गुलज़ार की प्रतिभा से कोई अछूता नहीं।भारतीय सिनेमा में गुलज़ार ने खुद को गीतकार पटकथा लेखक संवाद लेखन फिल्म निर्माण और निर्देशक के रूप में शिद्दत से स्थापित किया है।
मेरे अपने से लेकर हुतुतु तक गुलजार ने कुल 17 फिल्मों का निर्देशन किया। गुलज़ार ने मिर्ज़ा गालिब पर भी एक प्रामाणिक व मर्मस्पर्शी टीवी सीरियल बनाकर नई मिसाल गढ़ी। आपने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों को भी टीवी पर लाया। मिर्ज़ा ग़ालिब को करीब से जानने के लिए उनपर बना धारावाहिक रेफरेंस के तौर पे भी इस्तेमाल किया जाता है। गुलज़ार की पहचान का एक पहलू यह भी है कि वे हिन्दी-उर्दू अदब के बड़े मकाम पर हैं। कई राष्ट्रीय एवम अंतराष्ट्रीय सम्मान से नवाजे जा चुके हैं।
आइए उनकी कुछ चुनिंदा फिल्मों एवम उनके गीतों पर एक नज़र डालते हैं।
परिचय (1972)
1972 में गुलज़ार निर्देशित ‘परिचय’ रिलीज़ हुई थी। फ़िल्म की कहानी लेखक राज कुमार मैत्रा के एक बंगाली उपन्यास’ पर आधारित थी। फ़िल्म में जीतेंद्र, जया बच्चन, प्राण और संजीव कुमार ने मुख्य भूमिकाएं अदा की थी। यह फिल्म एक शिक्षक और छात्रों के रिश्तों पर आधारित शानदार फिल्म थी। रवि बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ अव्यवस्थित बच्चों को अनुशासित करने का काम भी जानता है। गुलज़ार के लिखे संवादों पर जितेंद्र के शानदार अभिनय की बहुत तारीफ हुई। फिल्म के गाने भी बहुत पसंद किए गए। मशहूर बीती न बिताई गाने में गुलज़ार के शब्दों को लता मंगेशकर ने आवाज़ दी थी। संगीत राहुल देव बर्मन का था।
बीती न बिताई रैना
बिरहा की जाइ रैना
बीती न बिताई रैना
बिरहा की जाइ रैना
भीगी हुई अंखियों
ने लाख बुझाइ रैना
बीती न बिताई
मेरे अपने (1971)
यह गुलज़ार द्वारा निर्देशित पहली फ़िल्म थी। यह तपन सिन्हा की बांग्ला फ़िल्म का रीमेक थी। 70 का दशक, भारत के लिए, एक ऐसा समय था, जब पूरा देश , स्वर्णिम भविष्य के लिए आश्वस्त था लेकिन इस प्रयोजन के सिद्ध होने में, युवा अपनी जगह नहीं पा रहे थे या उन्हें जगह नहीं दी जा रही थी, यही खीझ का कारण बनता जा रहा था।
फिल्म उस समय के युवा मन को अभिव्यक्त करने में सफल थी। युवाओं के मन के खालीपन और कुंठा को अभूतपूर्व तरीके से प्रस्तुत करने में आज भी पूर्णतः सफल थी। फ़िल्म के लिए लेखन (पटकथा, संवाद,गीत) गुलज़ार एवम इन्द्रा मित्रा ने किया। मेरे अपने को बनाया एन०सी० सिप्पी, राज सिप्पी और रोमू सिप्पी ने। फ़िल्म का संगीत कमाल का था । संगीतकार सलिल चौधरी की धुनों पे किशोर कुमार ने यादगार गाने दिए।
कोई होता जिसको अपना
हम अपना कह लेते यारों
पास नहीं तो दूर ही होता
लेकिन कोई मेरा अपना
आंखों में नींद न होती
आंसू ही तैरते रहते
ख़्वाबों में जागते हम रात भर
कोई तो ग़म अपनाता
कोई तो साथी होता
कोई होता जिसको अपना.
मौसम (1975)
गुलज़ार द्वारा लिखी एवं निर्देशित की गई फ़िल्म ‘मौसम’ साल 1975 में आई. ये फ़िल्म लेखक ए जे क्रोनिन के उपन्यास ‘द जुडास ट्री’ पर आधारित है. इस फ़िल्म के लिए गुलज़ार को बतौर निर्देशक फ़िल्मफ़ेयर मिला और इसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। शर्मिला टैगोर को उनके अभिनय केलिए 23वें राष्ट्रीय फिल्म समारोह में पुरस्कार मिला। फिल्मफेयर पुरस्कारों में फिल्म को नामांकन प्राप्त हुए। मौसम डॉक्टर अमरनाथ गिल की प्रेम कहानी बुनती है।
अमरनाथ को चिकित्सक, हरिहर थापा की बेटी चंदा से प्यार हो जाता है। लेकिन पढ़ाई के कारण उसे दूर जाना पड़ता है। पच्चीस साल बाद, वह एक धनी व्यक्ति के रूप में लौटता है और चंदा और उसके पिता की खोज करता है। प्रस्तुत गीत स्वर्गीय भूपिंदर सिंह के जीवन का स्वर्णिम गीत है। मदन मोहन ने गाने की धुन बनाई जोकि बहुत शानदार बन पड़ी। निश्चित ही गुलज़ार साहेब के सर्वश्रेष्ठ गीतों में एक ।
दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जाना किये हुए
दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
जाड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए
दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन..
