14 जून को, भारत सरकार ने भारतीय सशस्त्र बलों के लिए अग्निपथ योजना की घोषणा की। ये योजना हर साल 17.5 से 21 वर्ष की आयु के बीच के 45,000 से 50,000 लोगों की भर्ती करेगी। यह सेवा चार साल की अवधि के लिए होगी, जिसके अंत में एक चौथाई भर्तीयों को सशस्त्र बलों में स्थायी कमीशन दिया जाएगा।
क्या है योजना का उद्देश्य?
इस योजना का एक उद्देश्य सैन्य पेंशन बजट और स्थायी कमीशन के आकार को कम करना था। कई सैन्य विशेषज्ञों ने बताया है कि ये योजना सेना की पेशेवरता और तैयारी को प्रभावित करेगी और राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करेगी। इस योजना पर सशस्त्र बलों को संविदात्मक कार्य में बदलने और समाज के सैन्यीकरण को बढ़ाने का भी आरोप लगाया गया है, इसके अलावा चूंकि ये योजना 21-25 वर्ष की आयु में 75% भर्तीयों की छंटनी कर देगी, इससे बेरोज़गारी भी बढ़ने की संभावना है।
योजना की घोषणा के एक दिन बाद बिहार और उत्तर प्रदेश में व्यापक विरोध और दंगे भड़क उठे। लाखों छात्र, विशेष रूप से भारतीय सशस्त्र बलों में भर्ती की तैयारी करने वाले, इस योजना के विरोध में बड़ी संख्या में सामने आए।
पहले से ही 2019 भर्ती योजना से परेशान थे युवा
इस घोषणा के बाद जल्द ही आंदोलन पूरे उत्तर भारत में फैल गया और फिर देशभर में फैल गया। कई जगहों पर खासकर बिहार में विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए। ट्रेनों में आग लगा दी गई और भाजपा कार्यालयों और पार्टी विधायकों के घरों पर हमला किया गया। शायद युवा जो सशस्त्र बलों में आवेदन करने के लिए वर्षों तैयारी करते हैं और 2019 से भारतीय सेना में भर्ती बंद होने से पहले से ही परेशान थे इस योजना से बहुत खुश नहीं हुए।
इस बीच अनुमान के अनुसार, सरकार योजना की खूबियों को समझाने के लिए प्रचार मोड पर चली गई। योजना के लाभों की गणना करते हुए पोस्टर जारी किए गए और मंत्रियों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। सशस्त्र बलों के प्रमुखों ने योजना को सकारते हुए और सरकार का समर्थन करते हुए बयान ज़ारी किए और साक्षात्कार दिए और जब यह रणनीति विफल हुई तो सरकार ने योजना के लिए अतिरिक्त प्रलोभन देना शुरू कर दिया।
आरक्षण और आयु में छूट की पेशकश
केंद्र सरकार ने रक्षा मंत्रालय (भारतीय तटरक्षक, रक्षा नागरिक पदों और रक्षा के सार्वजनिक उपक्रमों), गृह मंत्रालय (केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल और असम राइफल्स), खेल, नागरिक उड्डयन और पत्तन, पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्रालय में नौकरियों में अग्निवीरों के लिए आरक्षण और आयु में छूट की पेशकश की। वित्त मंत्री ने बैंकों से उनकी भर्ती में अग्निवीरों को आरक्षण देने का आग्रह किया।
कई राज्य भी अग्निवीरों के लिए आरक्षण की पेशकश के साथ कूद गए, जिसमें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिन्होंने इसी वर्ष की शुरुआत में राज्य पुलिस में भूतपूर्व सैनिकों के लिए 10% आरक्षण को समाप्त कर दिया था ये भी शामिल थे।
जब यह भी विफल हुआ, तो प्रदर्शनकारियों के खिलाफ धमकी और चेतावनी जारी की गई। फिर भी, प्रचार, प्रस्तावों और धमकियों के बावजूद, पूरे भारत में तीव्र विरोध और दंगे जारी हैं।
रेलवे की भर्ती परीक्षा का भी हो चुका है विरोध
कुछ महीने पहले, जनवरी 2022 में, भारत में रेलवे भर्ती परीक्षा के उम्मीदवारों का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। बिहार और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर हज़ारों की संख्या में छात्र स्वतःस्फूर्त विरोध में उठ खड़े हुए। वे रेलवे भर्ती बोर्ड द्वारा आयोजित परीक्षाओं में कथित अनियमितताओं के खिलाफ शिकायत कर रहे थे, इनमें से एक परीक्षा में 1.2 करोड़ से अधिक छात्रों यानि भारत के कुल श्रमबल का 2.5% ने 35,000 रिक्तियों के लिए आवेदन किया।
वहीं, विरोध को सरकार की ओर से क्रूर दमन का सामना करना पड़ा। इलाहाबाद और पटना में पुलिस ने हॉस्टलों में धावा बोला, छात्रों को डंडों से पीटा, और कई छात्रों को गिरफ्तार किया। रेलवे भर्ती बोर्ड ने भी छात्रों को किसी भी विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के खिलाफ धमकी देते हुए एक सर्कुलर जारी किया।
मीडिया, जनता की नकारात्मक प्रतिक्रियाएं
हालांकि इन विरोधों पर मुख्यधारा की मीडिया और आम जनता की प्रतिक्रिया काफी हद तक नकारात्मक रही है, लेकिन इन आंदोलनों के संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण है। अग्निपथ प्रदर्शनकारियों को आगजनी और भीड़ के रूप में प्रदर्शित करने से पहले उनकी शिकायतों और उनके कष्टों को समझने की कोशिश की जानी चाहिए।
अग्निपथ योजना, रेलवे परीक्षा में अनियमितता या हाल के वर्षों में इसी तरह के दर्जनों छात्र आंदोलनों के अलग-अलग तत्काल कारण हो सकते हैं, लेकिन वे पृथक विरोध नहीं हैं बल्कि उन्हें बेरोज़गारी के संकट के खिलाफ बड़े आंदोलन के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।
2014 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो बेरोज़गारी उनके चुनाव अभियान के केंद्रीय मुद्दों में से एक थी। मोदी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में हर साल दो करोड़ नौकरियां पैदा करने का वादा किया था। हालांकि, उनके पहले कार्यकाल के अंत तक, समस्या केवल बदतर हो गई।
2018 में भी हुए ऐसे प्रदर्शन
2018 में, एसएससी परीक्षा में अनियमितताओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। भर्तियों में देरी, परीक्षाओं में अनियमितताओं और बेरोज़गारी से जुड़े अन्य मुद्दों के खिलाफ और विरोध प्रदर्शन होते रहे। बेरोज़गारी के लिए मोदी सरकार ने ‘सब चंगा सी’ मॉडल का इस्तेमाल किया! नज़रअंदाज करना, इनकार करना, छिपाना और अच्छे दिनों का दावा करना।
2019 में, एनएसएसओ की एक लीक हुई रिपोर्ट से पता चला कि बेरोज़गारी 45 साल के उच्च स्तर पर थी। रिपोर्ट को सरकार द्वारा दबा दिया गया, और आगे एनएसएसओ सर्वेक्षण रोक दिए गए।
अच्छे दिनों की झूठी तस्वीर पेश करने के लिए प्रचार और चुनिंदा आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया। एक साक्षात्कार में, बेरोज़गारी की समस्या के बारे में पूछे जाने पर मोदी ने ऐसे मुद्दे से ही इनकार कर दिया और पूछा कि क्या न्यूज़ स्टूडियो के बाहर पकौड़ा बेचना और प्रतिदिन 200 रुपये की कमाई को रोज़गार के रूप में नहीं गिना जाएगा?
