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बिहार के लोग अपने ही राज्य की अस्मिता पर क्यों थूक रहे हैं?

सरकार और आम जन की उपेक्षा के कारण धूमिल होती मधुबनी कला संस्कृति, ज़िम्मेदार कौन?

बिहार का अभिमान है मधुबनी पेंटिग, बिहार की पहचान है मधुबनी पेंटिग। कला की दुनिया में पूरी दुनिया के मंच पर भारत देश के लिए शान है मधुबनी पेंटिग। बिहार के लोग अपने ही राज्य के अस्मिता पर थूक-पेशाब क्यों कर रहे हैं। बेशक बिहार में सार्वजनिक शौचालय की व्यवस्था चाक-चौबंद नहीं है।

अंग्रेज़ अधिकारी डब्लू.सी.आर्चर ने बिहार के मिथलाचल इलाकों के घरों में दीवार पर ऊकेरे गए चित्रों को 1949 में देखा, 60 के दशक में मधुबनी पेंटिग कागज पर बनकर उभरी। पूरी दुनिया के सामने 1971 के दशक में पेंटिग के रूप में आई और कला की दुनिया में छा गई। गंगा देवी, महासुंदरी देवी, सीता देवी, दुलारी देवी, गोदावरी दत्त जैसे कलाकारों ने मधुबनी पेंटिग को वैश्चिक पहचान के साथ जीवित रहने की नई ऊर्जा भी दी।

बिहार के दरभंगा-मधुबनी क्षेत्र के घरों की दीवारों (कोबहर) और फर्श (अरिपन) के दायरे से निकलकर मधुबनी पेंटिग कलाकारों के नवाचार प्रयोगों से होते हुए पूरे देश के घर-आंगनों की हिस्सा बन रही है। मधुबनी पेंटिग सामाजिक सद्भाव के संदेश देने के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों पर भी चोट कर रही है।

वह ना केवल महिला सशक्तिकरण का संदेश दे रही है बल्कि महिलाओं की एक बड़ी आबादी को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बना रही है। बेशक इस लोक कला ने कलाकारों को एक नई पहचान दी है और कलाकारों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मान और प्रतिष्ठा भी मिल रही है, जब-जब मधुबनी पेंटिग को सार्वजनिक जगहों पर उकेरने की बात शुरू हुई, उस वक्त भी यह दुविधा कई कलाकारों के मन में थी।

मधुबनी पेंटिंग्स पर थूक और अन्य क्रियाकलापों के निशान।

घर-आंगन में ही नहीं कुछ समाज में शादी-ब्याह के समय उपयोग में लाई जाने वाली इस कला को सार्वजनिक जगहों पर इस्तेमाल किया जाए या नहीं। सरकारी महकमों और संस्कृति मंत्रालय के भरोसे से कलाकारों ने इस कला को नई ऊर्जा से गतिमान करने का प्रयास किया और बेशक कला जन-जन तक पहुंची भी परंतु यह क्या जिस कला में लोग सूर्य को, शिव-शंभू को, माता जानकी को, भगवान राम को आराध्य मानकर पूजते हैं, अपनी कला में नए तरीके से उनको अवतरित करते हैं। वहीं सड़क और चौराहों की दीवारों पर बनीं मधुबनी पेंटिग की इन सम्मानीय कृतियों पर लोग पेशाब कर रहे हैं और गुटखा और पान खाकर थूक रहे हैं।

मधुबनी पेंटिंग्स पर थूक और अन्य क्रियाकलापों के निशान।

क्या यह हमारी संस्कृति की महान लोक कला के साथ-साथ, हमारे आराध्य देवताओं का अपमान नहीं है? क्या सार्वजनिक जगहों पर मधुबनी पेंटिग बनवाते समय राज्य सरकार और नौकरशाही ने कुछ सोचा नहीं था? किसी कला के संवर्धन और विकास के लिए उसको चौक-चौराहे पर लाकर इस तरह उसका अपमान करना कितना सही है?

