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क्यों हमारे देश में सफाईकर्मियों को समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता है?

क्यों हमारे देश में सफाईकर्मियों को समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता है?

महज़ 10 साल की उम्र में इस बात से मैं अनजान थी कि आसपास सफाई और घर में बर्तन-झाड़ू करने वाले सफाईकर्मियों को किसी विशेष समारोह या त्यौहारों पर नेग देने की परंपरा क्यों है! उन दिनों हमारी गली में कचरा उठाने एक जोड़ा आया करता था। वे दोनों पति-पत्नी इतने कर्मठ कि किस घर से कितना कचरा निकलता है और कितनी दूरी पर ढेर रखा होगा, यह सब आंख बंद कर बता सकते थे। बेशक कई सालों से वो मेरी गली में आते रहे होंगे। मैं बारजे (छज्जे) से उन्हें तब तक निहारती थी, जब तक वे लोहे की कूड़े गाड़ी के साथ मेरी नज़रों से ओझल नहीं हो जाते थे। 

उस दिन सुबह के 6 बज रहे थे। घर के दरवाज़े की घंटी बजने पर जब मैंने अधकचरी नींद में दरवाज़ा खोला, तो वही जोड़ा मेरे सामने खड़ा था। उनके साथ में कुछ और भी लोग थे, जिन्हें मैं नहीं जानती थी शायद वे धोबी या नाई रहे होंगे।

उन्होंने मुझसे कहा कि घर में किसी बड़े को बुला कर लाओ। मैंने घर में बता दिया कि कोई अंकल-आंटी आए हैं। अम्मा बोली इतनी सुबह? हालांकि, घर में धूमधाम से शादी करने के बाद अम्मा को पहले से अंदाज़ा थाम शायद इसलिए अम्मा ऐंठे मुंह बोली डोम-चमार ही होंगे और कौन होगा इतनी सुबह !

सफाईकर्मियों की प्रतीकात्मक तस्वीर।

पूर्वांचल और कुछ अन्य क्षेत्रों में डोम-चमार जैसे शब्द गाली के तौर पर भी इस्तेमाल किए जाते हैं। कुछ लोग इन्हें गंदगी उठाने वाला/ मैला उठाने वाला भी कहते हैं। पूर्वी पृष्ठभूमि से होने के कारण मैं ऐसी कई व्यक्तियों से परिचित थी। इनके लिए हमारे समाज में इन शब्दों के अलावा कोई और उपयुक्त शब्द है या नहीं? इसकी खास जानकारी ना होने के कारण मैंने भी कह दिया हां, डोम अंकल और डोम आंटी आए हैं।

सालों बाद जब मुझे उस एक शब्द का पता चला “सफाईकर्मी” तो मेरा पहला सवाल अपने परिवार से ही था कि हम इन्हें सफाईकर्मी क्यों नहीं बुलाते हैं? ज़्यादातर लोगों का कहना था कि आदत नहीं है जुबां पर जो चढ़ गया बस चढ़ गया।

भारत में एक वर्ग तक सीमित है सफाई

सड़कों, गलियों, नालों की साफ-सफाई करने वालों को हम सफाईकर्मी कहते हैं। हालांकि, इन्हें अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है मसलन कोई इन्हें स्वीपर तो कोई जमादार या डोम-चमार कहता है।

भारत में सफाई एक पेशा है, जिसे हमारे समाज में कुछ चुनिंदा जातियों के लिए ही बचा कर रखा गया है। इन जातियों में भंगी, मेहतर, डोम आदि शामिल हैं। जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय के लोगों ने साफ-सफाई का बोझ अपने माथे पर ले रखा है। उनकी अपनी ज़मीन ना होने के कारण ये लोग खानाबदोश हैं।

