पिछले कुछ दिनों से लगातार हर जगह चाहे वो टीवी हो या सोशल मीडिया केवल और केवल हिज़ाब ही मुख्य मुद्दा बना हुआ है, कोई इसके पक्ष में है, तो कोई एकदम ही खिलाफ।
कर्नाटक राज्य के एक कॉलेज का मामला इतना तूल पकड़ेगा यह मैंने सोचा भी नहीं था, छात्र-छात्राओं से होते हुए ये बात देश की राजनीतिक गलियारों तक पहुंच गई और अब ये मेरे शहर में भी दस्तक देने लगी है। विद्यार्थियों को सरकार से क्या सवाल करना चाहिए और आज वे क्या सवाल कर रहे हैं यह हमें सोचना चाहिए।
मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि जबरन एक समुदाय को क्यों निशाना बनाया जा रहा है? किसी के पहनावे से पढ़ाई का क्या लेना-देना है?
( हां, अगर यूनिफॉर्म ना पहन कर कोई और पोशाक पहने, तो कॉलेज प्रशासन आवश्यक कार्यवाही ज़रूर करे) जहां तक मेरी समझ है हिज़ाब, घूंघट, पर्दा जो भी है सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं और ये सभी सिर को और सीने को ढ़कने का काम करते हैं और इससे किसी भी प्रकार की किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
देश का एक बहुत बड़ा तबका हिज़ाब के विरोध में आ गया है और उनका तर्क है,”नहीं यह गलत है शिक्षा की जगह पर सबको एक ही पोशाक में आना चाहिए।”
भाई मेरे ये कैसे संभव है? भारत अनेकता में एकता की बात करता है। यहां नाना प्रकार की भाषा, अनेक प्रकार की बोलियां, अनेकों धर्म, अनेक प्रकार के त्यौहार, अनेकों रीति-रिवाज़, हर जगह का अलग पहनावा भारत अनेक रंगों से सजे मोतियों की एक माला है जिसे संविधान नाम के धागे में बड़े ही खूबसूरती से पिरोया गया है अगर आप एक भी मोती के रंग को बदलने का चेष्टा करेंगे, तो यह खूबसूरती नष्ट हो सकती है।
हिज़ाब का विरोध करने वालों का अपना तर्क है और कुछ छुपा हुआ मकसद भी हिज़ाब को ये वर्ग महिलाओं के अधिकारों का हनन बताते है और घूंघट को संस्कार। देखिए क्या दोगलापन है, क्योंकि मैंने इन्हीं लोगों को कभी घूंघट के विरोध में कुछ बोलते नहीं सुना।
शिकायत मुझे हिज़ाब का समर्थन कर रहे लोगों से भी है, क्योंकि ये लोग इसे इस्लाम का अभिन्न अंग बता रहे हैं अगर हिज़ाब इस्लाम का हिस्सा होता, तो ईरान जैसे इस्लामिक राष्ट्र में हिज़ाब के विरोध में हज़ारों महिलाएं सड़कों पर प्रदर्शन नहीं करतीं।
मै
मैंने मौलानाओं को सुना उन्होंने बताया कि महिलाओं को अपना सिर और सीने को ढ़कना ज़रूरी है, ताकि किसी पुरुष की नियत ना डोल जाए मतलब पुरुष अपने ठरक को काबू में रखने के लिए हिज़ाब पर जोर देते हैं और सबको इसे धर्म का हिस्सा बताते हैं।
आज एक लड़की ने मुझसे कहा की “ऋग्वेद में फलां श्लोक में लड़की के सिर ढ़कने का उल्लेख है तुम ऋग्वेद पढ़ो पता चलेगा”। एक तो मुझे नहीं लगता कि सच में ऐसा कुछ लिखा होगा ऋग्वेद में (मेरे घरवाले थक गए मुझे धर्म का पाठ समझाते-समझाते पर मैने आज तक कोई धार्मिक पुस्तक को ढंग से पूरा नहीं पढ़ा , क्योंकि मेरे समझ में धर्म आज हमें केवल मज़बूर करता है, मज़बूत नहीं)
और अगर ऋग्वेद में ऐसा कुछ लिखा भी है, तो वो आज से 4-5 हज़ार वर्ष पहले की सामाजिक परिस्थितियों को लेकर लिखा गया है। आज हम अपने ढंग से जिएंगे कोई धार्मिक पुस्तक यह तय नहीं करेगी कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं? वैसे भी अगर हम सब इतना ही धार्मिक पुस्तकों को गंभीरता से लेते, तो देश में बलात्कार जैसी घटनाएं ही नहीं होतीं, पता नही ये बलात्कार करना किस पुस्तक में लिखा गया है?
हिज़ाब को लेकर लोग लड़ रहे हैं, तो कोई इसे धर्म का हिस्सा बोल रहा है कोई इसको पितृसत्तात्मक समाज का रूप कह रहा है पर सच्चाई से किसी को मतलब नहीं है।
चलो मैंने मान लिया कि दुनिया के सभी धर्मों में औरतों को पूरे तन को ढकने के लिए कहा गया है, चाहे उसे गर्मी लगे या खुजली हो, उसकी मर्जी हो या ना हो पर उस औरत का कौन सा धर्म है? ये कौन बताएगा?
जो मुझे अभी रेल्वे स्टेशन के बाहर अधनंगी रूप में अपने बच्चे को दूध पिलाती हुई महिला दिखी और उस के बच्चे के तन पर भी कपड़ा नहीं था और बच्चा उस बेजान से शरीर से दूध का एक बूंद पाने के लिए उसे लगातार चूस रहा था। उस भूखे बच्चे का क्या धर्म? किसी को नहीं पता, उस बिना कपड़ो की औरत का क्या धर्म है? नहीं पता, हां अगर उसने हिज़ाब लगाया होता या घूंघट काढ़ा होता, तो शायद मैं बता देता कि किस धर्म की है?
भूख का क्या धर्म है? किसी को नहीं पता मंदिरों में सोने का मुकुट चढ़ाया जाता है, मजारों पर फूलों की चादर चढ़ाई जाती है पर देश में ऐसी हज़ारों औरतें और बच्चे हैं जिनके तन पर ना कपड़ा है और ना भूखे पेट के लिए निवाला शायद इसलिए भी इनका यह हाल है, क्योंकि इनका कोई धर्म नहीं है अगर होता तो धर्म के रक्षा के नाम पर रक्तपात करने वाले इनके लिए रोटी और कपड़ा का इंतज़ाम तो कर ही देते।