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वैज्ञानिक चेतना की कहानी ‘रॉकेट ब्वॉयज़’ में महिलाएं फिट हो भी कैसे सकती हैं?

भारतीय वैज्ञानिक उपलब्धियां यह बताती हैं कि आज़ादी के उस दौर में एक नहीं! कई महिला वैज्ञानिक, चेतना के दम पर जेंडर आधारित पूर्वाग्रहों को झेलते हुए बेमिलास उपलब्धियां दर्ज कर रहीं थीं।

जेंडर आधारित पूर्वाग्रह हर जगह

लेकिन आजाद भारत की वैज्ञानिक चेतना क्या जेंडर पूर्वाग्रह से ग्रसित थी? इसलिए “रॉकेट ब्वॉयज” की कहानी में कोई महिला वैज्ञानिक दिखती ही नहीं है।

आग और पहिये की खोज के बाद पशुपालन और फिर खेती शुरू की गई। मनुष्य के सोच सकने की क्षमता ने, उसने चिंतन करके, नए परिवेश को जानना शुरू किया, प्रकृति और बह्मांड के बारे में मानवीय परिकल्पना उसके भौतिक परिवेश को बदलती रही है।

बदला हुआ भौतिक परिवेश मनुष्य के चितंन की अमूर्त परिकल्पनाओं से मूर्त विचारों, पर्यवेक्षण, आकंलन और सृष्टि व प्रकृति संबंधी ज्ञान में रूपांतरित कर रहा था और  यहीं से शुरू हुई मानव सभ्यता में विज्ञान की कहानी।

यह यात्रा समय के अनेक पड़ावो से गुज़रते हुए,  आज जहां पहुंची  है, वह उपलब्धियों का एक आश्चर्यलोक है। भारत के लिए यह सफर पहले राजा-महराजा और शासकों के रहम-ओ-करम!  फिर अंग्रेजी सरकार के अनुदानों और आजाद भारत में अनेक उम्मीदों पर धन के सीमित संसाधनों से शुरू हुआ।

रॉकेट ब्वॉयज! कौन?

भारत में विज्ञान के सफर में कई वैज्ञानिक अपनी-अपनी चेतना से  लकीरें छोटी-बड़ी कर रहे थे और देश को साइंटफिक टैपरामेंट की नई बुलंदियों पर ले जाना चाहते थे, जिसमें सीवी रमन, जगदीश चंद्र बोस, होमी भाभा, विक्रम साराभाई, रजा रमन्ना और अब्दुल कलाम जैसे अन्य कई नाम शामिल हैं, जिन्होंने सीमित संसाधनों के बीच भारत को विज्ञान के क्षेत्र में बुलंदियों तक पहुंचाने का सपना देखा और धीरे-धीरे नई इबारत लिखते चले गए।

कम शब्दों में कहा जाए, तो सोनी लिव पर रिलीज़ हुई वेब सीरिज़ आजाद भारत की वैज्ञानिक चेतना की कहानी है, जिसमें  वैज्ञानिक महत्वकांक्षा भी है रोमांस भी है।

साथ-ही-साथ  देशभक्ति, आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा है और सबसे बड़ी बात “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा” का जज्बा भर ही नहीं है, बल्कि अपनी गलतियों से सीखने का हौसला भी है।

शुरू से अंत तक बांधे रखने वाली कहानी

ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लिव पर स्ट्रीम हुई “रॉकेट ब्वॉयज” बेव सीरीज, जो अभय पन्नू, अभय कोराने और कौसर मुनीर के निर्देशन और जिम सरभ, इश्र्वाक सिंह, रेजिना कसांड्रा, सबा आजाद, दिब्येंदु भट्टाचार्य, रजित कपूर, नमिता दास और अर्जुन राधाकृष्णन के अभिनय से सजी है।

भारत के एटामिक एनर्जी प्रोग्राम और स्पेश प्रोग्राम के महत्वकांक्षी परियोजना के उतार-चढ़ाच ही नहीं बल्कि इस परियोजना से  जुड़े वैज्ञानिकों के जीवन के जज़्बातों की  खीचा-तानी और  खो रही स्मृतियों को खोजकर-टटोलकर ये बेव सीरिज़ रख देती है।

पहला रॉकेट स्पेस और आर्थिक चुनौती

देश के 75वें  गणतंत्र दिवस के समय! जब  फिल्म परमाणु और मिशन मंगल की कहानी ने इस सत्य और तथ्य पर मिट्टी डालकर खूबसूरत फूल का पेड़ लगा दिया है कि देश में ना ही कभी परमाणु परीक्षण हुआ था न ही कभी अतंरिक्ष में सेटलाइट भेजा गया है, तब  “रॉकेट ब्वॉयज”  बेव सीरिज इसको सच्चाई की सतह पर लाकर पटक देती है।

