अनामिका जी की कविताओ से मेरा पहला परिचय तब हुआ जब उन्हें साहित्य अकादमी मिला। इसे या तो आप मेरी अल्पबुद्धि समझ सकते हैं या हम कह सकते हैं की स्त्री विमर्श और स्त्री कवियित्री को पढ़ने, सुनने की समझ अभी हमारे समाज ने बना नहीं पाई है। उन्होंने भावुक अंतर्मन की कविताएं भी लिखी हैं, तो वृहत वैचारिक परिवेश में भी प्रवेश किया है।
भाषा शिल्प में वो अलग से चिह्नित हो सकने वाली कवयित्री हैं। हिंदी के चर्चा-प्रदेश में उनका आगमन भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के साथ हुआ। उनकी कविताओं का रचनात्मक विकास संग्रह दर संग्रह नज़र आता है। उनका पहला काव्य-संग्रह ‘ग़लत पते की चिट्ठी’ 1978 में प्रकाशित हुआ। ‘समय के शहर में’, ‘बीजाक्षर’, ‘अनुष्टुप’, ‘कविता में औरत’, ‘खुरदरी हथेलियाँ’, ‘दूब-धान’ उनके अन्य कविता-संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त, उनकी कविताएँ कुछ प्रतिष्ठित सीरिज़ में प्रकाशित भी हुई हैं लेकिन मैं यहां उन कविताओं की बात करूंगी, जिनसे मैं उन्हें जानती हूं।
बेजगह
अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाख़ून”—
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर।
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियां अपनी जगह पर।
जगह? जगह क्या होती है?
यह वैसे जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही।
याद था हमें एक-एक क्षण
आरंभिक पाठों का—
राम, पाठशाला जा!
राधा, खाना पका!
राम, आ बताशा खा!
राधा, झाड़ू लगा!
भैया अब सोएगा
जाकर बिस्तर बिछा!
अहा, नया घर है!
राम, देख यह तेरा कमरा है!
‘और मेरा?’
‘ओ पगली,
लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता।
जिनका कोई घर नहीं होता—
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।
कटे हुए नाख़ूनों,
कंघी में फंस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली?
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें
लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में
फंसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूं
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग।
सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुंची हूं
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊं
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अंभग!
सृष्टि
सृष्टि की पहली सुबह थी वह!
कहा गया मुझसे
तू उजियारा है धरती का
और छीन लिया गया मेरा सूरज!
कहा गया मुझसे
तू बुलबुल है इस बाग़ का
और झपट लिया गया मेरा आकाश!
कहा गया मुझसे
तू पानी है सृष्टि की आंखों का
और मुझे ब्याहा गया रेत से
सुखा दिया गया मेरा सागर!
कहा गया मुझसे
तू बिम्ब है सबसे सुन्दर
और तोड़ दिया गया मेरा दर्पण।
बाबा कबीर की कविता की माटी की तरह नहीं,
पेपर मैशी की लुगदी की तरह
मुझे “रूंदा” गया,
किसी-किसी तरह मैं उठी,
एक प्रतिमा बनी मेरी,
कोई था जिसने दर्पण की किरचियाँ उठाई
और रोम-रोम में प्रतिमा के जड़ दी!
एक ब्रह्माण्ड ही परावर्तित था
रोम-रोम में अब तो!
जो सूरज छीन लिया था मुझसे
दौड़ता हुआ आ गया वापस
और हपस कर मेरे अंग लग गया!
आकाश खुद एक पंछी-सा
मेरे कंधे पर उतर आया।
वक़्त सा समुन्दर मेरे पांव पर बिछ गया,
धुल गयी अब युगों की कीचड़!
अब मैं व्यवस्थित थी!
पूरी यह कायनात ही मेरा घर थी अब!
अपने दस हाथों से
करने लगी काम घर के और बाहर के!
एक घरेलू दुर्गा
भाले पर झाड़न लपेट लिया मैंने
और लगी धूल झाड़ने
कायदों की, वायदों की, रस्मों की, मिथकों की,
इतिहास की मेज भी झाड़ी!
महिषासुर के मैंने काट दिए नाख़ून,
नहलाकर भेज दिया दफ्तर!
एक नयी सृष्टि अब
मचल रही थी मेरे भीतर!
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