भारत में अगर आज आप किसी को बताते हैं कि आपको खांसी और बुखार है, तो ज़्यादातर लोग आपको कोविड जांच कराने की ही सलाह देंगे जिस देश में टीबी के मामले सबसे ज़्यादा हैं, उसके लिए ये एक बड़े हैरानी की बात है। इससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली बात है कि आज भी यहां कोई डॉक्टर शायद ही कभी किसी को ज़्यादा खांसी की शिकायत होने पर टीबी जांच के लिए कहते होंगे। मेरी भी कहानी कुछ ऐसी ही थी।
फरवरी 2018 की बात है, जब मैं बीमार रहने लगी। मुझे लगातार खांसी, सांस फूलना, पीठ के ऊपरी दाहिने हिस्से में दर्द, कमज़ोरी, बुखार जो आता-जाता रहता था, ऐसे लक्षण थे। मुझे सिर दर्द रहने लगा और साथ ही मेरा वजन भी घट गया था। डॉक्टर ने कुछ महीनों की मेरी शारीरिक जांच के बाद परीक्षा के तनाव को इसका कारण बताया, क्योंकि मैं अक्सर सारी रात पढ़ा करती थी।
कुछ महीनों बाद भी जब मैं ठीक नहीं हुई, तब डॉक्टर को लगा कि शायद मुझे टीबी है और उन्होंने मुझे स्किन टेस्ट कराने की सलाह दी। आखिरकार अगस्त 2018 में मैं एक पल्मोनॉलजिस्ट के पास गई, जहां जांच के बाद मुझे पता लगा कि मुझे टीबी है। इस जांच के दौरान, मैंने दो पल्मोनॉलजिस्ट डॉ. नितिन मोरे और डॉ. ज़रीर उदवाडिया से सलाह ली। उस समय मैं ये नहीं जानती थी कि मुझे टीबी के साथ एक लंबा सफर तय करना था।
9 महीने के एक लंबे टीबी इलाज से मेरे सफर की शुरुआत हुई लेकिन मेरी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ जिसके बाद जून 2019 में मेरे डॉक्टर ने ब्रोंकोस्कोपी की और मेरे बलगम को जांच के लिए भेजा। इस जांच के बाद हमें ये पता लगा कि मुझे टीबी का और भी खतरनाक रूप डीआर टीबी है। मैंने अपने डॉक्टर से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि डीआर टीबी या ड्रग रेज़िस्टेंट ट्यूबरक्यूलोसिस में टीबी बैक्टीरिया पर इलाज में दी जाने वाली आम दवाओं का असर नहीं होता है, तो इसके लिए और कड़ी दवाएं चलानी पड़ती हैं।
ये जानकर मैंने राहत की सांस ली कि ये बीमारी खतरनाक ही सही लेकिन लाइलाज नहीं है। इसका इलाज बहुत दर्दनाक था। दवाओं की वजह से मुझे उल्टी जैसा लगता और कई दिन चलना तो दूर, मैं बिस्तर से उठ तक नहीं पाती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरे पेट में आग लग गई हो। हर वक्त मुझे कमज़ोरी महसूस होती थी, ठीक से खा भी नहीं पाती थी और बहुत सोती थी। मेरी त्वचा का रंग भी लाल हो गया था। इन साइड इफेक्टस की वजह से मुझे अपने डॉक्टर को दवाई बदलने के लिए कहना पड़ा।
इस इलाज का मेरे शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ा। मैं पहले से ही पतली थी, लेकिन इसकी वजह से और पतली और कमज़ोर हो गई। कॉलेज जाते हुए कई बार मैं बेहोश हो गई। मेरी तकलीफें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रहीं थी और आखिर में मैंने कॉलेज जाना ही बंद कर दिया। मुझे एसिडिटी, सिर में तेज़ दर्द जैसी दिक्कतें भी होने लगी। मैंने लोगों से बात तक करना बंद कर दिया था।