कहानी बताती है कि आजादी हासिल करने के संघर्ष  में और आजादी हासिल करने के बाद भी देश के महान वैज्ञानिक आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ राजनीतिक हालात के भी शिकार हो रहे थे, वो नए भारत की तस्वीर बनाना तो चाहते थे मगर उनके हाथ कितने बंधे हुए थे।

उस वक्त देश ना ही सूई बना रहा था और ना ही साइकिल! नए मशीनी बदलाव से मजदूर कितने परेशान थे।

इन सभी अनिश्चिताओं के बीच भारतीय वैज्ञानिक भाभा, विक्रम साराभाई और रजा रमन्ना आपसी मतभेदों से लड़ते-भिड़ते हुए भी देश के अंदर साइंटिफिक टैपरामेंट को कम नहीं होने दे रहे थे, तभी वो पहला वाटर रियेक्टर बनाने में भी कामयाब हुए और पहला रॉकेट, स्पेस में भेजने में भी।

पूरी कहानी आशा-निराशा के डोर को थामे हुए काफी संतुलित तरीके से आगे बढ़ती है और कमोबेश छह घंटे तक दर्शकों को बांधे रखती है।

बेहतरीन अभिनय पर कमी खटकती है

बेवसीरिज “रॉकेट ब्वॉयज” में हर कलाकारों का अभिनय बेमिसाल से थोड़ा भी कम नहीं है। कहानी में आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद के भारत के जीवन वेश-भूषा को बहुत हद तक उतारने की कोशिश की है।

सेट, साज-सज्जा, परिधान पर भी अच्छा काम हुआ है। हर कलाकार अपने अभिनय से बांधने की कोशिश करता है और कामयाब भी होता दिखता है।

कमियां दिखती हैं,  तो वह यह कि कहानी में वैज्ञानिक रजा रमन्ना को हद से अधिक निगेटिव दिखाने की कोशिश की गई है, जबकि वह एक मात्र वैज्ञानिक थे जो होमी भाभा के अचानक मौत के बाद देश के परमाणु ऊर्जा के कर्ता-धर्ता थे।

क्या उनका मुस्लिम होना ही, उनकी तमाम उपलब्धियों या कामयाबी पर बट्टा लगाने के लिए काफी था! निर्माता-निर्देशक के लिए ?

बेशक यह कह कर उन्होंने कम से कम सीरिज़ देखने वालों के मन में यह बात बैठा दी है कि आजाद भारत में मुस्लिम लोगों में वैज्ञानिक चेतना का अभाव था और जिनमें था भी तो वो अति महत्वकांक्षी थे, जिसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है।

महिला वैज्ञानिकों के साथ न्याय नहीं!

वहीं, दूसरी तरफ तमाम वैज्ञानिकों के बीच में महिला चरित्र का मात्र प्रेमिका के रूप में दिखना बहुत अधिक खटकता है, जबकि दुनिया जानती है कमला सोहनी 1933 तक साइंस की दुनिया में भारत के तरफ से डॉक्टरेट की डिग्री पाने वाली पहली महिला बन चुकीं थीं।

सीवी रमन में पूर्वाग्रही सोच की महिलाएं वैज्ञानिक नहीं हो सकती हैं, जिसके खिलाफ उन्होंने गांधीवादी तरीके से प्रतिरोध के बाद सीवी रमन के इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया।

अन्ना मणि, असीम चटर्जी, कमल रणदिवे,  ई.के.जानकी अम्माल, आनंदीबाई गोपालराव जोशी, दर्शन रंगनाथन जैसी महिलाएं गुलाम भारत में ही अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकीं  थीं। आजाद भारत में विज्ञान के क्षेत्र में इन महिलाओं ने बेमिसाल उपलब्धियां दर्ज़ की हैं।

क्या महिला वैज्ञानिकों की चर्चा इसलिए भी नहीं हुई, क्योंकि सीरिज का  नाम “राकेट ब्वॉयज’ ” है और इस शब्दावली में महिलाएं फिट नहीं बैठती हैं। भारतीय महिला वैज्ञानिकों की उपलब्धि और संघर्षों के बारे में जानने के लिए हमें महिला वैज्ञानिकों कि सीरीज का इतंज़ार करना होगा।

गौरतलब है कि इस सीरिज को तीन लेखक-निर्देशकों ने मिलकर बनाया है  लेकिन क्या तीनों में से किसी के भी ज़हन में यह बात नहीं आई कि वह जो कहानी कह रहे हैं , उसमें कौनसी बातें मिसिंग हैं, फिर वो भारत के वैज्ञानिक, चेतना के इतिहास को एकांगी या वास्तविक संदर्भ से कटा हुआ देखना चाहते हैं?

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