वर्ष 1972 से 2021 तक देश की जनसंख्या 581 मिलियन से 1393 मिलियन हो गई। पिछले 50 वर्षो में देश की जनसंख्या का स्तर इस कदर बढ़ा कि उनकी ज़रूरतों ने पर्यावरण को झकझोर कर रख दिया। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपभोग और अंधाधुंध दोहन हुआ है, जिसका परिणाम मृदा निम्नीकरण, जैव विविधता में कमी, वायु और जल स्रोतों में प्रदूषण के रूप में दिखाई दे रहा है।
पर्यावरण क्षरण और शहरीकरण
अत्यधिक दोहन के कारण पर्यावरण का क्षरण हो रहा है जो मानव जाति और उसकी उत्तरजीविता के लिए खतरा उत्पन्न कर रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में तेज़ी से शहरीकरण की वजह से पर्यावरण का नाश हो रहा है।
अक्सर शहर अपनी मूलभूत सुविधाओं के कारण जनसंख्या के आकर्षण का केन्द्र होता है, शहरों में बढ़ती जनसंख्या स्थानीय संसाधनों पर गहरा प्रभाव डालती है। निवास, उद्योगों की स्थापना, सड़क जैसी आधारभूत सुविधाओं के लिए उपजाऊ भूमि का उपयोग किया जा रहा है, शहरों की लाइफ स्टाइल का प्रभाव इस कदर हो गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पत्थर के मकान अब ख्वाब में देखने जैसे हो गए हैं।
हल्द्वानी व ज्योलीकोट क्षेत्र
शहरीकरण के कारण जलवायु परिवर्तन का ज्वलंत उदाहरण उत्तराखंड का हल्द्वानी व ज्योलीकोट क्षेत्र है, जहां के मौसम में हो रहे परिवर्तन को साफ देखा जा सकता है। हल्द्वानी जो पूर्ण रूप से शहर में तब्दील हो चुका है व ज्योलीकोट जो अभी ग्रामीण परिवेश में है, परन्तु जल्द ही शहरीकरण की ओर अग्रसर है, दोनों के तापमान में 12-15 डिग्री का अंतर है।
इस संबंध में ग्राम सेलालेख, घारी नैनीताल के खजान चंद्र मेलकानी बताते हैं कि शहरीकरण का दायरा धीरे-धीरे गाँवों की ओर बढ़ रहा है। लोग शुद्ध हवा के लिए गाँव में घर बना रहे हैं, लेकिन वह घर पूरी तरह से शहरी ढांचा वाला होता है, उनके द्वारा गाँवों में बनाए जाने वाले विलाओं से उपजाऊ भूमि बर्बाद हो रही है। वहीं साथ ही निर्माण में लगने वाले मटेरियल से आसपास की भूमि की उर्वरक क्षमता समाप्त हो रही है।
औद्योगीकरण से प्राकृतिक संसाधनों का खात्मा
इस निर्माण का दुष्प्रभाव जल संकट के रूप में ग्रामवासी झेल रहे हैं। निर्माण में पानी की खपत व निर्माण के बाद पानी की सप्लाई भविष्य में ग्राम वासियों के लिए जल संकट के रूप में होगी। भूमि की उर्वरक क्षमता पर प्रभाव को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो फसल ग्रामीण बाज़ारों में बेचा करते थे, अब उसकी उपज इतनी कम हो गई है कि उन्हें वही खरीदना पड़ता है।
तीव्र गति से जनसंख्या की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने हेतु आवश्यक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हो रही वृद्धि इन्हीं आवश्यक वस्तुओं के निर्माण का परिणाम है। औद्योगीकरण में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग उसके शीघ्र समाप्ति का संकट उत्पन्न कर रहा है। रुद्रपुर शहर का सिडकुल क्षेत्र औद्योगीकरण की मिसाल है, लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अब इस क्षेत्र से गुज़रने पर दुर्गन्ध के कारण शुद्ध वायु लेना कठिन हो जाता है। वहीं फैक्ट्री से निकलने वाला दूषित जल स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन रहा है।
वनों को नष्ट करना कितना सही?
यह बहुत चिंता की बात है कि मानव कृषि मांग पूरा करने के लिए अधिक से अधिक फसलों को उगाने हेतु वनों को खेतों में बदल रहा है। खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि के लिये शुरू की गई हरित क्रांति में कृषि में कृत्रिम उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया है, जिससे भूमि वा जल प्रदूषण हो रहा है।
कृषि में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से फसल को हानि पहुंचाने वाले कीटों के साथ वह कीट भी मारे जाते हैं, जो कृषि में परागण की क्रिया के लिए भी उपयोगी होते हैं। कीटनाशकों की मात्रा में होने वाली वृद्धि खाद्य श्रृंखला को भी प्रभावित करती है।
दूसरा बाज़ारीकरण जो उच्च उत्पाद देने वाली फसलों को बढ़ावा दे रही है, जिससे पारम्परिक फसले जो बहुफसली पद्धति पर आधारित होने के कारण फसल चक्र का पालन करती थी, परन्तु वर्तमान में उच्च उत्पाद वाली फसले एकल कृषि को बढ़ावा दे रही हैं जो लम्बे समय में मृदा में पोषक तत्वों में कमी लाकर उत्पादन व उत्पादकता को प्रभावित कर रही हैं।
विकास के नाम पर एक ओर जहां पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर पर्यावरण संरक्षण के लिए भी कार्य किये जा रहे हैं।
50 हजार पौधों का रोपण
इस संबंध में नैनीताल स्थित ग्राम नाई, भीड़ापानी के चन्दन नयाल बताते हैं कि उनके गाँव और आसपास की वन पंचायतों में 50000 हज़ार से अधिक पौधों का रोपण कार्य तो किया है, साथ ही उनकी देखभाल का ज़िम्मा भी स्वयं के संसाधनों के माध्यम से किया जा रहा है, क्योंकि केवल वृक्ष रोपित करने से पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता है।
नई पीढ़ी को पर्यावरण की हमारे जीवन में उपयोगिता से वाकिफ करवाना होगा, पिछले दो वर्षों में कोरोना महामारी ने भी पर्यावरण की महत्ता से इंसानों को वाकिफ कराया है। वह बताते हैं कि खेती में रासायनिक उपयोग से भूमि की उर्वरक क्षमता समाप्त हो रही है और रसायन के प्रयोग से जैविक खेती पर संकट उत्पन्न हो रहा है।
पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना ज़रूरी
दरअसल हम मानव इतने स्वार्थी हो गए हैं कि अपने ऐशो-आराम के लिए प्राकृतिक संसाधनों को तबाह करने में जुट गए हैं, जिसकी वजह से जंगल समाप्त होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। यह केवल पारिस्थितिकी तंत्र के लिए ही खतरा नहीं है बल्कि हम इंसानों के जीवन के लिए भी नुकसानदेह है।
परन्तु हमको यह नहीं भूलना चाहिए प्रकृति जब अपना संतुलन करती है, तो विनाश का ऐसा तांडव होता है जिससे मानव रूह कांप जाती है।
समय आ गया है कि मनुष्य अपनी इस गलती को सुधारे और सतत विकास के लक्ष्य को साकार करते हुए पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करे ताकि धरती के साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियां भी शुद्ध हवा में सांस ले सके।
यह आलेख विश्व पर्यावरण दिवस (05 जून) के अवसर पर नैनीताल, उत्तराखंड से नरेंद्र सिंह बिष्ट ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।