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क्या ईश्वर इतना छोटा है, “जिसे हिजाब, टोपी, जनेऊ या पगड़ी में रखा जा सके?

हिजाब

हिजाब पर कोर्ट का फैसला

हिजाब पे इतना बवाल क्यों हो रहा है आजकल? कोर्ट के फैसले पर इतना विवाद क्यों हो रहा है?

सवाल ये नहीं है कि जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत में एक आम नागरिक को जनेऊ, टोपी, पगड़ी, हिजाब इत्यादि पहनने की आज़ादी होनी चाहिए कि नहीं? सवाल ये है कि स्कूलों में भी बच्चों को इन धार्मिक चिन्हों को धारण करने का अधिकार होना चाहिए या नहीं?

सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा तो ये है कि क्या जनेऊ, टोपी, पगड़ी, हिजाब इत्यादि धार्मिक चिन्ह इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इनको कोर्ट के फैसले से भी ऊपर माना जाना चाहिए? क्या इनको धारण करने से धर्मनिरपेक्षता मज़बूत होती है  या कि धार्मिक कट्टरता ?

गुरुनानक याद आ रहे हैं मुझे

मुझे एक छोटी सी कहानी याद आती है। गुरु नानक देव जी एक बार कहीं पर पैर पसार कर सो रहे थे। उधर से एक मुल्लाजी गुज़रे, उन्होंने देखा कि गुरु नानक देव जी का पैर मक्का की तरफ था।

मुल्ला जी ने गुरु नानक देव जी पर झल्लाते हुए कहा: “क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? आपका पैर जिस तरफ है, उस तरफ खुदा का घर मक्का है?उस तरफ पाक मस्ज़िद है? आप अपना पैर दूसरी दिशा में कीजिए?”

गुरु नानक देव जी ने मुल्लाजी से कहा “भाई मैं बुढ़ा हो गया हूं और थका हुआ भी हूं, इतनी शक्ति नहीं है मेरे पास। कृपा करके आप ही मेरा पैर उस तरफ कर दीजिए जिस तरफ खुदा नहीं है।”

मुल्लाजी ने ये बात सुनकर गुरु नानक देव जी का पैर दूसरी तरफ कर दिया और आश्चर्य की बात ये कि उस तरफ ही मस्ज़िद दिखाई पड़ने लगी। मुल्लाजी बार-बार गुरु नानक देव जी का पैर किसी और दिशा में करते और बार-बार उसी दिशा में मस्ज़िद दिखाई पड़ने लगती।

कहानी का मतलब सिर्फ इतना है कि मुल्लाजी को समझ में आ गया कि खुदा तो सर्वव्यापी है, उसे किसी एक परंपरा या धारणा में बांधा नहीं जा सकता। उसे किसी एक धर्म की बपौती नहीं माना जा सकता।

आखिर क्या है धर्म का मकसद?

धर्म का मकसद एक व्यक्ति को ईश्वर, खुदा या गॉड से मिलने में सहायक होना है। इसका उद्देश्य एक जीव को परमात्मा से मिलने का मार्ग प्रशस्त करना है।

एक धर्म और उसके द्वारा बताए गए तरीके ईश्वर को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं और ईश्वर साध्य। धर्म रास्ता है और खुदा मंज़िल। जब राही एक धर्म और उसके द्वारा सुझाए  गए तरीकों को हीं मंज़िल मान ले तो क्या हो?

धार्मिक कट्टरता; मैं ही सही!

धार्मिक कट्टरता का जन्म यहीं से होता है। समस्या इस बात में नहीं है कि एक आध्यात्मिक पथ का राही इस धारणा का अनुपालन करे कि मेरा रास्ता भी सही है, बल्कि समस्या वहां  से शुरू होती है कि जब वो सोचने लगे कि मेरा रास्ता ही सही है और इससे बड़ी मूर्खता की बात कुछ हो ही  नहीं सकती।

हिजाब, टोपी, जनेऊ या पगड़ी पर बवाल कुछ इसी तरह की मूर्खता की निशानी है। कोई इस बात को साबित नहीं कर सकता कि बिना हिजाब, टोपी, पगड़ी या जनेऊ के धारण किये ईश्वर या खुदा की प्राप्ति नहीं हो सकती?

क्या ईश्वर इतना छोटा है, जिसे हिजाब, टोपी, जनेऊ या पगड़ी में रखा जा सकता है? यदि ऐसा है तो वो खुदा नहीं हो सकता और यदि ऐसा नहीं है तो आखिर किस बात की लड़ाई?

न्यायालय के फैसले का सम्मान होना चाहिए

फिर इन चीजों पर इतना बवाल क्यों?और खासकर स्कूलों में पहनने के लिए इतनी ज़िद क्यों? स्कूल तो एक बच्चे के सर्वांगीण विकास करने का माध्यम है, वहां  पर धार्मिक कट्टरता को किसी भी कीमत पर प्रोसत्साहित नहीं किया जाना चाहिए।

धर्म निरपेक्षता का मतलब धार्मिक उन्माद और धार्मिक कट्टरपन का प्रोत्साहन कतई नहीं हो सकता। कोर्ट इस तरह का सराहनीय प्रयास कर रही है, तब उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के विपरीत, हमें न्यायालय के फैसले का सम्मान करना चाहिए।

वैसे भी समय-समय पर भारतीय कोर्ट ने ये साबित किया है कि वो भारतीय धर्मनिरपेक्ष जनतान्त्रिक व्यवस्था को कायम रखने में हमेशा से अग्रणी भूमिका निभाता रहा है और इस बार भी वैसा ही कर रहा है।

वर्तमान समय में माननीय कोर्ट अपना कार्य सर्वथा उचित तरीके से कर रहा है। माननीय कोर्ट के हिजाब वाले फैसले से धार्मिक निरपेक्षता को प्रोत्साहन मिलेगा और धार्मिक कट्टरपन का ह्रास होगा। ऐसे  सामयिक और मज़बूत फैसले लेने के लिए भारतीय न्यायालय निश्चित रूप से प्रशंसा का पात्र है ना कि आलोचना का।

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