Site icon Youth Ki Awaaz

महिलाओं के अस्तित्व को लेकर समाज और परिवार में बदले सोच, तब ही बदलेंगे हालात

महिलाओं के अस्तित्व को लेकर समाज और परिवार में बदले सोच, तब ही बदलेंगे हालात

किसी भी समाज में स्त्री की भूमिका हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है जिसकी पहचान देश-दुनिया, राज्य, समाज और घर-परिवार को तब हुई जब अमेरिका के न्यूयार्क शहर के सड़कों पर करीब 15 हज़ार महिलाएं नौकरी के निश्चित घंटे, वेतन और वोटिंग के अधिकार के साथ-साथ हर जगह अपने लिए स्वतंत्रता, समानता और विश्व बंधुत्व के लिए संगठित हुईं तब से आज तक महिलाओं की स्थिति में हर रोज़ बदलाव हो रहा है, वो हर रोज़ किसी-ना-किसी क्षेत्र सफलता की नई कहानी रच रही हैं परंतु देश-दुनिया की सबसे छोटी इकाई पहले परिवार में और फिर समाज में उनके लिए आज भी हालात सुकून भरे नहीं है।

ज़रूरत है परिवार और समाज में सोच बदले, तभी बदलेंगे हालात

आज की महिलाएं छोटे-से-छोटे काम के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं। मोबाइल फोन और साइकिल-स्कूटी की रफ्तार ने आधी-आबादी के जीवन में एक हद तक उसकी स्वतंत्रता को गतिशीलता दी है परंतु देश-दुनिया, राज्य, समाज और परिवार में आज भी वो अपने लिए समानता की ज़मीन तलाश कर अपने अस्तित्व को सम्मानजनक बना रही है।

महिलाएं अपने जीवन में जुड़े हर व्यक्ति से वह समानता वाला सम्मान चाहती हैं, जो जाने-अनजाने में उसको कमतर होने का एहसास करा देते हैं। “महिलाएं कमज़ोर होती हैं, लड़की है ना, लोग क्या कहेगें, चुपकर ज़ोर से मत हंस, लड़कियों का ज़्यादा बोलना सही नहीं” जैसी कई बातें समाज के सामाजिक ढांचे की परिकल्पना में उनके अस्तित्व को चुनौती देती  रहती हैं जिससे मुक्ति पाना परिवार और समाज की सोच बदले बिना संभव है ही नहीं।

कमज़ोर नहीं हैं महिलाएं

“महिलाएं कमज़ोर होती हैं” यह वाक्य महिलाओं को कमज़ोर समझकर हर महिला के आत्मविश्वास, उसके अंदर सशक्त होने वाली हर चीज़ की मिट्टी-पलीद कर देता है, साथ-ही-साथ महिलाओं में मौजूद नैसर्गिक गुण भावुकता, जीवंतता और संवेदनशीलता जैसे मानवीय मूल्यों को पीछे ढ़केल देता है जबकि यही मानवीय मूल्य किसी भी महिला को समाज में माँ, बहन, पत्नी, दोस्त या अन्य संबोधन से कमज़ोर नहीं बल्कि एक बेहतर नागरिक बनाते हैं।

यह मूल्य ना केवल महिलाओं को सशक्त करते हैं बल्कि समाज में उनकी एक अलग छवि भी बनाते हैं, सिर्फ एक महिला होने के कारण महिलाएं कमज़ोर कतई नहीं हैं। “महिलाएं कमजोर होती हैं” इस तरह के तानों से कमज़ोर पड़ने की ज़गह स्वयं को प्रेरित करना ज़्यादा ज़रूरी है कि आधी-आबादी अपने जीवन की बागड़ोर मानवीय मूल्यों के आधार पर खुद को संभाले हुए है। 

शौर्य, साहस और मानवीय मिसाल के क्षेत्र में जैसे-जैसे महिलाओं की उपलब्धियां हर रोज़ बढ़ रही है ठीक उसी तरह “महिलाएं कमजोर होती हैं” जैसे वाक्य भी कमज़ोर पड़ रहे हैं।