किसी भी लोक कला को समुचित सम्मान दिलाना क्या राज्य के लिए प्रतिष्ठा का विषय नहीं होना चाहिए? क्या कला पर्यवेक्षकों को इस बात के बारे में नहीं सोचना चाहिए कि किसी भी कला को चौक-चौराहे पर लाकर वह किस तरह का सम्मान कला को दे रहे हैं? यह केवल एक कला का अपमान ही नहीं है बल्कि हमारे धर्म के पतन का परिचायक भी है? जो हमें सार्वजगहों जगहों पर राज्य की अस्मिता के प्रतीक उसकी कला पर ही नहीं, हमारे धार्मिक प्रतीकों का अपमान सह लेता है और चूं तक नहीं करता है।

बेशक किसी राज्य की कला को जन-जन तक पहुंचाने के लिए और उस कला का संवर्धन करने वाले कलाकारों को उचित परिश्रम और बेहतर ज़िन्दगी जीने का विकल्प मिलना चाहिए पर यह राज्य सरकार और संस्कृति मंत्रालय का नैतिक कर्तव्य है कि वह राज्य की अस्मिता के रक्षा के लिए कुछ नीति-निर्धारण या दिशा-निर्देश बनाए जिससे कम से कम एक प्रतिष्ठित कला का सार्वजनिक चीरहरण तो ना हो।

मधुबनी पेंटिंग्स पर थूक और अन्य क्रियाकलापों के निशान।

सबसे पहले तो इस लोक कला को ट्रेन की बोगियों पर, सड़कों-राजमार्गों की दीवारों पर, चाय स्टालों पर या अन्य किसी भी ऎसी जगहों पर बनाया ही नहीं जाना चाहिए था, जहां इस कला का ही नहीं कला के प्रेरणा के तत्व फिर चाहे, वो कोई आराध्य देवी-देवता हो या प्रकृति के अन्य किसी भी रूप में बनाई हुई पेंटिंग का अपमान हो। 

सोशल मीडिया पर मधुबनी पेंटिंग्स के अपमान में आई लोगों की प्रतिक्रियाएं।

अगर सरकार ने कला के संवर्धन या कलाकारों के जीवन के बेहतर करने के उद्देश्य से यह फैसला लिया भी, तो कलाकारों के साथ मिलकर राज्य के संस्कृति मंत्रालय को यह तय करना चाहिए था कि सार्वजनिक जगहों पर अगर मधुबनी पेंटिग बनाई जा रही है, तो वहां देव या दैवीय चित्रों की अभिव्यक्ति नहीं करेगे। यह कला के अपमान के साथ-साथ लोगों के आस्था के साथ मज़ाक उड़ाने का मामला भी है।

सबसे अधिक दुखद पहलू यह है कि मधुबनी पेंटिग के साथ सामाजिक बदनियति की स्थिति या उपेक्षा अन्य किसी राज्य में नहीं, उस राज्य में ही देखने को मिल रही है, जिस राज्य की सभ्यता-संस्कृति पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित है। मिथंलाचल निवासी मधुबनी पेंटिग के साथ इस व्यवहार से काफी दुखी ही नहीं व्यथित भी हैं और सोशल मीडिया पर अपना क्षोभ प्रकट भी कर रहे हैं।

सोशल मीडिया पर मधुबनी पेंटिंग्स के अपमान में आई लोगों की प्रतिक्रियाएं।

कुमुद सिन्हा फेसबुक मेसेंजर पर बातचीत के दौरान बताती हैं कि जो पेंटिग्स सार्वजनिक जगहों पर बनाई गई हैं, वह तिरहुत इलाके की मिथिला पेंटिग हैं पर किसी भी कला का इस तरह से अपमान होना तो किसी भी मायने में सही नहीं ही है।

मधुबनी पेंटिग के कलाकारों, इस कला से प्रेम करने वालो लोगों को और मधुबनी कला से जुड़े उन संस्थानों को जो इस कला के संरक्षण, संवर्धन और विकास की दिशा में काम कर रहे हैं। उनका यह दायित्व है कि जिस कला के प्रति वह समर्पित हैं, जो कला उनके केवल जीविका ही नहीं मान-सम्मान और प्रतिष्ठा से भी जुड़ी है। 

उसके प्रति उनका यह कर्तव्य है कि राज्य सरकार से मिलकर एक उचित नीति की दिशा में काम करें, जिससे इस कला का सार्वजनिक अपमान एवं चीरहरण जैसी अप्रिय घटना ना हो और जिस कला को पूरी दुनिया ने सराहा है, उस कला का चौक-चौराहे या सार्वजनिक जगहों पर अपमान राज्य की प्रतिष्ठा और अस्मिता पर भी चोट है।

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