दिल्ली विश्वविद्यालय ने हाल ही में 100 साल पूरे किए हैं और ऐसा लग रहा है कि बाकी लोगों की तरह मैं विश्वविद्यालय से जुड़ी अच्छी स्मृतियां साझा कर पाती तो कितना अच्छा होता।
कैसा रहा DU का मेरा सफर?
ऐसा नहीं है कि मेरे कॉलेज के समय में मेरे साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ! घर से बाहर निकली, कुछ दोस्त बनाए, नौकरी भी की और बहुत नई चीज़ो से परिचय भी हुआ, लेकिन एक विश्वविद्यालय के तौर पर मैं DU से निराश ही हुई। मैंने गार्गी कॉलेज से बॉटनी में स्नातक किया। कॉलेज के दाखिले के समय मेरा जो उत्साह था, वो कॉलेज में घुसने के बाद दिखने वाले क्लास डिवाइड को देखते ही गायब हो गया।
कॉलेज में साफ तौर पर दो धड़े थे, एक सवर्ण, उच्च वर्ग के बच्चों का धड़ा, जिनके बच्चे हर ईवेंट में दिखते थे, ज़्यादातर वे प्रोफेसर से बात करते हुए पाए जाते थे, जो कॉलेज के साथ-साथ ‘सत्यानिकेतन’ की गलियों से रूबरू होते हुए अक्सर कॉलेज के आसपास के महंगे पीजी में रहते यानि कुल मिलाकर जिनके पास “कॉलेज लाइफ” थी।
निम्न वर्ग के स्टूडेंट्स प्रोफेसर्स के लिए अदृश्य थे
उसके बाद निम्न वर्ग के बच्चों का धड़ा था, जिसके लोग अगर किसी सांस्कृतिक सोसाइटी का हिस्सा बनना चाहते तो पढ़ाई का नुकसान और भविष्य की चिंता उन्हें ऐसा करने नहीं देती और प्रोफेसर के लिए वे अदृश्य थे या सरदर्द थे। जो पढ़ने में अच्छे भी थे, तो उन्हें कभी किसी और तरह का सपोर्ट प्रोफेसर्स से नहीं मिलता।
वहीं वे बच्चे जिन्हें अंग्रेज़ी बोलने से पहले मन में वाक्य बनाने पड़ते। मैं उसी दूसरे तबके में थी। मैं कॉलेज सेकंड इयर में फ्रीलांस अनुवादक के रूप में काम करती थी और एक रिश्तेदार के घर की छत पर बनी बरसाती में रहती थी। कॉलेज जाने, आने, खाना बनाने, बर्तन धोने और काम को वक्त देने के बाद शायद ही कभी समय मिलता कि किसी और चीज़ में सक्रिय हुआ जाए।
छोटे शहरों से आने वालों की अनदेखी
कई बार कविता लिखने की प्रतियोगिताओं में हिस्सा भी लिया तो पढ़ाई का काफी नुकसान हुआ। फिर सोसाइटी का हिस्सा बनी तो वहां की हायरार्की और एक्सक्लूज़न देख के लड़ाई कर ली और बाहर हो गई।
बारहवीं में अच्छे अंक होने के बावजूद पहले साल में कई संघर्ष रहे। बिहार के स्कूलों में कभी लैब की शक्ल नहीं दिखाई जाती थी और हमें प्रैक्टिकल के नंबर ऐसे ही मिल जाते थे। यह चलन अब भी बरकरार है। कॉलेज में पहले दिन ही केमिस्ट्री लैब में टाइट्रेशन करने कहा गया, जिसकी थ्योरी मुझे बखूबी याद थी, लेकिन उसे करने का तरीका नहीं सीखा था।
फिर इसी तरह बॉटनी लैब में माइक्रस्कोप के लिए स्लाईड बनाने से लेकर स्लाइस काटने तक, सब में दिक्कत हुई और इस दिक्कत के साथ आते थे प्रोफेसरों के ताने! जिसमें हमें “नकल मारके इतने पर्सेन्ट आ गए” से लेकर “जेल से आए हो क्या” तक सुनना पड़ता था।
दलित स्टूडेंट्स को जाति छुपानी पड़ती थी
जैसे-तैसे पहला साल कटा और जब तक सब सीखा, तब तक क्लास के अच्छे स्टूडेंट बनने की ट्रेन छूट चुकी थी। आर्थिक और सामाजिक एक्सक्लूज़न के बाद ये बौद्धिक, राजनैतिक एक्सक्लूज़न था। ज़्यादातर दलित छात्राएं अपनी जाति छिपाती और कॉलेज, खासतौर से विज्ञान संकाय का माहौल, अराजनैतिक था। हालांकि, कुछ कल्चरल सोसाइटी, जैसे स्ट्रीटप्ले, के बच्चे कई बार राजनैतिक स्टैंड लेते थे मगर ये सभी सोसाइटी भी उच्च वर्ग से आने वाले स्टूडेंट्स से ही भरी थी।
हमें पूंजीवादी प्रोपेगंडा की घुट्टी पिलाई गई
यह अराजनैतिक माहौल बॉटनी को भी अराजनैतिक बना कर देखता था। हम जी.एम. फसलों के बारे में पढ़ते थे पर कभी उसके पीछे की राजनीति नहीं बताई जाती। इकोनॉमिक बॉटनी एक विषय था, जिसमें हरित क्रांति पढ़ी पर कभी उसके नुकसान नहीं सुने। कोर साइंस के नाम पर पूंजीवादी प्रोपेगंडा की घुट्टी पिलाई गई और हम पीते रहे।
अपनी दुनिया और साउथ दिल्ली की दुनिया के बीच के फासले को समझने की बेचैनी महसूस की और किताबों का सहारा लिया। बहुत कुछ पढ़ा जो पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं था और पाठ्यक्रम का बहुत कुछ छोड़ा।
दिल्ली विश्वविद्यालय के बाहर की मेरी दुनिया
कही रिजल्ट खराब नहीं हुए क्योंकि इंटरनल को छोड़ दें तो DU की परीक्षाओं का पैटर्न इतना सेट है कि किसी भी ठीक-ठाक विद्यार्थी के लिए मार्क्स लाना ज्यादा मुश्किल नहीं होता था। कॉलेज में जब ज्यादा दोस्त नहीं बने तो कॉलेज से बाहर दोस्त खोजे, जहां परिवार से विद्रोह से उपजा खालीपन और कॉलेज में फिट ना होने की कसक, दोनो से राहत मिली।
कोर्स और कैंपस लाइफस्टाइल से तालमेल बैठाते और पारिवारिक उलझनों को सुलझाते बीते तीन साल में बहुत कुछ सीखा, पर इसमें से शायद ही कुछ विश्वविद्यालय की देन कहलाएगा। पता नहीं मेरे जैसे कितने हैं जिनके लिए DU ‘हाफ फॉरगोटेन अल्मा माटर’ है।