केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी, उस समय विकास के जिन क्षेत्रों पर फोकस किया गया था, उनमें सड़क भी महत्वपूर्ण थी। इसी सरकार में पहली बार सड़कों के विकास पर गंभीरता से ध्यान दिया गया! एक तरफ जहां स्वर्णिम चतुर्भुज के माध्यम से महानगरों को आपस में जोड़ा गया, तो वहीं दूसरी ओर गाँव तक सड़कों की हालत सुधारी गई।
परिणामस्वरूप देश के गाँवों का तेज़ी से विकास हुआ, इससे शहरों तक पहुंचना बहुत आसान हो गया। वर्तमान केंद्र सरकार भी सड़कों की हालत को सुधारने पर काफी ध्यान दे रही है, विशेषकर राष्ट्रीय राजमार्गों को एक्सप्रेस वे से जोड़ने का लाभ इसके आसपास के गाँवों को मिल रहा है।
कपकोट का झोपड़ा गाँव जहां नहीं कोई सड़क
लेकिन अब भी देश के ऐसे कई दूर दराज़ के क्षेत्र हैं, जहां सड़कों का पूरी तरह से अभाव है। इसकी कमी से ना केवल गाँव का विकास ठप्प पड़ गया है बल्कि लोगों का जीवन भी कठिन हो चुका है। सड़कों की कमी से गाँव के बुज़ुर्गों से लेकर महिलाओं और छात्र-छात्राओं तक को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के ऐसे बहुत से दूर-दराज़ के गाँव हैं, जहां आज भी पक्की सड़कों का पूरी तरह से अभाव है और इसकी कमी से गाँव के लोगो का जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका है।
इसकी एक मिसाल बागेश्वर जिला अंतर्गत कपकोट ब्लॉक का झोपड़ा गाँव है। करीब 300 लोगों की आबादी वाले इस गाँव में पहुंचने के लिए कच्ची और टूटी सड़कें ही एकमात्र सहारा हैं।
भारी वाहन वसूलते हैं, मनमानी कीमत
यह सड़कें भी इतनी जर्ज़र हो चुकी हैं कि इस पर किसी गाड़ी का गुज़रना कठिन है और यही कारण है कि कोई भी व्यावसायिक वाहन इस गाँव की ओर आना नहीं चाहता है और यदि तैयार भी होता है तो वह इसके लिए मुंह-मांगी कीमत वसूलता है, जो यहां रहने वाले गरीबों के लिए वहन योग्य नहीं है।
पक्की सड़क नहीं होने पर सबसे अधिक परेशानी गर्भवती महिलओं के प्रसव के समय अथवा बुज़ुर्गों को अस्पताल ले जाने के समय आती है। आपातकाल चिकित्सा की ज़रूरत के बावजूद वे समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते हैं, क्योंकि सड़क खराब होने के कारण उन्हें अस्पताल पहुंचने में बहुत ज़्यादा समय लग जाता है।
मरीज़ समय पर पहुंच ही नहीं पाते हैं अस्पताल
खराब सड़क की वजह से ऐसे ही हालात आए दिन गर्भवती महिलाओं के साथ देखने को मिलते हैं। कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि रास्ता खराब होने के कारण उन्हें अस्पताल पहुंचने में समय लग जाता है, जिस कारण से उनकी तबीयत और भी ज़्यादा बिगड़ जाती है और वे अपनी जान गंवा देतीं हैं।
डॉक्टर अक्सर ऐसी महिलाओं को हर तीन महीने पर अल्ट्रासाउंड करवाने की सलाह देते हैं मगर यहां रास्ते इतने खराब हैं कि शहर के अस्पताल जाने की बात तो दूर! वे गाँव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंच नहीं पाती हैं।
ऐसे ही कई मरीजों को वक्त पर उपचार ना मिलने से अपनी जान गंवाना पड़ती है।
बरसात के दिनों में और जानलेवा स्थितियां
साथ ही वर्षा या अत्यधिक बर्फ़बारी के दिनों में यह समस्या जानलेवा बन जाती है। गाँव वालों का मानना है कि गाँव में कई मौतें केवल इसी कारण हुई हैं कि खराब सड़क होने के कारण परिजन मरीज़ को लेकर समय पर अस्पताल नहीं पहुंचा सके? यदि सड़क पक्की होती तो कई जानों को समय रहते बचाया जा सकता था।
