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हिंदूओं को बरगलाने के लिए काफी है फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’

कश्मीर फाइल्स

द कश्मीर फाइल्स का एक दृश्य

2014 से शुरू हुई हिन्दू-मुस्लिम अखंडता अब तक सिर्फ नेताओं के सिर पर चढ़ कर बोल रही थी, वहीं अब हम देख सकते हैं कि आमजन मानस भी उस हांडी का हिस्सा बन चुका है, जिसमें हिन्दू मुस्लिम-अखंडता का खाना पक रहा है।

बॉलीवुड का नया मसाला

कोविड, बेरोज़गारी ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि बॉलीवुड के निर्देशक भी उन चर्चों और विषयों को ढूंढने लगे, जहां से वो मसाला भुना  सकें और कमाई कर सकें।

जहां तक देशभक्ति की बात करें तो यहां कतई भी यह भावना कहीं से भी कहीं तक नज़र नही आती। ये कौन सी देशभक्ति है? जहां देश को जोड़ने की नहीं बल्कि तोड़ने की बात को प्राथमिकता दी जा रही है।

आज कल आस-पड़ोस को देख कर तो यही डर लगता है कोई कब आ जाए और हमला बोल दे। हमारे घर में बेटियां, माँ , बहनें हैं मगर जब इंसानी दिमाग में नफरत का खून दौड़ता है, तो कुछ नज़र नहीं आता?

कृष्णा सोबती का जिंदगीनामा

फिलहाल के दिनों में मुझे कृष्णा सोबती जी द्वारा लिखा गया उपन्यास ज़िंदगीनामा याद आता है, जहां भारत के विभाजन के समय की उस दुर्दशा का चित्रण किया गया है, जब एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी का दुश्मन बन जाता है और शुरू होता है खूनी खेल।

 

इस  उपन्यास में लेखिका ने देश का वो चेहरा लिख कर बताया था कि यदि ऐसी स्तिथि आती है, तो इसमें भावनाओं को स्थिर रखें और शांत हो कर एक-दूसरे की मदद करें लेकिन वहीं अगर हम आज की बात करेंगे तो यहां तो दृश्य ही अलग है। लोगों को बांधने नहीं तोड़ने का काम किया जा रहा है।

द कश्मीर फाइल का पहला दृश्य

इस फ़िल्म का पहला सीन ही नकरात्मक है, जिसमें एक मुसलमान आदमी को बच्चों को मारते हुए दिखाया है। वहीं फिर सब बोलते हैं “पाकिस्तान ज़िन्दाबाद बोल” यहीं से शुरू होता है नफरत का तानाबाना!

अगले ही पल में एक माँ को उसकी बेटी के सामने गोली मार दी जाती है, इसके बाद एक एक डायलॉग और एक एक सीन ऐसा लग रहा है जैसे हर फिल्म से एक एक विभत्स सीन उठा लिया गया हो और इस फ़िल्म में ठूस दिया गया हो।

सबसे बड़ी गलती ये है कि इस फ़िल्म में मुस्लिम समुदाय की धार्मिकता को तार-तार किया गया है। इसमें यह बात साफ नज़र आ रही है कि सेंसर बोर्ड ने किस के कहने पर इस फ़िल्म को पास किया

हिन्दू धर्म को उकसाने के लिए भगवान शिव की तस्वीर को आग लगाते हुए दिखाया गया। बेशक ये एक संदेश हो मगर किसी पूजनीय को राख के हवाले किया गया। पूरी फिल्म में किसी एक विशेष समुदाय को आहत किया गया है।

जेएनयू; शिक्षा नहीं आतंकवाद

द कश्मीर फाइल्स का एक दृश्य

विश्व की मशहूर यूनिवर्सिटीज में से एक जेएनयू की छवि को इस तरह दिखाया गया है कि जैसे वहां शिक्षा नहीं आतंकवाद को बढ़ावा दिया जा रहा हो और उसी की ट्रेनिंग दी जा रही हो। ये शर्मनाक है, मुझे व्यक्तिगत तौर पर इस गन्दी सियासत से इतनी नफ़रत हो चुकी है कि मैं किसी नेता का नाम सुनते ही नकरात्मक और क्रोधित हो उठता हूं।

