36 की उम्र में दूसरी मास्टर की डिग्री लेने निकल पड़ी, ना दुनिया की परवाह की और ना ही यह सोचा कि रास्ता कितना कठिन होगा। ज़िंदगी में पहली बार अपने आत्मविश्वास की आवाज़ सुनी और अपने साहस का हाथ थाम कर निकल पड़ी विदेश अपनी ज़िंदगी को एक और मौका देने के लिए।
वैसे, सब कुछ फिर से शुरू करना कितना पीड़ादायक होता है ना? पर क्या यह मौका सबको मिल पाता है? क्या हर कोई हिम्मत कर पाता है, खुद को मिटा कर दुबारा से बनाने की? मुझमें भी यह हिम्मत कभी नहीं थी, क्योंकि हर लड़की की तरह मैं भी सपनों की दुनिया में, जो जीती थी। मैं भी अपनी खुशियों के लिए अपने परिवार, दोस्त, पति पर निर्भर रहती थी और यह भूल चुकी थी कि मेरी ज़िंदगी तब तक नहीं बदलेगी जब तक उसका पूरा नियंत्रण मैं अपने हाथों में नहीं ले लेती हूं।
कुछ वर्ष पहले जब मैं बीमार थी और मेरा वैवाहिक जीवन भी बस दम तोड़ने को था। मैं ऐसी नहीं थी, मैं हारी हुई, बेबस और टूटी हुई थी। इसलिए लिखना शुरू किया, खुद का ध्यान भटकाने के लिए बैठकर रोज़ लिखा करती थी, जो भी महसूस होता उसे कभी ब्लॉग के रूप में, तो उसे कभी कविता का रूप दे देती थी।
मैं रोज़ लिखती और थोड़ा और जी लेती थी फिर आई समाज की बेड़ियां, लोग कहने लगे पढ़ी-लिखी हो बाहर जाकर काम करो, क्या यह लिखने में अपना वक्त बर्बाद कर रही हो? कौन पढ़ेगा तुम्हें? मैं सुनती और दुखी हो जाती पर मैं लिखना नहीं छोड़ती थी।
कुछ काफी करीबी दोस्त हुआ करते थे, उनसे अपने दिल का हाल कहती रहती थी और इस बात से अनजान कि वो बस मुझे सुनते हैं, मेरी पीड़ा को महसूस नहीं कर पाते हैं। एक दिन उन्हीं में से मेरे एक दोस्त ने मुझे “विक्टिम प्लयेर” कह दिया, मैं रो पड़ी, क्योंकि विक्टिम तो मैं थी, उस वक्त अपने हालातों में पर क्या मैं वाकई विक्टिम प्लयेर थी? ये सवाल मुझे महीनों तक अंदर से कचोटता रहा पर कहते हैं ना कि अगर मुश्किलें आती हैं, तो उनसे लड़ने की हिम्मत भी अपने आप आने लगती है।
मैंने अपना घर छोड़ दिया, मैं अपने माता-पिता के घर चली गई। मैंने इसके बाद एक साल तक इंतज़ार किया कि शायद चीज़ें बदल जाएं पर कुछ भी नहीं बदला, मैंने खुद कोर्ट में डिवॉर्स फाइल किया और उसे इस रिश्ते से रिहा कर दिया, जिससे मैं बेतहाशा प्यार करती थी।
कभी-कभी जाने देने में भी एक सुख की अनुभूति होती है, अत्यंत पीड़ादायक पर अंदर एक सुकून बना रहता है, अब अगला पड़ाव था, मेरा और मेरी बेटी का भविष्य, जिसका बेड़ा मैंने अपने हाथो में उठाया, सेशन्स लिए, ट्रांसलेशन का काम किया, फ्रीलांस आर्टिकल्स भी लिखे और भी ऐसे हर मुमकिन काम करने लगी, क्योंकि अब मुझे किसी पर निर्भर नहीं रहना था।
हालांकि, मेरे घरवालों ने हमेशा मेरा साथ दिया पर अबकी बार चोट बड़ी गहरी लगी थी, वो विक्टिम प्लेयर वाली बात मेरे दिमाग में बार-बार लौट-लौट कर आती थी और उस बात से लड़ते हुए मैं अब तक तो जीती हूं पर आगे भी उस से जीत पाऊं, उस पर काम करना बाकी था।
मैंने फैसला लिया कि जब स्ट्रगल ही करना है, तो क्यों ना उसका स्तर थोड़ा ऊंचा और रोमांचक किया जाए, तो बस मैंने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए विदेश की यूनिवर्सिटीज में अप्लाई करना शुरू कर दिया। मेरे अंदर आगे पढ़ने का भूत, तो हमेशा से ही भीतर बैठा था और माता-पिता के साथ से वह और बाहर निकल आया, तो बस मैं निकल पड़ी फिर से अपनी ज़िंदगी के खुले बिखरे सिरों को समेटने।
यह सफर भी आसान नहीं है, लोग पूछते हैं मुझे इस उम्र में इतने पैसे लगाकर बाहर पढ़ाई क्यों? कब तक अकेली रहोगी? दूसरी शादी के बारे में क्यों नहीं सोचती? एक लड़की की माँ हो इतना बिंदास रहती हो? तुम्हें देखकर लगता ही नहीं कि तुम्हारा डिवॉर्स हुआ है? तुम्हें डिप्रेशन है !देखकर तो नहीं लगता?
कहीं तुम्हारे डिवॉर्स की वजह यह तुम्हारा लिखने का शौक तो नहीं? और ऐसे कई अनगिनत अटकलों से रोज़ जूझती हूं पर अब मैंने अपना सारा ध्यान अपने लक्ष्य पर केंद्रित कर रखा है और ज़िंदगी में मुझे पहली बार स्वतंत्रता का सही मतलब समझ आया है, सोचने की आज़ादी, अपने सपनों को पूरा करने की आज़ादी और अपने चुने हुए रास्ते पर चलने की आज़ादी और इससे बेहतर एहसास शायद और कुछ भी नहीं है।
ना वो लोग जो आपको आंकते हैं, ना ही दुनिया के बनाए हुए नियम कानून। आपके लिए क्या सही है? आपसे बेहतर इसे और कोई भी नहीं जान सकता, आपकी जी हुई ज़िंदगी में कितनी दरारें थी उन्हें कोई नहीं देख सकता, आपके हंसते हुए चेहरे के पीछे छुपी हुई एक स्याह उदासी की उस लकीर को कोई नहीं पहचान सकता, आपके करीबी भी नहीं, तो उस बात की फिक्र ही क्यों करनी जिसका वजूद ही नहीं है।
लोग जो कहते हैं, उन्हें कहने दें, आप वो करें, जो आपको करना है। अपनी ज़िंदगी की ज़िम्मेदारी लें और हर उस ख्याल को दूर फेंक दें, जो आपके पैरों की बेड़ियां बनता है।
प्यार,
प्रियंका