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सावरकर और अंग्रेज़ों के संबंध को समझने के लिए ये किताबें जरूर पढ़ें

विनायक दामोदर सावरकर का नाम हाल के वर्षों में अधिक प्रासंगिक रहा है। वह दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के स्तुत्य तो सेक्यूलर और वामपंथी दलों के लिये हिंदुत्ववादी दलों की भर्त्सना करने के टूल के रूप में भी रहे हैं। सावरकर दक्षिणपंथी राजनितिक दलों के लिये मज़बूती है या कमज़ोरी?

हिन्दुत्व की राजनीति और सावरकर

हिंदुत्व की राजनीति करने वाले सभी दलों को वी॰डी॰ सावरकर अपने नायक के रूप में स्वीकार रहें हो ऐसी बात भी नहीं है। भारतीय राजनीति में धर्म पृष्ठभूमि से सैद्धांतिक बल से आपूर्य स्वामी करपात्री जी संघ और सावरकर के विचारों के खिलाफ बोलते रहे और आज भी उनकी परम्परा के लोग बोलते हैं। इनका ज़िक्र इसलिए आवश्यक हो जाता है करपात्री या उनके अनुयायी सेक्यूलर नहीं थे, निजी और सामाजिक दोनों में धार्मिक क्रियाकलाप युक्त जीवन रहा जबकि ख़ुद सावरकर इसके विपरीत हैं।

बहरहाल,सावरकर को समझने-बूझने के लिये आपको किसी विचारधारा की गुफा से बाहर निकलना होगा और तथ्यों को आधार मानना होगा। सावरकर ही क्यों किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति या घटना को आप विचारधारा के चश्मे से देखेंगे तो माजरा पूरा उलटफेर हो जाएगा। बाज़ार में ऐसे किताबों की भरमार है, जिसमें विचारधारा के कलम से ही ऐतिहासिक यथार्थ बोध कराने की उद्घोषणा होती है,पर ये ऑप्टिकल इलयुजन जैसा है।

अंतिम जन पत्रिका में सावरकर

हाल ही में केंद्रीय सरकार के वरिष्ठ नेता विजय गोयल सावरकर के कारण निशाने पर लिये गये कारण था गांधी स्मृति व दर्शन समिति से प्रकाशित पत्रिका अंतिम जन में इस बार सावरकर विशेषांक छपना! गोयल संस्था के उपाध्यक्ष हैं और अकादमिक जगत और विपक्षी दलों के निशाने पर रहे हैं।

क्या वी॰ डी॰ सावरकर को जानने के लिए धनंजय कीर या विक्रम संपत को पढ़ने मात्र से उनके विरोधाभासी व्यक्तित्व के बारे में ज्ञात हो पाएगा या सावरकर समग्र से? सावरकर समग्र भी विरोधाभासी है तथ्यों की संदिग्घता है। 1965 ईस्वी और 2020 ईस्वी के संस्करणों में भेद है। सोशल मीडिया को ही तथ्यों को आधार मानने वाले लोगों की संख्या भी अधिक है, ऐसे लोग पहले भी रहे जो गल्प और दंतकथाओं के आधार पर जबरन बहस करते रहे, इतिहास काव्य नहीं होता निष्प्राण होता है,सम्भावनाएं नहीं तथ्य देखे जाते हैं।

सावरकर का लिखा

हिंदी में पिछले कुछ वर्षों से लगातार प्रासंगिक रहे अशोक कुमार पांडेय ने सावरकर पर एक किताब लिखी है, जो आजकल के सावरकर पर हुई बहसों में उद्धृत की जा रही है। एक तरह से यह किताब सावरकर के सामाजिक जीवन का सूक्ष्म और तथ्यात्मक विश्लेषण है। लेखक किताब की भूमिका में ही कहता है कि मेरा सावरकर के बारे में प्रतिष्ठापित चरित्र का भंजन तब हुआ

“एक शोधार्थी के तौर पर असली सावरकर को खोजने की कोशिश की इसके लिए सबसे मुफ़ीद था,उन पर लिखा पढ़ने से पहले उनका लिखा पढ़ना।”

यानि शुरुआती दौर में सावरकर में वो सभी गुण मौजूद थे, जो एक वीर क्रांतिकारी में होना चाहिए।

1857 संग्राम और सेल्यूलर जेल

1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम जैसी रचना उनकी बौद्धिकता की पहचान ही नहीं अपितु पराधीन राष्ट्र को उसके सुषुप्त शौर्य को जगाने की शानदार कोशिश भी है। शुरुआती दौर में कौमी एकता को भारतीय उत्थान के लिए ज़रूरी मानते हैं। राजघरानों को हीन दृष्टि से देखते हैं और भारतीय नागरिकों का शोषक मानते हैं। देशभक्ति-देशद्रोही की परिभाषा धर्म नहीं इस तथ्य से तय करते हैं कि अंग्रेज़ी राज के प्रति रवैया कैसा है? लंदन के इंडिया हाउस की गतिविधियां उन्हें उग्र बौद्धिक क्रांतिकारी की श्रेणी में रखता है।

लंदन में भारत के आज़ादी के लिए गतिविधियों के बाद गिरफ़्तारी के बाद उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास बिल्कुल उतरी ध्रुव का दक्षिणी ध्रुव हो जाना है।