ख़ुशबू (1975)
‘ख़ुशबू’ की कहानी शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानी ‘पंडित माशय’ पर आधारित थी। फिल्म में मुख्य भूमिका में थे जीतेंद्र, हेमा मालिनी और सारिका थे। बृंदाबन के किरदार में जितेंद्र ने एक डॉक्टर की भूमिका निभाई ।
उसकी शादी बचपन में ही कुसुम (हेमा मालिनी) से हो जाती है, लेकिन बृंदाबन के पिता इस शादी को स्वीकार नहीं करते। हार कर इन दोनों को अलग होना पड़ता है। यह कहानी बहुत ही भावुक कर देने वाली है। इसके संवाद और पटकथा गुलजार ने लिखे। साथ ही गुलजार ने इस फिल्म को निर्देशित भी किया । संवेदनाओं को कचोटती एवम सोचने के लिए विवश करने वाली गुलजार की खुशबू दर्शकों के मन में बस चुकी फिल्म थी। मध्य वर्गीय परिवार का एक किरदार निभाने वाले जीतेंद्र ने स्वयं के ट्रेंड से हटकर काम किया। पतली महीन मूंछें रखी। फ्रेम वाला चश्मा पहना। कुसुम के किरदार में हेमामालिनी बचपन से ही जीतेंद्र से प्रभावित थी। उसे प्यार करती थी। फिल्म कामयाब तो थी ही फिल्म का संगीत भी काफी पसंद किया गया। ओ मांझी रे गीत को ही देखें जिसे किशोर कुमार ने कितनी खुबसूरती से आवाज़ दी। राहुल देव बर्मन ने गुलज़ार के लिखे शब्दों पर धुनें बनाई।
ओ मांझी रे
अपना किनारा, नदिया की धारा है
साहिलों पे बहने वाले
कभी सुना तो होगा कहीं, ओ…
हो, कागज़ों की कश्तियों का
कहीं किनारा होता नहीं
हो मांझी रे … मांझी रे
कोई किनारा जो किनारे से मिले वो,
अपना किनारा है …
ओ मांझी रे …
पानियों में बह रहे हैं
कई किनारे टूटे हुए ओ
हो, रास्तों में मिल गए हैं
सभी सहारे छूटे हुए
कोइ सहारा मझधारे में मिले वो
अपना सहारा है …
आंधी (1975)
साल 1975 में आई फ़िल्म ‘आंधी’. इस फ़िल्म के लिए गुलज़ार को फ़िल्मफ़ेयर में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक की श्रेणी में नामांकित किया गया। इस फ़िल्म में संजीव कुमार, सुचित्रा सेन, रहमान और ओम प्रकाश ने किरदार निभाएं। फ़िल्म उस वक़्त ख़ासे विवाद में भी फंसी थी क्योंकि आरोप लगाया गया कि फ़िल्म की कहानी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन से प्रेरित है।
फिल्म आंधी भारतीय फिल्म इतिहास में खास मुकाम रखती है। आंधी में उस महिला की जद्दोजहद को दिखाया गया जो अपने राजनीतिक करियर को अपने प्रेम के स्थान पर प्राथमिकता देती है। सुचित्रा सेन की अदाकारी की यादगार फिल्म। इस फिल्म में अभिनय के लिए संजीव कुमार को फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला था। अभिनेत्री सुचित्रा सेन भी कई पुरस्कारों से नवाजी गई थीं। लेखक कमलेश्वर की ‘काली आंधी’ की रचना पर यह फिल्म बनी थी। इसकी ज्यादातर शूटिंग जम्मू-कश्मीर में हुई थी। फिल्म के गाने लोग आज भी गुनगुनाते हैं। इस मोड़ से जाते ..को किशोर कुमार एवम लता मंगेशकर ने आवाज़ दी थी। संगीत की धुनें राहुल देव बर्मन ने बनाया था।
इस मोड़ से जाते हैं ..
