यदि हम शिक्षा की प्राचीन परिभाषाओं की बात करें, तो पढ़ने और पढ़ाने की प्रक्रिया को शिक्षा माना गया है। वैसे, तो मनुष्य की शिक्षा जन्म से ही आरम्भ हो जाती है व मनुष्य का परिवार ही उसका पहले शिक्षा रुपी भवन के रूप में काम करता है और एक बच्चे के रूप में मनुष्य अपनी शिक्षा अपनी माँ से ग्रहण करता है और इस तरह मनुष्य की पहली गुरु माँ को ही कहा जा सकता है।
शिक्षा से ही हम अपने भविष्य रुपी सपनों को पूरा कर सकते हैं और अपने जीवन को सही दिशा दे सकते हैं। बिना शिक्षा के हम में और पृथ्वी पर रहने वाले अन्य जीवों में कुछ भी अंतर नहीं रह जाता है। आजकल जीवनयापन के लिए काम करना हर किसी की आवश्यकता है, जिसके लिए हमारा शिक्षित होना बहुत आवश्यक है। शिक्षा से ही नए रोज़गारों की कल्पना की जा सकती है। वर्तमान में ज्ञान की शक्ति वाले देश ही सबसे ताकतवरों की पंक्ति में शामिल हैं।
शिक्षा के विभिन्न देशों में विभिन्न आयाम
अगर हम दूसरे प्रगतिशील देशों की बात करें जैसे अमेरिका, जापान, इंग्लैंड आदि तो वहां पर शिक्षा सैद्धांतिक ना होकर व्यवहारिक रूप में प्रचलित है जिसके परिणामस्वरूप वह सभी देश दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं और वहां के बच्चों व युवाओं के लिए पढ़ाई उनके लिए बोझ ना बनकर उनकी प्रगति व उनके सपनों को साकार करने का एक अचूक साधन है।
दूसरी ओर यदि हम भारत देश की बात करें, तो यहां शिक्षा सिर्फ नौकरी पाने व सिर्फ परीक्षाओं को पास करने की संकीर्ण सोच तक सीमित बनकर रह गई है। वही रटे-रटाए नियमों को प्राइमरी शिक्षा से लेकर परास्नातक की शिक्षा तक ना जाने कितने ही वर्षों से दोहराया जा रहा है जिस कारण बच्चों व नौजवानों को स्वयं आत्ममंथन व चिंतन करने तक का वक्त नहीं मिल पाता है जिससे कि वो विषय की गहराई को समझ सकें और उसे जीवन में व्यवहारिक रूप दे सकें और देश के विकास में सहयोग कर सकें।
इतना ही नहीं हिंदी भाषा को भी इसी तरह सिर्फ-और-सिर्फ कागजों में ही हिंदुस्तान की भाषा बनाकर रख दिया गया है जैसा कि सबको विदित है कि अंग्रेज़ तो चले गए पर अंग्रेज़ी भाषा ने देश को फिर से गुलाम बना लिया है। हिंदी भाषा में शिक्षा को लोग अपने वर्चस्व से जोड़कर देखने लगे हैं, उनको लगता है अगर वह हिंदी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं, तो वो दुनिया से अलग-थलग पड़ जाएंगे और उनका विकास रूक जाएगा। हर जगह अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने की भेड़चाल लगी हुई है।
शिक्षा ग्रहण करने में आधुनिक तकनीकों के प्रभाव
जैसा कि सब लोग इस बात से वाकिफ हैं कि पूरी दुनिया में फैले हुए कोरोना महामारी के प्रकोप ने ना केवल वहां रहने वाले लोगों के जीवन में एक दुष्प्रभाव छोड़ा है बल्कि उनकी आजीविका के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण के पैमानों को भी पूरी तरह बदल कर रख दिया है।
आजकल इस महामारी के कारण शिक्षा भी ऑनलाइन स्वरूप के माध्यम से हर घर हर परिवार में दस्तक दे चुकी है और इसे भी आधुनिक शिक्षा के एक नितांत आवश्यक साधन के रूप में देखा जा रहा है।
लेकिन इसके काफी दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं जैसे कि –
* बच्चों में आंखों से सम्ब्नधित रोग बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि घंटों तक बच्चे मोबाइल या कंप्यूटर की स्क्रीन पर समय बिता रहे हैं।
* लगभग 30-40 मिनट के समय के लेक्चर में ऑनलाइन यंत्रों में कभी आवाज़ ना आने की समस्या ,कभी प्रदर्शित होने वाली किताब के पृष्ठों का उल्टा-सीधा हो जाना आदि इन सब कार्यों में ही 10-15 मिनट का समय यूं ही व्यर्थ हो जाता है और शिक्षा अधूरी रह जाती है।
* बच्चों को शिक्षकों से सवाल -जवाब करने के तर्क -वितर्क का समय भी मिल नहीं पाता है और उनका ज्ञान अधूरा रह जाता है।
*बच्चों के स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे बाहरी शारीरिक खेलों को छोड़कर मोबाइल पर ऑनलाइन गेम खेलने में अपना ज्यादा समय बिताना पसंद करते हैं, जिस कारण उनमें चिड़चिड़ापन एवं अन्य आक्रामक स्वभाव होने की समस्याएं भी ज़्यादा हो गई हैं।
अगर इन सब समस्याओं के समाधानों की बात करें, तो बच्चों के अभिभावकों को भी अपने बच्चों की तरफ विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है और उनके साथ समय बिताने की भी। सभी विद्यालयों को भी शिक्षा को व्यवसाय ना बनाकर व निजी पब्लिकेशन्स की किताबें ना लगवाकर व्यवहारिक शिक्षा पर ज़ोर देने की ज़रूरत है, ताकि हमारे देश के बच्चे देश की प्रगति में निर्णायक सिद्ध हो सकें।
दूसरी तरफ अगर ऑनलाइन शिक्षा को ही आधुनिकतावाद को एक अभिन्न अंग व ज़रूरत समझा जा रहा है, तो व्यवहारिक शिक्षा ही इस लक्ष्य को पाने का एक उत्तम साधन है व देश की विभिन्न सरकारों को भी इस दिशा में टेलीविजिन पर विभिन्न चैनलों पर हर कक्षा के पूर्ण पाठ्यक्रम को सभी भाषाओं में उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि मोबाइल और कंप्यूटर पर मिलने वाले अधूरे ज्ञान से देश के भविष्य कहे जाने वाले बच्चों को बचाया जा सके।