8 मार्च वैसे, तो यह दिन साल के बाकी दिनों की तरह है पर इस दिन को एक खास वजह से भी याद किया जाता है, क्योंकि इस दिन को पूरा विश्व अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाता है जिसका मूल मकसद है कि समाज में महिलाओं के अधिकार और उनके सामाजिक अस्तित्व की अनदेखी के लिए समाज में जागरूकता पैदा की जाए।
हर देश की तरह हमारे देश में भी यह दिन 8 मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है पर क्या हम इस दिन को हैशटैग और सोशल मीडिया की रंगीन दुनिया से हट कर भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भी सेलिब्रेट करते हैं?
यह सवाल हमें खुद से करने की ज़रूरत है, क्योंकि हमें अपने देश की कानून व्यवस्था को देखते हुए इस बात पर एक प्रश्नचिन्ह सा महसूस होता है। देश के हालात दिन-प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हैं। देश में रेप की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और इन दिनों देश में ऑनलाइन बुलिइंग की काफी घटनाएं भी बहुत तेज़ी से आम होती दिख रही हैं और देखा जाए तो इन घटनाओं में महिलाओं को दोष देते हुए या उनके कपड़ों पर टिप्पणी करते बहुत लोग आपको सरेराह दिख जाएंगे।
ऐसे अगर इस समस्या की जड़ में जा कर देखा जाए, तो इसका सबसे बड़ा कारण भारतीय पुरुष की यौन हताशा है और साथ ही एक-दूसरे के धर्म के प्रति फैलाई जा रही नफरत भी आग में घी का काम कर रही है, जिसे कड़ाई से नियंत्रित किया जाना चाहिए। भारत का इतिहास भी देश के पुरुष प्रमुख देश होने की गवाही देता है।
यहां की ऐतिहासिक गाथाएं भी हमारी सोच को पितृसत्तात्मक मूल्य की ओर ले जाती हैं और इस तानेबाने को तोड़ने के लिए हमें पितृसत्तात्मक मूल्य प्रणाली को जड़ से समाप्त करना चाहिए और एक नए रूप से एक प्रणाली का पुनर्गठन करना चाहिए जिसमे दोनों लिंगों को समनाता का दर्ज़ा मिलता हो और जो एक महिला को पुरुष के साथ खड़ा होने के लिए सक्षम मानता हो।
हमारे देश के कानून में बहुत सारी ऐसी धाराएं मौजूद हैं, जो कि महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए सक्षम हैं पर इन सब के बावजूद हर दिन कोई नई घटना अखबारों में या सोशल मीडिया पर हमें देखने को मिल ही जाती है। चाहे वो महिलाओं के पहनावे के नाम पर हो या धर्म या जाति के नाम पर हो, हाल में ही जो कर्नाटक में हुआ, वो इसका एक स्पष्ट उदाहरण है कि जहां धर्म को आधार बना कर मुस्लिम महिलाओं को उनके हिजाब को उतारने के लिए, उन्हें मज़बूर किया गया और उनको अपमानित करने का प्रयास किया गया।
इस घटना के अलावा बुल्ली बाई नामक वेबसाइट बना कर मुस्लिम महिलाओं की बोली लगाई गई है, वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो किसी खास पॉलिटिकल आइडियोलॉजी से विपरीत हटकर समाज में काम करना चाहती थीं। ऐसी घटना के एक और उदाहरण के रूप में पिछले वर्ष हुए हाथरस रेप केस को भी देखा जा सकता है, जहां एक जाति विशेष की महिला के साथ दुष्कर्म करके, उसके शव को बिना उसके घरवालों की सहमति के बिना प्रशासन की मिलीभगत से उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
हम इस देश में जहां एक तरफ दुर्गा को पूजते हैं, तो दूसरी तरफ देश की महिलाओं को अपमानित और लज्जित करते हैं। अभी भी वक्त है कि हम अपने समाज को यह भी बतलाएं कि महिला केवल पुरुष की लालसा या गृहिणी और बाल उत्पादन मशीन नहीं बल्कि उससे भी ऊपर बहुत कुछ है।
इस बदलाव के लिए हमें आज के दौर में बन रहे वीडियो एडवरटाइजमेंट्स पर भी बदलाव की सख्त ज़रूरत है, जहां महिलाओं को एक कामुक वस्तु के रूप में परोसा जाता है, जो एक नई घिनौनी मानसिकता को जन्म देने का काम करता आ रहा है।
आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन हमें दोबारा से यह प्रण लेने की ज़रूरत है कि हम एक ऐसे समाज का निर्माण करें, जहां महिलाओं को सम्मान के साथ समाज में एक आम पुरुष की तरह सभी मानवीय कार्यों को पूरा करने के अधिकार मिलें।
हमें इस बात पर ज़रूर चिंतन करना चाहिए कि हम सिर्फ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन सोशल मीडिया पर ही बदलाव लाएंगे या फिर धरातल पर भी कुछ बदलाव के लिए संघर्ष करेंगे।