कुछ सुस्त क़दम रस्ते कुछ तेज़ क़दम राहें –
पत्थर की हवेली को शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक इस मोड़ से जाते हैं
आंधी की तरह उड़कर इक राह गुज़रती है
शरमाती हुई कोई क़दमों से उतरती है
इन रेशमी राहों में इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से जाते हैं…
इजाज़त (1987)
प्यार, धोखे और रिश्तों के ऊपर गुलज़ार ने उस ज़माने में फ़िल्म बनाई जब मुख्यधारा में एक्शन फिल्मों का बोलबाला था। मानवीय रिश्तों की करीबी पड़ताल करने का गुलजार में कमाल का हुनर रहा। फ़िल्म के एक गीत के लिए गुलज़ार को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला। फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई नसीरुद्दीन शाह, रेखा और अनुराधा पटेल ने निभाई थी।
इजाज़त की कहानी हमें अपने साथ ले जाती है। हम बहते चले जाते हैं। गहरे उतरते जाते हैं। अस्सी के दशक में हिंदी सिनेमा की एक ज़रूरी फिल्म। बिंदास सी लड़की जो अपनी ज़िन्दगी सिर्फ अपनी शर्तों पर जीती है। अपना अंत भी खुद हो तय करती है।
वक्त और इत्तेफ़ाक क्या नही दिखा जाता है जीवन में। मेरा कुछ सामान का मिजाज ही देखिए। अपने किस्म का बेहतरीन से भी बेहतर गीत है। गुलज़ार ने रिश्तों के एक पड़ाव को क्या शानदार तरीके से व्यक्त किया है। आशा भोंसले की खनकती आवाज़ में राहुल देव बर्मन का संगीत एवम गुलजार की तिकड़ी गीत को अमर बना जाती है।
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है
वो सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं
वो और मेरे इक ख़त मैं लिपटी रात पड़ी है
वो रात भुला दो, मेरा वो सामान लौटा दो
वो रात भुला दो, मेरा वो सामान लौटा दो
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है..
लेकिन (1990)
‘लेकिन’ गुलजार साहेब की प्रमुख फिल्मों में से एक है। इस फ़िल्म में विनोद खन्ना, अमजद ख़ान और डिंपल कपाड़िया ने मुख्य भूमिकाएं अदा की। इस फ़िल्म के एक गीत के लिए गुलज़ार को राष्ट्रीय पुरस्कार और फ़िल्मफ़ेयर से नवाजा गया। फिल्म को 5 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले।
हालांकि फिल्म रविंद्रनाथ टैगोर की एक कहानी से प्रेरित थी, किंतु गुलज़ार ने इसे अपना टच देकर कमाल का बनाया था।फिल्म के निर्माता लता मंगेशकर और हृदयनाथ मंगेशकर थे। फिल्म के सभी गाने कहानी के हिसाब से कमाल थे। हृदयनाथ मंगेशकर की धुनों से सजे गीतों को लता मंगेशकर ने आवाज दी थी। केसरिया बालमा राग मांड में गाया एक बेहतरीन गीत है। संगीतप्रेमियो के लिए खूबसूरत सौगात है यह गाना।
केसरिया बालमा ओ री
कि तुमसे लागे नैन, नैन रे
रंग लियो मैं आज अंग अंग तेरे रंग में
तन हुआ मन हुआ केसरिया
चांदनी है रात अब तो आ जा पिया आ
केसरिया बालमा ओ री
केसरिया बालमा मोहे
बावरी बोले लोग
ना मैं जिउती ना मरियो मैं
बिरहा म्हारो रोग रे
बावरी बोले लोग, लोग रे
केसरिया बालमा..
माचिस (1996)
माचिस एक हिंदी पीरियड पॉलिटिकल थ्रिल जिसका निर्देशन गुलजार ने किया है। आर.वी पंडित द्वारा निर्मित फिल्म माचिस में ओम पुरी, तब्बू, चंद्रचूड सिंह, जिम्मी शेरगिल आदि मुख्य भूमिका में नजर आये थे। यह फ़िल्म 1980 के दशक के मध्य पंजाब में सिख विद्रोह के समय में एक सामान्य व्यक्ति के आतंकवादी बन जाने के सफर पर केंद्रित है। फ़िल्म का शीर्षक “माचिस” एक अलंकार की तरह है। गुलज़ार के निर्देशन तथा विशाल भारद्वाज के संगीत मुख्य आकर्षण था। माचिस फिल्म का हरेक गाना बहुत ही अलग किस्म का लिखा गया। चप्पा चप्पा चरखा से लेकर छोड़ आएं हम वो गलियां इसकी मिसाल है। छोड़ आए को हरिहरन सुरेश वाडकर रूप कुमार राठौर एवम केके ने आवाज़ दी थी।
छोड़ आये हम वो गलियां
जहाँ तेरे पैरों के कंवल गिरा करते थे
हंसे तो दो गालों में भंवर पड़ा करते थे
हे तेरी कमर के बल पे नदी मुडा करती थी
हंसी तेरी सुन सुन के फसल पका करती थी
छोड़ आये हम वो गलियां ।