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महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय पाना अब भी चुनौती है

A photo of women in panchayats

A photo of women in panchayats

दुनियाभर में महिलाओं ने अपने संघर्षों के ताप से अपने जीवन को सम्मानजनक बनाने का काम किया है और इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है।

परंतु, आज भी घर के  और घर के बाहर की दुनिया में कुछ सामाजिक व्यवहार मौजूद है, जो उनके सामाजिक न्याय को चुनौती देेते रहते हैं। चाहे खास (कोई पद विशेष) महिला हो या आम! वह इन सामाजिक व्यवहारों से मुक्त नहीं है।

विश्व सामाजिक न्याय और महिलाएं

20 फरवरी को हम विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाते हैं, आइए समझते हैं, क्या है वो सामाजिक व्यवहार जो आज भी महिलाओं के सामाजिक न्याय को चुनौती देते रहते हैं

स्वयं को शिक्षित करना, अपने पैरों पर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए अस्तित्व को चीरते ताने सुनना, पूरी दुनिया में महिलाओं का यह संघर्ष ज़रा भी कम नहीं हुआ है।

औरत हो तुम, अपनी हद में रहो और हद में रखने के तमाम ताने, नियम-कायदे, जिससे महिलाएं हर रोज़ चौबीस घंटे रूबरू होती रहतीं हैं और जिसकी वजह से वो अंदर-ही-अंदर टूटती हैं मगर फिर स्वयं को समेटती हुई खड़ी हो जातीं हैं, वो ठहरती नहीं हैैं, हमेशा गतिशील रहतीं हैं।

अकुंश लगाते सामाजिक व्यवहार

महिलाओं के हक में समानता के अधिकार दिलाने के लिए बहुत से कानून बने है। परंतु, घर-परिवार और समाज में कुछ सामाजिक व्यवहार इस तरह के हैं, जिसको लेकर कोई कानून या नैतिक मर्यादा बने ही नहीं हैं

मसलन, रंग, रूप, आकार, कद कुछ मामलों में उनको, उनकी पसंद और पहनावे के कारण भी घर और घर के बाहर दोनों ही जगहों पर शोषण ही नहीं अनचाहा नियंत्रण भी झेलना पड़ता है।

बॉडी शेमिग से बॉडी लैंग्वेज़ तक का कायदा

ज़ोर से मत हंसो, ऐसे मत बोलो, ऐसा मत पहनो, तुम मोटी या इतनी पतली क्यों हो? इतनी गोरी या काली क्यों हो? एक नहीं कई नसीहतें महिलाओं के साथ घर ही नहीं, घर के बाहर कार्यस्थल पर चिपकी रहतीं हैं।

बांडी शेमिंग या रंगभेद को लेकर भारत में सीधे तौर पर कोई कानून नहीं है। अनुच्छेद 14 किसी भी तरह के भेदभाव और असमानता पर अधिकार तो देता है पर येन-प्रकरेन कारणों से महिलाओं तक सामाजिक न्याय पहुंच ही नहीं पाता है। हाल ही के समय में इन चीज़ों को लेकर थोड़ी जागरूकता आई है पर अभी भी वह सामाजिक व्यवहार से कोसो दूर है।

सामाजिक व्यवहार पर नियंत्रण भी न्याय की कड़ी

सैटल कब हो रही हो? शादी कब कर रही हो और उसके बाद मां कब बनोगी? बुढ़ापे में कौन संभालेगा? यह सवाल आत्मनिर्भर होने और नहीं होने पर भी महिलाओं के साथ चिपके रहते हैं, जो स्वतंत्र रूप से महिलाओं के जीवन में सामाजिक न्याय को प्रवेश करने ही नहीं देते हैं। घर-परिवार ही नहीं कार्यस्थल पर भी यह सवाल चुनौती बनकर खड़े रहते हैं।

महिलाएं स्वयं स्वतंत्र रूप से दामत्य और मातृत्व के फैसले के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार है या नहीं? इसका फैसला कभी कर ही नहीं पातीं हैं। स्वयं को सामाजिक पायदान के सफलता के शीर्ष पर स्थापित करने के बाद भी उन्हें व्यक्तिगत रूप से मुक्ति भले ही मिल जाए, पर सामाजिक व्यवहार वहां भी मौजूद रहता है।

किसी दूसरे पर पुन: सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए, महिलाओं के जीवन में सामाजिक न्याय लाने के लिए सबसे पहले इस पर अंकुश लगाना सबसे जरूरी है, जो महिलाओं को स्वतंत्र रूप से एक इकाई के रूप विकसित होने का मौका नहीं देते है।

वैतनिक भेदवाव हर ज़गह

चाहे संगठित क्षेत्र हो असंगठित क्षेत्र महिलाओं का वेतन/पारिश्रमिक पुरुषों के मुकाबले कम होता है। कई बार तो समान पद पर अधिक ज़िम्मेदारी से कार्य करने के बाद भी वेतन कम होता है।

समान परिश्रमिक अधिनियम 1976 समान प्रकृति के काम के लिए स्त्री-पुरुष के बीच समान वेतन की वकालत करता है मगर यह अधिनियम नियुक्ति प्रक्रिया में किसी भी प्रकार के भेदभाव को नहीं रोक पाता है।

मातृत्त्व अवकाश में भी शर्तें

मातृत्व अवकाश के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं को तमाम सुविधाओंं का लाभ मिलता है परंतु अगर वहां भी अनुबंध के आधार पर अगर नियुक्ति है, तो कोई लाभ नहीं मिल पाता है।

निजी क्षेत्र में भी मातृत्व लाभ के लिए नियम और शर्तें लागू होती हैं, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की दुनिया में सामजिक न्याय अभी भी कोसो दूर है।

कार्यस्थल पर व्यवहार और सम्मान की लड़ाई

कार्यस्थल में फिर चाहे वह संगठित क्षेत्र हो या असंगठित! निजी क्षेत्र हो या सार्वजनिक, महिलाओं के काम की तुलना हमेशा पुरुषों से होती है।कई बार बिना वज़ह ही अधिकारी रोके रहते हैं, अगर वह असहजता प्रकट करती है तो तरक्की में या महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी देने में आना-कानी होने लगती है।

महिलाएं अपने कार्यस्थल पर सहकर्मी के व्यवहार और उनसे सम्मान पाने का सामाजिक न्याय चाहतीं हैं, जिसके लिए कमेटियों के सुझाव आते हैं मगर वह धरातल पर गंभीरता से काम करते नहीं दिखते हैं। समाज में स्त्री की भूमिका सदा से महत्वपूर्ण रही है, लेकिन इसका मान उसे नहीं मिलता।

समाज सोच गढ़ता है और जड़ सोच स्थिति बदलने नहीं देती लेकिन इसमें बदलाव ज़रूरी है। खुद स्त्री के मन के स्तर पर, घर-परिवार में और समाज की सोच में!

घर के अंदर और घर के बाहर दोनों जगह अनुकूल महौल का निमार्ण ही महिलाओं के जीवन में सामाजिक न्याय का रास्ता खोल सकता है और तभी स्त्री के लिए हालात सुकून भरे होंगे।

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