सड़क नहीं होने का खामियाज़ा केवल मरीज़ों को ही नहीं बल्कि बालिकाओं को भी भुगतना पड़ रहा है। इसकी वजह से उनकी शिक्षा छूट गई है। गांव की किशोरियां पक्की सड़क के अभाव में समय पर स्कूल नहीं पहुंच पाती हैं और रास्ता खराब होने के कारण उन्हें दूसरे रास्ते से स्कूल जाना पड़ता है, जिसमें उनका काफी समय बर्बाद हो जाता है।
सड़क का अभाव लड़कियों की शिक्षा में रोड़ा
किशोरियां बताती हैं कि एक तो उन्हें घर का काम करना पड़ता है ऊपर से केवल स्कूल आने जाने में ही उनके 3 घंटे बर्बाद हो जाते हैं। ऐसे में वे पढ़ाई कैसे जारी रख सकती हैं? ग्रामीण समाज वैसे भी लड़कियों की उच्च शिक्षा का पक्षधर नहीं होता है।
ऐसे में सड़क की सुविधा का अभाव इस मानसिकता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है।
सड़क की कमी के कारण स्कूल तक परिवहन की सुविधा भी उपलब्ध नहीं हो पाती है, जिससे बच्चों को प्रतिदिन 6 किमी पैदल स्कूल आना जाना करना पड़ता है। हालांकि, कोरोना महामारी के कारण पिछले दो सालों से बच्चे इस मुसीबत से बचे हैं लेकिन परिस्थिति सामान्य होने और दोवारा स्कूल खुलने से उनकी समस्या एक बार फिर सामने खड़ी हो गई है।
शिक्षा की ललक रखने वाली कई छात्राएं अभी से इस समस्या के बारे में सोचकर तनावग्रस्त हो गई हैं। कुछ जागरूक माता पिता इस स्थिति को समझते हुए और बच्चों के उज्जवल भविष्य की खातिर गाँव छोड़कर शहर जा चुके हैं, ताकि खराब सड़क के कारण उनके बच्चों की शिक्षा प्रभावित न हो।
शिक्षक हों या अधिकारी नहीं आना चाहते, यहां
ऐसी ही स्थिति शिक्षकों की भी है, जो बेहतर सड़क नहीं होने के कारण गाँव के स्कूल में आना नहीं चाहते। इससे लिखने-पढने की पूरी प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है और इसका नकारात्मक प्रभाव बच्चों पर पड़ता है, जो शिक्षा जैसे अनमोल मोती को पाने से वंचित रह जाते हैं।
कच्ची पगडंडी पर हमेशा फिसलने का डर सताता रहता है और यही कारण है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी यहां अपनी पोस्टिंग नहीं करवाना चाहता है और यदि हो भी जाती है तो वह या तो ड्यूटी पर ही आता नहीं है या फिर अपनी ऊर्जा वापस ट्रांसफर करवाने में ही खर्च कर देता है।
वहीं, अगर बरसात के दिनों की बात की जाए तो एक तो रास्ता कच्चा, उसपर से गीला और पानी भरा हुआ! जिस सड़क पर बिना वर्षा के ठीक से चला नहीं जाता हो, उस रास्ते पर भला बारिश के दिनों में कोई कैसे चल सकता है?
सड़क की दुर्दशा को भोगते और भी कई गाँव
ये सड़क की बदहाली की दास्तां केवल झोपड़ा गाँव तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यहां से 25 किमी दूर शामा गांव भी इसी मुश्किल से गुज़र रहा है। वहां की एक किशोरी राधा देवी कहती है कि पक्की सड़क के अभाव में गाँव वालों का जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका है, इससे जहां आम आदमी परेशान है वहीं छात्राओं का भविष्य भी अंधकारमय है।
किसान अपनी फसल को समय पर मंडी तक नहीं पहुंचा पा रहा है और ना ही फसल का लागत ही निकाल पाता है। वहीं, डॉक्टर या अन्य स्वास्थ्यकर्मी भी इस गाँव में आने से गुरेज़ करते हैं।
ऐसे में सरकार और प्रशासन को इस बात को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है ताकि इन दूर दराज़ के गांवों की समस्या हल हो सके और वह भी विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें।