नफरतों के साये में
कोई फल फूल रहा है, सत्ता के गालियारों में
कोई पढ़ा लिखा देखता,अंधियारों में।
उसने खुदा को भी नचा रक्खा है
मंदिर मस्ज़िद में अटका रक्खा है!
देश की तरक्की को रख दिया दलितों के साये में!
वो तो इतिहास बदलते हैं
कहीं नाम, तो कहीं पहचान मिटाते हैं!
शासन की जड़ो क़ो देशभक्ती से मज़बूत बनाते हैं।
आम सी जनता घूमती गालियारों में
माथा फोड़ती झूठ-मुठ के समाचारों में!
लड़ती रहती अपनों से अपने ही गालियारों में!
वाह रे! मेरे नफरत के पैगामबरों
लूट रहे तुम संसद के गालियारों में!
वो पढ़ा लिखा बेरोज़गार, तुम्हें देखता बस अंधियारों में।