सफाईकर्मियों की बस्तियों की प्रतीकात्मक तस्वीर।

कुछ अपने राज्य को छोड़ दूसरे राज्यों में चले जाते हैं जैसे छत्तीसगढ़ में उड़ीसा से आए सफाईकर्मी मिल जाएंगे। तमिलनाडु में आंध्र प्रदेश के सफाईकर्मी। बिहार और उत्तर प्रदेश के सफाईकर्मी, तो देश के लगभग सभी हिस्सों में हैं। इनकी अपनी अलग बस्ती है जिसे हम भंगी टोला या डोमखाना के नाम से जानते हैं।

जापान में सफाई का प्रशिक्षण नागरिकों को बचपन से दिया जाता है

सफाईकर्मियों को लेकर आम लोगों की सोच लगभग सभी क्षेत्रों में हमें ऐसी ही देखने को मिलती है। ऐसे में हमें अपने देश में जापान मॉडल की ज़रूरत महसूस होती है। चाहे ट्रेनों और प्लेटफॉर्म की सफाई हो या फिर सार्वजनिक शौचालय जापान के लोगों की सफाई के प्रति दीवानगी तो देखिए।

वहां लोगों का शिंतो व्यवस्था में विश्वास है। इसमें पारम्परिक शुद्धिकरण पर ज़ोर दिया जाता है। जापान के लोगों में सफाई के प्रति आदर इस कदर है कि बचपन से ही बच्चों को पर्सनल और पब्लिक हाइजीन की जानकारी देने के साथ ही ज़मीनी स्तर पर लागू भी कराया जाता है।

जापान में बच्चों को बचपन से सिखाई जाती है सफाई।

अभिभावकों को स्पोर्ट्स किट, किताब और अन्य चीज़ों के साथ सफाई करने वाले कपड़े भी खरीदने होते हैं, क्योंकि स्कूल में बच्चे पहले ही दिन से क्लास और लंच के बाद अपनी डेस्क को साफ करते हैं। स्कूल पहुंचने पर छात्र अपने जूते उतारकर लॉकर में रख देते हैं और ट्रेनर पहन लेते हैं।

लंबी कक्षाओं के बाद छात्र घर जाने के लिए अपने बस्ते के साथ डेस्क पर बैठ कर अपने शिक्षकों का इंतज़ार करते हैं, ताकि वे आकर उन्हें सफाई की ज़िम्मेदारी बांट दें। इस तरह छात्र जब बड़े होते हैं, तो अपनी जगह और सफाई को लेकर उनकी अवधारणा स्कूल से निकलकर पड़ोस, शहर और फिर पूरे देश तक फैल जाती है। 

वहां की गलियां कचरे से मुक्त रहती हैं और इससे भी खास बात यह है कि यहां आपको बहुत कम सार्वजनिक कचरे के डिब्बे देखने को मिलेंगे, क्योंकि लोग अपने साथ अपना कचरा भी खुद ही घर ले जाते हैं। स्कूली पाठ्यक्रम में सामाजिक चेतना और सफाई के प्रति जागरूकता शामिल करने के कारण बचपन से ही बच्चों के अंदर अपने परिवेश के प्रति गर्व की भावना विकसित कर दी जाती है।

“पढ़ो लिखो वरना बाद में कूड़ा कचरा उठाने की तौबत आ जाएगी।” अगर आपको इस जटिल सत्य से रूबरू कराया गया है, तो मैं विश्वास मान लूंगी कि आप भारतीय हैं। वहीं दूसरी ओर जापान में बचपन से ही बच्चों को कूड़ा-कचरा उठाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है।

भारत में स्वच्छता को लेकर विशेष बजट या स्वच्छता स्कीम से ज़्यादा आम जनमानस में जागरूकता और सामाजिक व्यवहार की ज़रूरत है। स्वच्छ भारत मिशन को मज़बूती देने वाले खुद प्रधानमंत्री मोदी भी सफाईकर्मियों के पैर धोकर उन्हें सम्मानित कर चुके हैं, जो देश के लिए बेहतरीन संदेश था। सफाई किसी समुदाय या जाति तक सीमित ना होकर सभी की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी बन जाए, तो ऐसे में भला कौन गंदगी करना चाहेगा?

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