वहीं वी॰डी॰ सावरकर जो 1857 की क्रांति पर अपनी ऐतिहासिक किताब में धर्म से क्रांतिकारी तय नहीं करते, वहीं सेल्यूलर जेल में साम्प्रदायिक प्रयोग करते नहीं थकते। लेखक इसके प्रमाण भी देते हैं। राजघरानों को हेय दृष्टि से देखने वाले सावरकर नाटकीय रूप से 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देने वाले नेपाल को अपने आदर्श के रूप में देखते हैं, तो राजघरानों से अपनी तथाकथित हिंदू राष्ट्र के लिए चंदा भी लेते हैं। शुरुआती दौर में अंग्रेज़ों की नीति ‘बांटो और राज करो’ के विरोधी अनन्तर उसी पर कार्य करते हैं और मातृभूमि की जगह पितृभूमि से नागरिकता को परिभाषित करते हैं।

अपने जीवन के उतरार्द्ध में सार्वजनिक लेखों-भाषणों और ब्रातानिया सल्तनत को लिखे माफ़ी में भी वैचारिक विरोधाभास है। हिंदुत्व जैसी किताब लिखने वाले वी॰डी॰ सावरकर का मुस्लिम लीग के साथ सिंध और बंगाल में आश्चर्यजनक है। जैसे ,हिंदी फिल्मों के सामाजिक नायकों के नकाबपोश और नकाबहीन चेहरों की तरह कलाईमेक्स-एंटीकलाईमेक्स का खेल जैसा है।

क्या कहा राजनाथ ने?

सावरकर अपने को ऐसा पेश करते है अपने संस्मरणों में जैसे आज़ादी के आंदोलन के महानायक हों जबकि उनके साथियों के संस्मरण में ऐसी कोई चर्चा इनको लेकर नहीं है,जैसा कि सावरकर बताते हैं अतिरंजना युक्त या कहें बढ़ा चढ़ाकर थी।

पिछले दिनों राजनाथ सिंह ने कहा कि गांधी जी ने कहा था सावरकर को माफ़ी मांगने को! यह ग्रंथ इस पर राजनाथ सिंह को कोट करते हुए ,पूरी घटना को ख़ारिज करते हुए, सावरकर के छोटे भाई द्वारा प्रेषित गांधी को प्रेषित पत्र की चर्चा और गांधी की टिप्पणी से भी वाकिफ कराता है। गांधी की सहृदयता और सावरकर के अंतर व्यक्तित्व के ज्ञान से गांधी का एक दूरी बनाते हुए रहना गांधी की पैनी राजनैतिक दृष्टि और कौशल का परिचय होता है।

मदन मोहन मालवीय से शुरुआती दौर में विरोध बाद में सम्मति और सरदार पटेल के अंतर्विरोध की भी परिचर्चा है। सावरकर और गांधी हत्या में शामिल लोगों के सम्बंध पर भी पर्दा हटा रहा यह ग्रंथ।

श्यामाप्रसाद मुखर्जी से दूरियां, हेडगेवार से नज़दीकियां और हेडगेवार का एक निश्चित दूरी के साथ सम्बंध और हिंदू महासभा की जगह आरएसएस और जनसंघ की बढ़ती साख के कारण सावरकर अंग्रेज़ी सरकार में भी और आज़ादी के बाद लगातार अप्रासंगिक होते जाते हैं।

गांधी हत्या की संदिग्धता सावरकर पर तो प्रश्नचिन्ह है ही! साथ-साथ मोरारजी देसाई आदि पर भी.सावरकर जीवन में उत्तरोत्तर हताश होते गए। जीवन के अंतिम दिनों में संथारा लिये और प्राण त्यागा, जैसा कि सावरकर अपने भाई से कहते हैं कि एक दिन सावारकर युग लिखा जाना चाहिए, आज वह सत्य प्रतीत होता दिख रहा लेकिन क्या सामान्य जन उनको अपना नायक मानते हैं?

सावरकर और काला पानी

अशोक कुमार पांडेय की किताब “ सावरकर काला पानी और इसके बाद” सावरकर के अध्ययन में एक ड्रोन व्यू है, मुझे ऐसा लगा कई बार श्री पांडेय भी अपनी विचारधारा से प्रभावित दिखेंगे इस किताब में! पर वह तथ्यों में नहीं है केवल कथा में साम्यवादी भाव का प्रयोग है वह भी अल्पकालिक, जैसे सावरकर की बिरादरी वाले कथा में इतिहास और साहित्य का अच्छा अध्येता किसी गल्प या दन्तकथा का सहारा सावरकर को वर्ण और जाति के दृष्टि से हीन दिखाने के लिए अपनी उत्तरभारतीय सरयुपारीण सोच के कारण करता है या किताब में क्लाईमेक्स के लिये मुझे समझ नहीं आई।

ब्रिटिश सरकार से कृपा मांगने वाले अपनी पहचान के संकट की कुंठा से ग्रस्त और गाय को हेय तथा हिंसा योग्य मानने वाले कपूर आयोग की रिपोर्ट और अमेरिकी एजेंसी सी.आई.ए के एजेंट के रूप में कागज़ात मिलना.क्या हिंदुत्व के पास योगेन्द्र शुक्ल,दूधनाथ तिवारी, रामरक्षा प्रभृति नेता नहीं? जो सावरकर को नेता माना जाए। यह किताब उपरोक्त नायकों की परिचर्चा भी करती है और अंत में इस सवाल के उत्तर पर पाठकों को छोड़ती है।

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