अमीश श्रीवास्तव की चर्चित शॉर्ट फिल्म ‘बिस्कुट’ (2022) देखने का अवसर मिला। फिल्म देश की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर सटीक टिप्पणी है। देश में चुनावों के माहौल के मद्देनज़र यह फिल्म प्रासंगिक बन पड़ी है। आधे घंटे से कुछ अधिक की यह पेशकश बड़े संदेश दे जाती है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं। हम सबका ध्यान फिलहाल उसी ओर है। ऐसे में यह फिल्म अपनी ओर ध्यान खींचती है। अपने विषय एवं क्वालिटी के दम पर कई पुरस्कार अपने नाम कर चुकी सामान्य सी दिखने वाली यह फिल्म ज़बरदस्त है।
बिस्कुट एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की कहानी लेकर आई है। कहानी सपनापुर गाँव की है। देश का कोई भी एक गाँव, इस गाँव जैसा हो सकता है। यह सामान्य से एक गाँव की कथा है। वो जगह, जहां गरीबी एवं जातीय समस्याएं सर उठाए फिरती हैं। जहां सपने बेचकर जनता को भरमाया जाता है। कोविड एवं लॉकडाउन के बाद से रोज़गार की बड़ी समस्याएं सभी जगह देखने को मिलीं।
गाँव भी इससे अछूते नहीं रहे। खेती-किसानी की समस्याएं अलग और आसमान छूती महंगाई अलग! सरकार ने हालांकि बहुत से परिवारों को अनाज उपलब्ध कराया लेकिन यह नाकाफी ही था। राशन के लिए जिनकी पहचान नहीं हो सकी, वे सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए।
सपनापुर में सपना तो सभी के आंख में था लेकिन पूरे सिर्फ सरपंच नवरत्न सिंह के होते थे। गाँव में आधारभूत सुविधाएं भी नहीं मगर नेताजी लाभ ही लाभ में। गरीबी से जनता बेहाल, युवा बेरोज़गार, शिक्षा व्यवस्था चौपट लेकिन सरपंच साहब को इसकी कोई चिंता नहीं! गाँव के असल मुद्दे भटकाकर चुनाव जीतते आए हैं।
लेकिन कहानी असल गाँव वालों की या सरपंच की नहीं है, कहानी सरपंच के प्रचारक ‘भूरा’ की है। भूरा ही इस कहानी की मुख्य धूरी है। नवरत्न सिंह के लिए चुनाव प्रचार करना, घर-घर जाकर लोगों से मिलना, नारे लगाना आदि सब भूरा करता है।
नवरत्न सिंह गाँव वालों को क्षणिक आकर्षण दिखाकर मज़े देकर, सहायता देकर सालों से चुनाव से जीतता आ रहा है। इस बार भी वही सब हथकंडे अपना रहा है। लोगों में व्याप्त लाचारी उसे नहीं दिखाई देती। कहानी का नायक भूरे की नज़र गाँव वालों में गरीबी लाचारी भूख सब देख लेती है मगर उसके पास इतने संसाधन तो थे नहीं कि सबको खाना खिलवा सके।
अक्लमंद भूरा को एक आईडिया सूझा। नवरत्न सिंह ने जब उसे किसी गलती के कारण बहुत पीटा, तो बाद में चाय बिस्कुट खिलाकर अच्छे से प्रचार करने को कहा। यहीं से बिस्कुट बनने के तत्वों को लेकर जिज्ञासा घर कर गई। इत्तेफाक से गाँव में सुलेमान बेकरी थी। बिस्कुट किस तरह बनाया जाता है, वहां जाकर अच्छी तरह समझ गया। उसके मन में बिस्कुट बनाने का विचार आया। घर में उपलब्ध दाल चावल को एक साथ पीसकर सुलेमान बेकरी ले जाता है।
इसी खास मिश्रण के आटे को बिस्कुट में ढाल दिया जाता है। दाल-चावल के बने सितारे के आकार के बिस्कुट में भूख मिटाने का गज़ब का फॉर्मूला था। भूरा, गरीब एवं भूखे ग्रामीणों में यह बिस्कुट बंटवा देता है। आखिर में यही सितारा बिस्कुट, कहानी में ज़बरदस्त मोड़ लाता है।
अमीश श्रीवास्तव की यह फिल्म आम आदमी की वोट की ताकत दिखाती है। जनता यदि अक्लमंदी से वोट देने के अधिकार का प्रयोग करे फिर समय की धारा बदलने में देर नहीं लगती। फिल्म यह बड़े संदेश देने में सफल हुई है, जो कि इसकी बड़ी ताकत है। कथा पटकथा में में तीखा व्यंग्य है। फिल्मकार ने दर्शकों की जिज्ञासा को आखिर तक बनाए रखा है। वास्तविक लोकेशन में गज़ब का आकर्षण है। ऑन लोकेशन शूटिंग किसी भी कथा को विश्वसनीय बना देती है।
कलाकारों की बात करें तो सरपंच नवरत्न सिंह के किरदार को चितरंजन त्रिपाठी ने अदा किया है। चितरंजन टीवी एवं फिल्मों के उभरते हुए उम्दा कलाकार हैं। अहंकारी सरपंच के रोल को बखूबी निभाया है। भूरा के लीड रोल में अभिनेता अमरजीत सिंह हैं। अमरजीत वेब सीरीज़ के उभरते हुए नाम हैं।
उन्होंने हिट सीरीज़ पाताल लोक एवं मिर्ज़ापुर से नाम कमाया है। दोनों ही कलाकारों ने अच्छा काम किया है। बेकरी बॉय के रोल में चेतन ने खूब साथ निभाया है। बाकी के सभी पात्र ऑन लोकेशन किरदार हैं। शानदार फिल्म बन पड़ी बिस्कुट की कहानी गहरा प्रभाव छोड़ती है। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण संदेश के लिए फिल्म को ज़रूर देखा जाना चाहिए।