दिल्ली में स्थित यूनिवर्सिटी को फिल्मों में इस तरह दिखाया गया, क्या यहां के मुख्यमंत्री को भी नहीं नज़र आ रहा?  केजरीवाल जी कई मामलों में देश के महान नेताओं की तरह गूंगे और बहरे बन जाते हैं।

किसी भी यूनिवर्सिटी के लिए ऐसा सीन क्रिएट करना निंदनीय है, अशोभनीय है। यहां आज़ादी का नाम ले-लेकर समाज की बुनी हुई चादर की खूब धड़ल्ले से बखिया उधेड़ी गई है।

हर दृश्य में आपको भाव नहीं ज़हर देखने को मिलेगा। मुस्लिम धर्म की धार्मिक भावनाओं को आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है, जहां एक दृश्य में बताया गया है कि अल्लाह ने कहा कि काफिर लोगों का इलाज नहीं करना चाहिए। ये बात धार्मिक आस्था को झकझोर कर रख देने का दम रखती है।

कौन हैं, ये काफिर?

वहीं,  मैं एक विषय और समझाना चाहता हूं कि मुस्लिम धर्म में काफिर शब्द हिंदुओं के लिए नहीं बल्कि यहूदियों और नास्तिकों के लिए कहा गया है साथ ही  खुदा के अलावा दूसरे धर्म को मानने वालों को मुशरिक कहा गया है अर्थात शिर्क करने वाला!  इसका मतलब ये हुआ कि अल्लाह के अलावा ईश्वर पर यकीन रखने वाला।

लेकिन समाज ने काफिर शब्द को इतना आम और घिनौना बना दिया, जो दुसरे हो एक गाली की तरह लगता है, जबकि ये भी एक वैसा ही शब्द है जैसा आस्तिक और नास्तिक!

फिल्म में शिया मुस्लिम समुदाय की पवित्र किताब “तोहफ़्तुल आवाम” के लिए भी कोरा झूठ बयां किया गया है यानि  फिल्म में बताई गई इस किताब का एक एक अंश झूठा है और बे-बुनियाद है और हम (शिया) क्लेम भी नहीं कर सकते, क्योंकि सरकार इसमें भी हमारी कोई गलती निकाल देगी।

मुस्लिम धर्मगुरुओं को गाली देने से क्या होगा?

मूवी हॉल  में मेरा दम घुटने लगा था। वहां लोगों की गालियां, मुस्लिम धर्म को गालियां, धर्म गुरु को अपशब्द और नारों का तो पूछिये मत! इस बार दिल्ली में यह फिल्म देख कर नारे लगाए जा रहे हैं  कि देश के मुल्लाओं को, गोली मारो सालों को।

फ़िल्म में कृष्णा की शक्ल में एक समुदाय को जगाने की कोशिश की गई है, जगाना क्या बल्कि भड़काना! हिन्दू धर्म को सनातनी होने का ध्यान दिला कर आज के हिंदू नौजवानों को बरगलाने के लिए के 3 घण्टे की मूवी काफी है किसी मुसलमान को गोली मार कर सुलाने के लिए।

जयकारों से फिल्म हाल ऐसा गूंज रहा था, मानो मैं किसी धार्मिक अनुष्ठान में बैठा हूं। बच्चा-बच्चा मुस्लिम को कुछ- ना-कुछ  बोल रहा था, कोई आतंकवादी, कोई कटवा, और कोई कठमुल्ले।

 

फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री के लिए मेरा एक ही संदेश है कि 15 करोड़ रुपए  की लागत से बनाया गया ज़हर का कुंआ किस काम का है?  जो समाज में नफ़रत और मार-काट को फैलाने के लिए जाना जाएगा।

आप पर देशभक्ति का नहीं बल्कि राजनेताओं की भक्ति का नशा ऐसा चढ़ा कि आपने देश में वो स्थिति लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जो विभाजन के समय थी, आप की सोच और आपकी इस कला पर मैं धिक्कारता हूं।

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