जीवंतता की तलाश में हैं महिलाएं

घर-परिवार, समाज-राज्य और देश-विदेश में हर जगह महिलाएं अपने लिए जिस जीवंतता की तलाश में हैं, वह अभी तक सफर में ही है, मंज़िल तक नहीं पहुंच सका है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं सामान्य अवरोधों के बाद पूरी हो जाती हैं।

आर्थिक स्वतंत्रता और उसकी अपनी पहचान ज़रूर महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बदलाव ला रहे हैं परंतु वह मुस्कुराने, गाहे-बगाहे गीत गुनगुनाने, किसी अदृश्य ताल पर थिरकने जैसी जीवंतता की तलाश में भी हैं, जिसकी डोर केवल उसके हाथों में ही हो। 

कई परतों में दबी हुई उसकी स्वतंत्रता ना ही बाज़ार में बिकने वाली फेयरनेस क्रीम के उपयोग से मिलती है, ना ही अपने पसंद का कोई परिधान या आभूषण पहनकर। उसके लिए अपने साथ रह रहे लोगों में फ्रिक और स्वयं के लिए एक दबाव मुक्त जीवन ही, उसकी जीवंतता है, जिसके लिए वह आज भी महदूद है।

अनावश्यक डर से मुक्त नहीं हैं महिलाएं

बलात्कार, तेजाब फेकें जाने, सबक सिखाने वाली सोच ही नहीं, घर के अंदर और घर के बाहर छोटी बच्ची से लेकर हर उम्र की महिलाएं एक अनजाने डर से मुक्त नहीं हैं जबकि प्रथम दृष्टया वह इसके लिए ज़िम्मेदार भी नहीं हैं फिर भी सामाजिक सोच और मान्यताएं उसको ही दोषी मानती हैं जबकि परिवार, समाज और परिजनों को महिलाओं के पक्ष में खड़ा होना चाहिए और दोषियों के मन में डर का खौफ होना चाहिए। 

एक अनजाने डर में घिरा हुआ महिलाओं का जीवन महिलाओं को सामाजिक मानसिकता से कभी स्वतंत्र होने ही नहीं देता है। इसी डर के कारण हमारे परिवार और समाज में स्वतंत्रता के पैमाने पर आज भी महिलाओं का जीवन बहुत हद तक स्वतंत्र होने के बाद भी समाज की सामाजिक बेड़ियों में परतंत्र है।

मानवीय तुलना की आवश्यकता

जब हम सभी क्षेत्रों में स्त्री और पुरुष को समान रूप से देखते हैं, तो स्वतंत्रता के परिप्रेक्ष्य में स्त्री की तुलना पुरुषों से क्यों करते हैं? महिलाएं जब तक स्वयं को एक महिला होने से पहले मनुष्य नहीं मानेगी, तब तक उसकी स्वतंत्रता और समानता दोनों की बाधा वह स्वयं ही बनती रहेगी।

स्त्री-पुरुष के बीच में तुलना दोनों की जैविक यथास्थिति के आधार पर सभंव ही नहीं है और ना ही वैचारिकी आधार पर लेकिन  हमारे घर-आंगन-समाज में जब-जब महिलाएं आग में तपकर कुंदन की तरह निखरकर सामने आती हैं, उनकी तुलना या तो पुरुषों के साथ की जाती है या जैविक आधार पर उसकी यथास्थिति निश्चित कर उसकी उपलब्धि को दायरे में सीमाबद्ध करने की कोशिश होती है।

आधी-आबादी अपनी तमाम उपल्ब्धियों की मानवीय आधार पर मूल्यांकन चाहती है पर वह ज़मीन अभी तक कोसों दूर है। महिला के रूप में उसका अस्तित्व बहू, बेटी, माँ, भाभी, चाची, मौसी जैसी सामाजिक मान्यताओं में कैद है और उसकी पहचान स्वयं के स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश में है।

Exit mobile version