इस इलाज में टैबलेट के साथ इंजेक्शन भी थे। हफ्ते में 5 दिन इंजेक्शन लेना बहुत कठिन था। डॉक्टर आई.वी.(IV) या आई.एम. (IM) की मदद से मुझे इंजेक्शन लगाते थे। एक दिन तो मैं मेरे डॉक्टर के सामने रोने लगी, क्योंकि आई.वी.(IV) से दवा इंजेक्ट करने के लिए नसें नहीं थीं और आई.एम. (IM) देना संभव नहीं था, क्योंकि शरीर में जगह-जगह सूजन थी और जिस जगह वो मुझे आई.एम. (IM) इंजेक्शन देती थी, वह नीली पड़ गई थी।
मेरी ज़िन्दगी बहुत बदल गई। इतने तनाव की वजह से मुझे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। मैं ज़ल्द-से-ज़ल्द ठीक होकर अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी, लेकिन मैं नहीं जानती थी कि यह इलाज इतना लंबा होगा। मेरी तकलीफों को देखकर मेरे माता–पिता टूट गए थे।
मैं एक लड़की होकर इन परेशानियों का सामना कर रही थी, जिसके कारण उन्हें मेरे भविष्य, शादी, नौकरी और विदेश जा पाउंगी या नहीं ऐसी बातों की चिंता सताने लगी। इसके साथ ही पैसे की कमी भी एक बड़ी चिंता थी, लेकिन हमने किसी तरह काम चलाया।
मेरा एक छोटा भाई है, जो उस समय 8 साल का था। मैं इतना डर गई थी कि कहीं मेरी बीमारी उसे ना हो जाए इसलिए मैं उससे बात नहीं करती थी, ना उसके साथ खेलती थी। यहां तक की मैंने उससे मिलना भी बंद कर दिया था। हालांकि, मेरे माता-पिता ने हमेशा मेरा साथ दिया लेकिन उनके मन में ये सवाल हमेशा था कि मुझे टीबी कैसे और क्यों हुआ?
इसके इलाज के लिए पहले मैं एक सरकारी अस्तपताल में ही गई लेकिन मरीज़ों के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था। मुझे ऐसा महसूस कराया गया कि टीबी होना मेरी ही गलती है। मुझे सरकारी अस्पतालों पर पहले भी कम भरोसा था, इन सबके बाद मेरा बचा-खुचा भरोसा भी टूट गया।
सरकारी अस्पतालों में इस तरह के बर्ताव की वजह से ही मैं प्राइवेट अस्पताल में गई, क्योंकि प्राइवेट में इलाज कराना मेरे लिए आर्थिक रूप से संभव था, पर उन गरीबों का क्या जो टीबी का शिकार बनते हैं? क्या उन्हें भी इसी तरह टीबी होने पर बुरा महसूस कराया जाता है? इसकी बजाय, होना तो ये चाहिए कि उन्हें ऐसा महसूस हो कि उनकी देखभाल, पोषण और दवा, सबका ध्यान स्वास्थ्य सिस्टम रखेगा। हमें सरकारी इलाज की नीतियों को बेहतर बनाने की सख्त ज़रूरत है।
इन जांचों और इलाज का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर भी बहुत गहरा असर पड़ा। परिवार के कुछ लोग और करीबी दोस्तों के सिवा बाकी सबसे मैंने अपनी बीमारी को छुपाया। समाज में लोग अक्सर मरीज़ों को तरस भरी आंखों से देखते हैं, अजीबोगरीब सवाल पूछते हैं और ऐसे अलग बर्ताव करते हैं जैसे कि हम अछूत हों।
कोई मरीज़ शायद ही ऐसा चाहता होगा। मेरी ज़िन्दगी में एक वक्त तो ऐसा था, जब मैं जीना ही नहीं चाहती थी। ये मेरे इलाज के शुरुआती दिनों की बात थी। मैं इतने ज़्यादा दर्द में थी। मैं उस समय जैसा महसूस कर रही थी, उसके बारे में अपने मेंटर को बताया और उन्होंने मेरी मदद की, ताकि मैं इन सबसे उबर सकूं। इस घटना के बाद ज़िन्दगी के बारे में मेरा नज़रिया बदल गया।
मैंने ये मान लिया कि मुझे टीबी है और मुझे याद है कि डॉ. ज़रीर उदवाडिया ने कहा था कि दुख-दर्द के बारे में हम जितना सोचें उतना ही ये बढ़ेगा, सब दिमाग का खेल है, तब मुझे ऐसा लगा कि मेरा दर्द बर्दाश्त से ज़्यादा इसलिए हो गया था, क्योंकि मेरा ध्यान सिर्फ दर्द पर है, इलाज से ठीक होने पर नहीं।
ऐसा मानते ही मेरी सोच सकारात्मक हुई और मुझे इलाज पूरा करने में सहायता भी मिली। इसके बाद मेरे लिए चीज़ें थोड़ी आसान हो गईं। उस मुश्किल वक्त में भी मैंने अपनी खुशी ढूंढ ली। आप मेरी बातों को बचकाना कह सकते हैं लेकिन मैं दवा लेने से पहले उनसे बात भी किया करती थी और कहती थी कि “तुम मेरी तबीयत को बेहतर बनाओगे”। ऐसा करने से मुझे लगने लगा कि मैं ठीक होने के एक कदम और करीब हूं और वो दिन आ ही गया जब मैं पूर्णरूप से टीबी मुक्त हो गई।
मेरी किस्मत अच्छी थी कि मैं टीबी को हरा पाई जब कि हमारे देश में लाखों आज भी उससे जूझ रहे हैं। कई डॉक्टर तो टीबी और उसके इलाज के बारे में कुछ जानते तक नहीं, जिसकी वजह से गलत जांच और इलाज हो जाती हैं और इलाज में डॉक्टर्स की लापरवाही से सही इलाज में देरी हो जाती है, जिसका भुगतान उस मरीज़ को करना पड़ता है।
टीबी का इलाज तभी हो सकता है, जब इसकी जांच ज़ल्द-से-ज़ल्द और सही हो और साथ ही डॉक्टरों और हमारे देश के स्वास्थ्य सिस्टम में टीबी जागरूकता की भी सख्त ज़रूरत है। डॉक्टरों को शुरूआती दिनों में ही ड्रग सेंस्टिविटी टेस्ट कराने की सलाह देनी चाहिए, ताकि मरीज़ को सही समय पर समुचित इलाज मिल सके। मरीज़ों के मन में अपनी जांचों या इलाज को लेकर जो भी सवाल हों, उन्हें अपने डॉक्टर से बेझिझक पूछना चाहिए।
एमडीआर टीबी का इलाज मुफ्त, सम्मानजनक, भेदभाव के बिना और पूरे सहयोग के साथ मिलना चाहिए। इसका महंगा इलाज होने के कारण कई मरीज़ इसका इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। देश में सब नागरिकों को स्वस्थ जीवन जीने का पूरा अधिकार है और किसी की आर्थिक स्थिति की वजह से उसे यह इलाज ना मिले, तो यह सरासर गलत एवं देश के स्वास्थ्य तंत्र पर एक ज़िम्मेदाराना सवाल है।
जो लोग टीबी से जूझ रहे हैं उनके और उनके परिवारों के लिए इस अंधेरी गुफा के बाद अंत में रौशनी आपका इंतज़ार कर रही है। सही इलाज, करीबियों के सहयोग और प्यार से टीबी को हराया जा सकता है। इन्हीं सबसे मैं अपने इलाज को पूरा कर पाई हूं। यह मत सोचिए कि ये कैसे हुआ? मैं ही क्यों? इसकी जगह इस बात पर ध्यान दीजिए कि अब हमें आगे क्या करना है, क्योंकि टीबी जैसा रोग किसी को भी हो सकता है लेकिन टीबी का इलाज है।
नोट- तेजल जंगम, एमडीआर टीबी सर्वाइवर हैं साथ ही सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी से भी जुड़ी हुई हैं। ये मुंबई में रहती हैं और वहीं काम करती हैं।