बढ़ती बेरोज़गारी और पीछे हटती सरकार
जैसे-जैसे बेरोज़गारी बढ़ती गई! सरकार ने समस्या से निपटने के लिए कोई कदम उठाने से इनकार कर दिया और इस मुद्दे को नकारना ज़ारी रखा। 2016 और 2022 के बीच, रोज़गार से जनसंख्या अनुपात 43.5% से गिरकर 37% हो गई, जबकि रोज़गार की संख्या में 46 लाख की गिरावट आई।
वहीं अच्छी नौकरी ना मिलने से निराश होकर, कामकाजी उम्र की एक बड़ी आबादी ने काम की तलाश बंद कर दी और श्रम-बल की भागीदारी दर 48% से गिरकर 40% हो गई। 2017 और 2022 के बीच दो करोड़ से अधिक महिलाओं ने कार्यबल छोड़ दिया। कॉलेज स्नातकों में बेरोज़गारी 20% तक पहुंच गई।
वहीं, सरकार के अपने अनुमान के मुताबिक, विभिन्न सरकारी विभागों और मंत्रालयों में और शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पुलिस और सेना में 24 लाख से अधिक स्वीकृत पद खाली पड़े थे। कुछ आंकड़ों के अनुसार, राज्य सरकारों सहित कुल रिक्तियां 60 लाख से अधिक हैं।
कई फैसले बेहद गलत
2016 में मोदी सरकार ने नोटों के विमुद्रीकरण की घोषणा की। इसके बाद जीएसटी को अनियोजित तरीके से लागू किया गया। इन दो झटकों ने भारत में अनौपचारिक क्षेत्र और छोटे व्यवसायों को नष्ट कर दिया। 2019 में, COVID की महामारी आई और सरकार ने चार घंटे की सूचना पर देशव्यापी बंदी लागू कर दी।
लाखों मज़दूर बेरोज़गार हो गए, फिर भी सरकार की ओर से कोई मदद नहीं आई। नौकरियों और आय के नुकसान के साथ करोड़ो लोग गरीबी रेखा से नीचे आ गए और उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ा। 2018 और 2020 के बीच, 25,000 से अधिक लोगों ने बेरोज़गारी और कर्ज़ की वजह से आत्महत्या कर ली। वेतनभोगी और औद्योगिक नौकरियों और रोज़गार की संख्या, में गिरावट आई और बेरोज़गारी 24% तक पहुंच गई।
वहीं, आपदा में अवसर बनाते हुए सरकार सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण और कॉर्पोरेट के पक्ष में श्रम कानूनों में ढील करती रही। वहीं, भाजपा चुनावों में खोखले वादे करती रही।
बिहार में 19 लाख का वादा
बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 19 लाख नौकरियों का वादा किया। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, उसने प्रत्येक परिवार को एक नौकरी देने का वादा किया। इन परिस्थितियों में झूठे वादों और विश्वासघात, आशा के बिना एक अंधकारमय भविष्य और अच्छे दिनों के अंतहीन प्रचार के बीच युवाओं में अशांति की भावना आसानी से महसूस जा सकती थी।
मुख्यधारा की मीडिया ने सरकार को बेरोज़गारी संकट की वास्तविकता पर अच्छे दिन का ढकोसला बनाने में मदद करने और इस विषय पर किसी भी गंभीर चर्चा को रोकने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। जैसा कि डॉ मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, “दंगा अनसुने लोगों की भाषा है” असंख्य अकस्मात, अनियोजित और हिंसक विरोध भारत के लाखों युवाओं के इस दबे हुए गुस्से का प्रकोप हैं।
बेरोज़गारी और हिंसा
बेरोज़गारी का द्वंद्व और हिंसा से हमेशा गहरा संबंध होता है और जैसे-जैसे भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश त्रासदी में बदलेगा, ऐसे द्वंद्व और अधिक होते जाएंगे। ऐसे में अगर सरकार अग्निपथ विद्रोह को कुचलने में कामयाब हो भी जाए, तो भी इस विद्रोह की आग नहीं बुझेगी। जैसे-जैसे संकट गहराता जा रहा है समाधान की बात तो दूर, मुद्दे को उठाने के लिए स्थान के बिना और बड़े पैमाने पर हिंसक बेरोज़गारी विरोध हमेशा अपरिहार्य रहेंगे।
युवाओं को एक अहिंसक मंच की ज़रूरत
आज, भारत को ऐसे आंदोलन की ज़रूरत है, जो युवाओं को बेरोजगारी के मुद्दे को उठाने के लिए एक अहिंसक मंच प्रदान कर सके। इस तरह के आंदोलन को सरकारी परीक्षाओं के मुद्दे से परे जाना होगा।
इसे निजी क्षेत्र में शोषणकारी काम और अनुचित वेतन के सवाल का भी संबोधित करना होगा। इसे किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, और संविदा और दिहाड़ी मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी के सवाल को भी संबोधित करना होगा। इसे फूड डिलीवरी सेवाओं, ई-कॉमर्स कंपनियों और कैब सेवाओं में काम करने वाले श्रमिकों के शोषण को भी संबोधित करना होगा। इसे श्रमबल में महिलाओं और पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे को भी संबोधित करना होगा और सबसे महत्वपूर्ण बात, इसे लोगों खासकर युवाओं जिन्हें मोदी सरकार ने निराश और नकार दिया है कि भविष्य में आशा को फिर से जगाना होगा।