मेरे पिता जी मैथिल हैं, हिन्दू हैं। जाति व्यवस्था में ब्राह्मण माने जाते हैं। वक्त-वक्त पर पुरोहिती भी करते हैं। आमतौर पर माना जाता है कि मैथिल हैं, तो मांस-मछली खाने वाले ही होंगे। मेरे पिता जी मांस-मछली तो दूर, प्याज़-लहसुन भी नहीं खाते मगर वे बड़े शौक से हमारे लिए मछलियां लाते। प्याज़-लहसुन काटते और मन से पकाते। हमें चाव से खिलाते। ज़िद कर ढेर सारा खिलाते।
यही नहीं, वे सब्ज़ियां भी खूब बनाते हैं। प्याज़ और लहसुन के साथ। मुझे याद नहीं, कभी उन्होंने अपना खान-पान हम पर थोपा हो। अपनी आस्था का वास्ता दिया हो। मज़ाक उड़ाया हो। घर में जब भी ज़रूरत हुई या कोई बीमार पड़ा तो वे अंडा, मांस- मछली लेकर आए और खिलाया।
मैंने बचपन में अधिकांश मांस बलि के प्रसाद वाला ही खाया। मेरे ज़िले सहरसा के पंचवटी चौक मंदिर में बलि देने की प्रथा है। दादा जी जब तक जिंदा रहे, तब तक उनके लिए बलि का प्रसाद आता रहा। मेरे दादा जी मांस-मछली खाने के बड़े शौकीन थे। वे सरकारी नौकरी में थे। उनकी पोस्टिंग महिषी ब्लॉक में थी। वह इलाका अक्सर पानी से घिरा रहता था। मेरे चाचा बताते थे कि दादाजी अक्सर महिषी से लौटते हुए खूब सारी मछली लेकर आते थे।
रिटायर होने के बाद जब भी उन्हें मछली या मांस खाने का मन होता तो मैं ही उनके साथ खरीदने जाता था। मछली लेने के लिए हम कचहरी ढाला वाली मछली मंडी जाते थे और मांस के लिए अशरफ की दुकान पर। वे दोनों जगह बेचने वालों से खूब जिरह करते। कोई टुकड़ा हटाते और कोई दूसरा टुकड़ा देने कहते। मैं चुपचाप खड़े होकर उन्हें देखते रहता था। वो हर बार मुझसे कहते, “खरीदना सीखो, क्या लेना है और क्या नहीं यह जानना ज़रूरी है।” लेकिन मैं यह नहीं सीख पाया।
नवरात्रि के दिनों में एक बार भानू भैया के साथ उनके मामा के घर गया तो उन्होंने खाने में मांस परोस दिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि नवरात्रि में मेरे नानी घर में मांस तो दूर, प्याज़-लहसुन और सामान्य नमक भी नहीं खाया जाता था। उन्होंने मेरी स्थिति समझी और बताया कि उनके यहां नवरात्रि के दिनों में हर दिन बलि देने की प्रथा है और यह मांस उसी बलि का प्रसाद है।
आज देश में शाकाहारी, मांसाहारी की बहस चल रही है। नवरात्रि में मांस की दुकानें जबरन बंद कराई जा रही हैं। हर तरफ आस्था और भावनाओं के आहत होने का वास्ता दिया जा रहा है। सोशल मीडिया, टेलीव़िजन हर तरफ इसी का शोर है। इन्हीं शोर के बीच मुझे अपना घर-गाँव, इलाका याद आ रहा है।
धार्मिक परिवार में जन्म लेने के बाद भी कभी मांसाहारी भोजन पर नियंत्रण जैसी चीज़ नहीं देखी। मांसाहार बेचने, खाने को लेकर कभी समुदायों के बीच तनातनी नहीं देखी। मेरे दादाजी सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद पंडिताई भी करते थे। सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा जैसे आयोजनों में लोग उन्हें बुलाते थे लेकिन इससे उनके खान पान पर कभी असर नहीं पड़ा। ना ही उन्होंने दूसरों के खान पान में कभी हस्तक्षेप किया। यह सिर्फ उनकी बात नहीं है। मिथिला में तो कई त्यौहारों में मांस-मछली बनाने की प्रधानता रही है।
मिथिला के सांस्कृतिक त्यौहार कोजगरा, भैया दूज में मछली बनते देखा है। जितिया के नहाई-खाय के दिन मछली खाई जाती है और उसके अगले दिन माएं, बेटों की लंबी उम्र के लिए निर्जला उपवास करती हैं।
हमारे यहां श्राद्ध कर्म में तेरहवीं के बाद चौदहवें दिन “मांस-मछली” अनिवार्य रूप से खाया जाता है। दादी माँ गुज़रीं तो मैं सोचने लगा कि पापा तो मांस-मछली खाते नहीं है। क्या वो खाएंगे? उस दिन जब उन्होंने खाना खा लिया तो सिर्फ रीति के मुताबिक उनकी थाली में मछली गिरा दी गई।
