि सबसे अधिक है कि सरकार एक कमेटी गठन करे और हमारे सामाजिक व्यवहार में जो शब्द लैंगिक भेदभाव उत्पन्न करते है या उसको बढ़ावा देते है, उसके प्रयोग को निषेध करे। साथ-साथ उन नए शब्दों को गढ़ने के दिशा में आगे बढ़े जो जेंडर संवेदनशीलता को बढ़ावा देते है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज में कई इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल है, जो लिंग भेद को बढ़ावा देते है या जो पुरुष प्रधान समाज में ज़्यादा इस्तेमाल होते हैं। मसलन बैट्समैन, कैमरामैन और भी कई हैं लेकिन अब इन शब्दों में भी परिवर्तन आ गया है, जैसे बैट्समैन अब बैटर है और कैमरामैन अब कैमरापर्सन, मैनकाइंड के जगह ह्म्यमनकाइंड(humankind), चैयरमैन के जगह चैयर, पुलिस मैन के जगह पुलिस पर्सन, लैडलांड के जगह आर्नर, सैल्समैन के जगह सेल्सपर्सन, मैनपावर के जगह वर्कफोर्स जैसे शब्दों का चलन बढ़ गया है।

उसी तरह राष्ट्रपति भी राष्ट्रअध्यक्ष या राष्ट्रअध्यक्षा भी हो सकता है, परंतु, पति शब्द अपनी अर्थता में दो अर्थ को सूचित करता है पहला स्वामित्व संबंध और दूसरा वैवाहिक संबंध। जहां पहला अर्थ सूचित करना हो वहां भी उसका इस्तेमाल हो सकता है। दूसरे अर्थ में तो यह स्वीकार्य है ही।

राजनीति में जेंडर संवेदनशीलता

राष्ट्र के प्रथम व्यक्ति को किस शब्द से संबोधित किया जाए, यह मामला इतना भर का नहीं है? यह मामला यह भी है कि भारतीय राजनीति कितनी अधिक जेंडर संवेदनशील है। राजनीति में जेडर संवेदनशीलता के मामले में देश के तमाम राजनीतिक दलों का इतिहास सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली वाली कहावत जैसी है। लोकसभा के इसी सदन में शूपनर्खा/मंथरा की हंसी पर ठहाके गूंजे, सोनिया गांधी को विधवा कहा गया, रमाबाई के साथ अपशब्द का इस्तेमाल हुआ और भी अन्य कई मामले है जो समय-समय पर राजनीति के मंच पर सामने आते रहे हैं।

राजनीति में जुड़ी महिलाओं को अभद्र भाषा से लेकर अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल 2020 की रिपोर्ट बताती है कि 2019 के आम चुनाव के दौरान 95 भारतीय महिला राजनेताओं के ट्वीट का विश्लेषण करने पर पाया गया कि महिला राजनेताओं के बारे में सात में से एक ट्वीट अपमानजनक था।

महिलाओं की भागीदारी दुष्कर क्यों?

स्मृति ईरानी।

रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि आनलाइन, दुर्व्यवहार से महिलाओं को नीचा दिखाने, अपमानित करने, डराने और अंतत: चुप कराने की शक्ति है। भले ही मौजूदा लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या पहले से बेहतर हो रही है। पंचायत चुनावों में महिला आरक्षण देने से महिला सरपंच भी ग्रामीण परिवेश में अपनी राजनीतिक भागीदारी बढ़ा रही है। चुनावी राजनीति में महिला मतदाताओं की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है। यहीं नहीं महिला मतदाओं का सर्वाधिक मतदान चुनावी परिणामों में भारी उलट-फेर करवा दे रहा है।

परंतु, मूल सच्चाई यही है कि भारतीय राजनीति में महिलाओं की सहज़ भागीदारी तमाम चुनौती के बीच अभी भी एक दुष्कर कार्य है। इसको खत्म करने के लिए या कम करने के लिए तमाम राजनीतिक दलों के पास कोई दूरगामी रोडमैप भी नहीं है। महिलाओं के विरुद्ध अश्लील और अपमानजनक टिप्पणी करने पर कोई अनुशासत्मक कार्यवाही करने का कोई नियम कायदा तक राजनीतिक दलों में नहीं है। भारतीय राजनीति किस तरह से जेंडर संवेदनशील होनी सकती है? इसके लिए भी किसी राजनीतिक दल के पास कोई आचार संहिता नहीं है।

किसी राजनेता या राजनीतिक कार्यकर्ताओं के द्वारा महिलाओं के विरुध अशोभनीय बात या व्यवहार होने पर, कुछ होगा भी इसका कोई डर ही नहीं है। इस यथास्थिति में किसी भी महिला के गरिमा के विरुद्ध अशभोनिय घटनाएं भारतीय राजनीति में बढ़ेगी और महिलाओं की गरिमा तार-तार करने वाली घटनाएं बढ़ती रहेगी। दिल थाम पर बस अगली घटना का इतंज़ार करें।

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