मिथिला की शादियों में मांस-मछली खाना खास चर्चा का विषय रहता है। हर कोई अपनी खाने की लिमिट से कहीं ज़्यादा खाता है। हर टेबल पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है। मछली का मुड़ा खाना नाक की बात होती है। जो जितना बड़ा मुड़ा खाता है, उसे बारात में उतनी ज़्यादा इज़्ज़त मिलती है। लोग दो किलो, 4 किलो और इससे भी ज़्यादा वजन का मुड़ा खाते हैं और इसी तरह छककर मांस भी खाते हैं।
मेरे एक रिश्तेदार कभी प्याज़-लहसुन भी नहीं खाते हैं, बहुत धार्मिक व्यक्ति हैं। एक दिन उनके घर गया तो देखा कि मांस खा रहे हैं। पूछने पर बताया कि यह तो बलि का प्रसाद है और इसे प्याज़-लहसुन के बगैर ही पकाया गया है। वो यह प्रसाद खाते हैं।
इसलिए जब यह बहस हो रही कि महज़ मांस की दुकान खुलने भर से भावनाएं आहत हो रही हैं और आस्था को चोट पहुंच रही है, तो मैं सोचता हूं कि क्या मेरे दादा जी, पिताजी और हमारे इलाके के लोग हिन्दू नहीं हैं?
अधिकांश तो बहुत धार्मिक हैं। सुबह उठकर पूजा-पाठ करते हैं। हर छोटी बात में भगवान को याद करते हैं। कोई मुसीबत आती है तो सबसे पहले भगवान से यही कहते हैं कि इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, फलां चीज़ चढ़ाएंगे।
ऐसा करने वाले भी क्या हिन्दू माने जाएंगे? यह सवाल बार-बार मेरे ज़हन में आ रहा है। हालांकि यह बात भी कोरी कल्पना है कि अधिकतर हिन्दू मांसाहार नहीं खाते या सभी मुसलमान मांस खाते हैं। सिर्फ हमारे इलाके के लोग ही नहीं, बल्कि देश के अधिकांश लोग मांस खाते हैं और यह बात मैं नहीं, बल्कि सरकारी आंकड़े कह रहे हैं।
चौथे राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 42.8% महिलाएं और 48.9% पुरुष प्रत्येक सप्ताह मांसाहार का सेवन करते हैं।
एस आर एस सर्वे 2014 के अनुसार, भारत में 71.6% पुरुष और 70.7% महिलाएं मांस खाते हैं। बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल जैसे हिन्दू बाहुल्य राज्यों में मांसाहार का सेवन करने वाले लोगों की संख्या 90% से अधिक है। जाहिर तौर पर इसकी भौगौलिक और सांस्कृतिक वजहें हैं।
सामाजिक मुद्दों पर अध्ययन करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के अध्ययन से यह पता चलता है कि 56% हिन्दू मांस खाते हैं। अर्थात पूरे देश में सबसे अधिक मांस खाने वाले लोग हिन्दू ही हैं।
इसी अध्ययन से यह भी पता चला है कि 8% जैन और 75% बौद्ध मांसाहार का सेवन करते हैं। आमतौर पर इन दोनों धर्म के लोगों को शाकाहारी माना जाता है लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है।
प्यू रिसर्च बताता है कि 8% मुसलमान भी मांस नहीं खाते हैं। इन सभी आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि मांसाहारी भोजन का संबंध किसी धर्म से नहीं है। खानपान का संबंध कई अन्य चीजों से है, जिसमें धर्म एक बहुत छोटी सी भूमिका निभाता है।
हमारा देश विविधताओं का देश है। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम विविधताओं का सम्मान करें। जब भी ऐसा कोई विमर्श करें तो दक्षिण भारतीय और उत्तर-पूर्व को लोगों का भी ध्यान करें। देश को एक रंग में ना रंगें। एक-दूसरे की संस्कृति, आचार-व्यवहार और मान्यताओं का सम्मान करें। कोई भी आचरण ऐसा ना हो जिससे किसी अन्य मान्यता वाले व्यक्ति को ठेस पहुंचे। तभी हम अपनी विविधता में एकता वाली विशिष्टता को कायम रख पाएंगे।